फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ और मैथिली
फणीश्वरनाथ रेणु की रचनाओं में आंचलिकता और लोकजीवन का विशेष महत्व है। उनका साहित्य स्थानीयता के साथ जुड़ा हुआ है, और यह उनकी साहित्यिक दृष्टि का एक प्रमुख हिस्सा है। रेणु ने बिहार के पूर्णिया जिले के गाँवों के जीवन, वहाँ के रीति-रिवाज, लोकगाथाओं, लोकगीतों और पारंपरिक जीवनशैली को अपनी रचनाओं में प्रमुखता से स्थान दिया है। उनके उपन्यासों और कहानियों में आंचलिकता का यह तत्व प्रमुख रूप से दिखाई देता है। रेणु की आंचलिकता केवल ग्रामीण जीवन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारतीय समाज के व्यापक संदर्भ में है। उनका साहित्य एक प्रकार से भारतीय समाज की विविधताओं, उसकी जटिलताओं, और उसमें हो रहे परिवर्तनों का दर्पण है। उनकी रचनाओं में भारत की सामाजिक-आर्थिक संरचना, जातिवाद, गरीबी, शोषण, और ग्रामीण संघर्षों का सजीव चित्रण मिलता है।
रेणु के साहित्य में लोकजीवन का भी विशेष स्थान है। उनके पात्र आम जीवन के साधारण लोग होते हैं, जो अपने संघर्षों और अनुभवों से जीवन की सच्चाइयों को सीखते हैं। लोकगीत, लोकगाथाएँ, और लोककथाएँ उनकी रचनाओं का हिस्सा होती हैं, जो उनके साहित्य को और भी सजीव और प्रभावी बनाती हैं। यह लोकजीवन और आंचलिकता का मेल ही है, जो रेणु के साहित्य को अद्वितीय बनाता है। इतना सामाजिक परिवेश अपनी रचनाओं में डालने के बाद भी उन्होंने मैथिली से दुरी ही बनाकर रखी, यह भी सोचनीय है इसके कई उदहारण दिए जा सकते है और आप निम्न लेखों के माध्यम से पढ़ भी सकते है।
https://www.forwardpress.in/2024/09/news-phanishwar-nath-renu-1/
https://forwardpress.in/2021/11/interview-ramdhari-singh-divakar-3/
https://www.forwardpress.in/2023/03/remembering-renu-and-his-literature/
https://www.forwardpress.in/2021/03/remembering-renu-marginalised-farmers-hindi/
https://www.forwardpress.in/2020/07/news-phanishwar-nath-renu-hindi-bhawan-hindi/
https://vagartha.bharatiyabhashaparishad.org/%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9A%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9A%E0%A4%BE-%E0%A4%AB%E0%A4%A3%E0%A5%80%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A5-%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%A3/
रेणु के जन्म शताब्दी पर बहुत जगहों पर उनकी रचनाओं का विश्लेषण प्रकाशित हुआ था जिसके कुछ अंक को आप देखेंगे तो उसमें में इस तरह की कोई चर्चा नहीं हो रही है। उन पत्रिकाओं के पहले पन्ने मैं यहाँ शेयर कर रहा हूँ। उसे आप https://www.facebook.com/media/set/?set=a.10230648250523931&type=3 यहाँ देख सकते है उनकी छोटी छोटी किताबों को मंगाकर पढता रहा था लेकिन फिर मुझे रेणु रचनावली जो पाँच खंडो में है के बारे में पता चला जिसके संपादक भारत यायावर जी है उसको मंगाया फिर पता चला संसार, लेकिन जब लोग रेणु और मैथिली के बारे में बात करते है तो थोड़ा अस्वाभाविक लगता है कि उनका क्या ही कनेक्शन हो सकता है मैथिली के साथ। इसी क्रम में मुझे एक लेख भी मिला जो खुद भारत यायावर जी ने लिखी है "जाति ही पूछो रेणु की" https://www.facebook.com/bharat.yayawar.5/posts/pfbid0Gvv1BctU4msQS3zfzyJgXKmqAE7uLMXuGBvYq16HawE39PLnAvKipUNwf2rW2unrl इस लेख में उन्होंने