Friday 21 April 2023

संस्कृति वर्चस्व और प्रतिरोध

"संस्कृति वर्चस्व और प्रतिरोध" किताब के लेखक पुरुषोत्तम अग्रवाल जी ने किताब का नाम इस तरह से चुना है की आपको उसी से अंदाज़ा हो जायेगा कि लेखक पुरे किताब में क्या कहना चाह रहे है। शुरुआत होती है "हम कौन थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी?" से जिससे समाज की परिस्थिति के बारे में पता चलता है। और यह समाज के बारे में लिखा गया है। मैंने जब यह किताब खरीदा था तो पता था की इसको पढ़ने के बाद विचारों में उतार चढ़ाव अवश्य होंगे और यही वजह थी की इतनी छोटी सी किताब पढ़ने में औसतन ज्यादा समय लगा क्योंकि ईमानदारी से कहूँ तो इतने विचारों के भंवर को संभाल पाना आसान नहीं क्योंकि आपको अपने  विचारों में खोखलापन साफ़ नजर आने लगता है जैसे जैसे आप इस किताब को पढ़ते जाते है उसी प्रकार आप अपने विचारों की स्थिति के बार में पता लगा पाते है। लेखक के ही शब्दों में यह किताब इतना विचारोत्तेजक है की इसे संभाल पाना मुश्किल है व्यक्तिगत तौर पर नहीं समाज आज जिन परिस्थितियों से गुजर रहा है उसको लेकर यह टिपण्णी की गयी होगी ऐसा लगता है। इसीलिए इस किताब को पढ़ने से पहले आपको अपने अंदर विचारों की एक तरफ़ा शृंखला अगर है तो फिर इस किताब को झेल पाना बहुत मुश्किल होगा। क्योंकि जितना आप आगे बढ़ते जायेंगे यह किताब आपके अपने ही विचारो की बखिया उधेड़ता महसूस होगा और कई बार आपको लगेगा की मैं क्यों इस किताब को पढ़ रहा हूँ और इससे क्या हासिल होने वाला है।  

आगे मेरी प्रतिक्रिया से पहले मैं लेखक के बारे में बताना चाहता हूँ की वैसे ही यूट्यूब पर कुछ दर्शनशास्त्र से सम्बंधित वीडियो देखने के सन्दर्भ में इनकी एक वीडियो जो हाल ही में व्याख्यान में दिया गया था सूना जो काफी हद तक मेरे विचारो को सहलाता नजर आया वैसे में तकनिकी विषय का छात्र हूँ लेकिन साहित्य और दर्शन में रूचि होने की वजह कई किताबों और वीडियोस को पढ़ना और देखना शुरू किया जो मेरे बौद्धिक विकास में सहायक हो और तब इनकी एक किताब मंगाई थी जिसके बारे में पहले ही अपना टिपण्णी दे चुका जिसका नाम है "कौन है भारत माता?" और आज यह किताब मुझे किसी और सन्दर्भ में रिफरेन्स के तौर पर मिला तो मुझे लगा की पढ़ना चाहिए अब इस किताब को पढ़ने के बाद लगता है मुझे इनकी दो और किताब है जो पढ़नी चाहिए "तीसरा रुख़" और "विचार का अनंत" शायद इन दो किताबों को पढ़ने के बाद एक अलग विचार से आगे बढ़ पाऊँ। वैसे में विचारों के मामले में रूढ़ीवादी कतई नहीं रहा हूँ लेकिन कुछ लोगों को लगता है मैं पुराने ख्यालातों वाला व्यक्ति हूँ लेकिन सबकी अपनी अपनी समझ होती है मैं किसी भी बात को तथ्य और तर्क की कसौटी पर रखकर देखनी की कोशिश करता हूँ। यही मेरी रूढ़ीवादिता है।  

आखिर किताब में ऐसा क्या है जो मैं ऐसा महसूस कर पा रहा हूँ क्योंकि इस किताब की भूमिका में एक समाजसेवी के द्वारा यह सवाल पूछना की "क्या प्रेम का प्रचार प्रसार करना भी उतना आसान है जितना की नफरत का?" किताब की भूमिका में ही लेखक यह कहते है की "समाज को बदलने की कोई भी सार्थक यात्रा खुद से आरम्भ होती है। यह आरम्भ में ही समझ लेना हितकारी होगा की भारतीय समाज की बनावट ही ऐसी है की यहाँ ना धक्कामार ब्राह्मणवाद चल सकता है ना धक्कामार गैर-ब्राह्मणवाद।" मुख्यतः लेखक इस किताब में अलग अलग लेख के माध्यम से समाज से ही सवाल करते है और कोशिश करने का प्रयास करते है की आखिर समाज से कहाँ भूल हो रही है या समाज को किस दिशा की और बढ़ना चाहिए और इन बातों की किस तरह से देखा जा सकता है। इसी क्रम इस इन प्रश्नो पर कुछ सोच विचार हो सके। इन विचारों के माध्यम से लेखक चाहते है की समाज इन प्रश्नो पर गंभीरता से विचार करे और समझे की समाज की दशा और दिशा क्या होनी चाहिए। और इसको तय करने के लिए सिर्फ वे ही जिम्मेदार नहीं है पुरे समाज को मिलकर इसकी जिम्मेदारी उठानी होगी। 