कई बातों पर जिक्र किया है लेकिन फोकस जाति पर ही रखी आप पढ़कर अंदाज़ा लगा सकते है कि जिनको उन्होंने ताउम्र कभी भाव नहीं दिया वे उन्हें अपने अंदर समाहित करने के लिए लिए कितने लालायित है। इस लेख में उनका यहाँ तक कहना है की कई लेखकों ने उन्हें अपनी जाति का बताकर उसे साबित भी करने का प्रयास किया अगर लेखक की जाति नहीं होती है तो फिर ऐसे प्रयास हुए ही क्यों? जाति समाज का एक बदनुमा हिस्सा है जिससे अगर आपको मलाई मिले तो आप खाते रहिये और अगर दुसरे को मिलने लगे तो कैसे आप उन्हें अपना बताकर अपने अन्दर लाने का प्रयास करे या उसे नकार दे। ऐसा मैं नहीं रेणु के रचनाओं में इन बातों का भंडार छुपा है इसी पर एक लाइन उनकी सोशल मीडिया पर घुमती रहती है कि "जाति बहुत बड़ी चीज है। जात-पात नहीं मानने वालों की भी जाति होती है।" लेकिन जिन्हें जाति नहीं मानने का ढोंग करना होता है वे उनका यह वाला सन्दर्भ बताते है "जात क्या है! जात दो ही है, एक गरीब और एक अमीर।" ऐसे कई किस्से है जो मैथिली और सीमांचल को अलग करता है। यह चर्चा सिर्फ रेणु और मैथिली पर टिकी ना रहे तो सीमांचल का भी भला हो सकता है। भारत यायावर का ही लिखा एक लेख है https://www.facebook.com/bharat.yayawar.5/posts/pfbid0ajAi2119BDqegwK2Pm1tuWEZw2YBwSfRz55QfvefLFtqoZL9zFXVArrqwV3r1Nh9l "मैथिली के दो गौरव : नागार्जुन और रेणु!" जिसमें वे लिखते है "रेणु का लिखा नागार्जुन के नाम एक ही पत्र अबतक मिला है, जो टिपिकल मैथिली भाषा का नमूना है।" यह दर्शाता है कि उन्हें मैथिली से गुरेज़ नहीं था लेकिन 'नेपथ्यक अभिनेता ' और 'जहाँ नमन को गमन नहिं' आदि कुछेक रचनाओं को छोड़कर बहुत ज्यादा नहीं मिलता है। क्योंकि उन्होंने मैथिली से ज्यादा तवज्जों आंचलिकता को रखा और जिस क्षेत्र से आते है वह क्षेत्र जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन के अनुसार छीका-छिकी वाला क्षेत्र माना है जिसे अंगिका के प्रख्यात रचनाकार डॉ अमरेन्द्र के अनुसार भी अंगिका का क्षेत्र ही माना गया है।
लेकिन क्या उन्होंने इतना लिखा है कि मैथिली में साहित्य अकादमी को "फणीश्वरनाथ रेणु और मैथिली" पर परिचर्चा मधेपुरा में करनी पड़ रही है। अगर साहित्य अकादमी को जगह चुनना ही था तो पूर्णिया विश्वविद्यालय चुनते, ताकि उनके नाम पर विश्वविद्यालय का नाम होने की बात पर भी चर्चा उठती, साथ में उनका गृह जिला भी हुआ करता था तो स्वाभाविक तौर पर उनके साहित्य को एक स्थान मिलता, मधेपुरा या सहरसा या सुपौल तो कोशी की धरती है वहां कोशी के बिना बात कैसे हो सकती है क्या इस परिचर्चा में कोशी-डायन नाम के रिपोर्ताज़ पर भी चर्चा होगी शायद नहीं क्योंकि इससे हर बार कोशी में आने वाले बाढ़ पर बात होनी चाहिए लेकिन नहीं होगी। क्यों साहित्य अकादमी अभी तक उन्हें पुरस्कृत नहीं कर पाया यह भी सवाल उठेंगे? चर्चा किसी भी बात पर हो सकती है लेकिन उस चर्चा के लिए समय और जगह का अनुकूल होना जरुरी होता है। अगर पूर्णिया होता तो साहित्य अकादमी को बेहतर श्रोता तो मिलता ही साथ में पूर्णिया कमिशनरी में उनके चाहने वालों को एक स्वस्थ और सुन्दर परिचर्चा सुनने को मिलता, मैं यह नहीं कह रहा हूँ की मधेपुरा में श्रोता नहीं मिलेंगे लेकिन साहित्य अकादमी को अपनी साख को बचाना या उसको आगे बढ़ाना है तो उन्हें ऐसे कार्यक्रम करने से पहले एक बार इस तरीके से सोचा जाना अति-आवश्यक है।