किताब में अलग अलग लेख जिसमें मुझे जो पसंद आये वे है ".... और क्या होंगे अभी?", "प्रामाणिक भारतीयता की खोज", "इस माहौल में विवेकानंद", "सीता शम्बूक और हम", "घुप अँधेरे में छोटी-सी लालटेन", "खड़े रहो गांधी", "जातिवादी कौन" आदि। एक समाज के रूप में "हम" का बोध गहरे आत्म-मंथन का विषय है और "हम कौन थे, क्या हो गए, और क्या होंगे अभी" मैथिलि शरण गुप्त की प्रसिद्द पंक्ति के रूप में इस "हम" का आत्म मंथन की व्यंजना करवाती है। और यही लेखक अपनी लकीर खींचने का प्रयास करते है कबीर को आगे रखकर उनके शब्दों में की "यह कड़वी सच्चाई है की 'हम सब' के 'हम' और 'सब के बीच बहुत फर्क था, कबीर उसी समाज के अंग थे, जिसकी पीड़ा उनके दोहों में दिखती भी थी, जैसे 'तू बाम्हन मैं काशी का जुलहा' और 'हम तो जात कमीना' जैसे शब्दों का ताना बाना उसी दर्द का हिस्सा है। अंग्रेजी हमारी बौद्धिक बनावट की भाषा है भावनात्मक बनावट की नहीं, जैसे की आज भी अगर कोई अपनी बात अंग्रेजी में कहता है तो ऐसा लगता है की काफी बड़ा बुद्धिजीवी है और लेखक भी इस बात को समझे बिना नहीं रह पाते है और कहते है की आज भी हमारे यहाँ ऊँचे दर्जे का चिंतन अंग्रेजी में होता है और जनता देशी भाषाओं में काम चलाती है।  ठीक उसी प्रकार कई संस्कृत नाटकों में आप संभ्रांत किरदारों को संस्कृत में संवाद बोलते पढ़ते है लेकिन आम जन-मानस की भाषा प्राकृत होती है। हमें 'हम' से जरुरत ऐसे भारतीय आत्म-बोध की है जिसमे 'हम' की आकांक्षाओं को ही नहीं 'सब' की व्यथाओं को भी धारण करने की सामर्थ्य हो।

विचारों का भंवर ऐसा नहीं हो की किसी विचार को सिर्फ उसके इरादे भर से मान लिया जाए, उस विचार की परख उसकी सच्चाई, परम्परा और समाज में सभी लोगो द्वारा उन मूल्यों को बल दिया गया हो। इस प्रसंग में कबीर के प्रति स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के विचार को पढ़ने योग्य बताया गया है। यदि सभी मनुष्य ब्रह्म के ही रूप है और जीवन ही ईश्वर का रूप है तो एक तरफ चींटी को आटा खिलाना और दूसरी तरफ उसी मानव जीवन के दूसरे अंग से दुरी क्यों? जैसे गाँधी कहते है की सत्य और हिंसा का सिद्धांत इतना पुराना होने के बावजूद यह हर काल में सृष्टी के साथ चलता चला आ रहा है। तो सत्य सिर्फ एक आतंरिक खोज का हिस्सा नहीं हो सकता है उसे सामाजिक खोज का हिस्सा भी बनाना पड़ेगा। हमें अपना विवेक किसी भी ऐसे विचार या व्यक्ति के हवाले नहीं करना चाहिए जो सिर्फ यह चाहता है की उनके ही विचार सुने और पढ़े जाय, फिर सत्य और अहिंसा की खोज सामाजिक तौर पर नामुमकिन है। अगर आप विवेकानंद को धार्मिक कहते है उनके कहे कुछ वाक्यों पर ध्यान देने की जरुरत है जैसे "भूखे के सामने भगवान् पेश करना उसका अपमान है।", "धर्म का सामाजिक नियमों से क्या प्रयोजन?", "धर्म को कोई हक़ नहीं की वह समाज के नियम गढ़े।" आदि। लेकिन आप विवेकानंद को राजनैतिक भी नहीं बोल सकते है क्योंकि उनका राजनीती से दूर दूर का कोई वास्ता नहीं था तो ऐसे वक्तव्यों से वे क्या कहना चाहते थे। वे हम सबको आत्म अवलोकन करने ही कह रहे थे की जिस जंजाल से आप और आपका समाज आगे नहीं बढ़ पा रहा है उससे आपको छुटकारा पाने की आवश्यकता है। 

समाज में स्त्री की पवित्रता ऐसी चीज है जिसे जांचने का और परखने का हक़ सिर्फ सामाजिक सत्ता को है। उस सत्ता को जो स्त्री को देवी कहकर पुकारता तो है लेकिन समय मिलने पर उसकी अग्नि परीक्षा लेने से भी नहीं चुकता है। स्त्री को ही अपने शरीर, मन और व्यक्तित्व पर अधिकार नहीं है। ऐसा लगता है परम्परा से सत्ता आयी वो भी पुरुष प्रधान तंत्र के हिस्से लेकिन मर्यादा की जिम्मेवारी सिर्फ स्त्री के हिस्से। प्रगतिशील उदारपंथी बुद्धिजीवी किसी भी समस्या को स्वाभाव से मुद्दों पर रेखांकित करने का काम नहीं कर पाते है वे केवल प्रतिक्रिया देकर अपनी इतिश्री कर लेते है। आजकल हर ऐसी बातो को राष्ट्रीय गौरव, समाज की इज्जत आदि से पुकारकर या बोलकर इसे एक रूप में रंगने का प्रयास लगातार होता रहता है। परिभाषाओं पर एकाधिकार रखने वाली सत्ता की निगाह में अभी भी चाहे वो स्त्री हो या कामगार समाज उसकी हैसियत क्या है किसी से छुपी नहीं है। गाँधी का रामराज्य का मतलब था समाज के आखिरी पायदान पर खड़े व्यक्ति के आँख के आंसू पोछे जाय। और इसी को जादू की पुड़िया कहकर बाबू जगजीवन राम को भी यही समझाने का प्रयास किये थे। राजनीती तो ऐसे सवालों पर हमेशा चुप्पी साधकर अपनी मौन स्वीकृति तो दिखा ही देता है और उसकी मज़बूरी भी है। कभी कभी लगता है स्त्री का व्यक्तित्व अर्जन की समस्या किसी सभ्यता परम्परा के उदार और सहिष्णु होने अथवा न होने भर की समस्या हो। 

ऐसी ही कई समस्याओं पर ध्यान आकृष्ट करना मुझे लगता है पुरुषोत्तम अग्रवाल जी का प्रयास सफल माना जाना चाहिए और मैं उनको धन्यवाद देना चाहता हूँ ऐसी विचारोत्तेजक किताब हम जैसे पाठकों के बीच लाने के लिए। 

धन्यवाद 
शशि धर कुमार

Saturday 8 April 2023

Rocket Boys

रॉकेट बॉयज़ भारत के दो ऐसे पुरुषो के बारे में कहानी कहता है जो इतिहास में दर्ज है साथ में हमारे तीसरे महान वैज्ञानिक डॉ कलाम साहेब की कहानी है। कहानी भारत के इतिहास में चार महत्वपूर्ण दशकों (1940-80 के दशक) के इर्द-गिर्द सेट है और कैसे भारत एक मजबूत, बहादुर और स्वतंत्र राष्ट्र बनने की ओर बढ़ रहा और उसके राह में क्या क्या रोड़े आते है यह भी दर्शाता है। 

इन तीनो की आँखों में अपने देश की उड़ान को लेकर जो सपने है उसे वे हरसंभव प्रयत्न कर पूरा करना चाहते है और हर दिन हर समय वे उन सपनो के साथ जीते है और जिन्दगी की तमाम मुश्किलों के बावजूद वे आगे बढ़ने को हमेशा तत्पर दीखाई पड़ते है। उनकी आंखों में सपने और उनके दिमाग में एक योजना के साथ  डॉ होमी जे भाभा ने भारत के परमाणु कार्यक्रम को सोचा और स्थापित किया और डॉ विक्रम साराभाई ने भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम और कई अन्य संस्थानों की स्थापना की। उनकी यात्रा में मृणालिनी साराभाई, डॉ. साराभाई के जीवन में एक मजबूत स्तंभ, डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम , जिन्होंने आधुनिक भारतीय एयरोस्पेस और परमाणु प्रौद्योगिकी का नेतृत्व किया और पंडित जवाहरलाल नेहरू जिन्होंने हर कदम पर उनका समर्थन किया।

होमी जहांगीर भाभा का मानना है कि अगर भारत को ताकतवर देश बनना है तो उसे अपना परमाणु बम कार्यक्रम पूरी शक्ति से आगे बढ़ाना चाहिए। दूसरी तरफ विक्रम साराभाई हैं जो अंतरिक्ष में उपग्रह भेजकर देश के आम इंसान की तकदीर बदलना चाहते हैं। दोनों की अपनी अपनी पारिवारिक जिंदगी में अनेक अनछुए पहलु है जो इनदोनो को साथ में विचारों के मतभेद के साथ आगे बढ़ते रहने को प्रेरित करता है और है अमेरिका की साजिशें, दबाव और जासूसी भी है लेकिन जहाँ एक तरफ पाकिस्तान व दूसरी तरफ चीन से घिरे भारत को रूस में अपना स्वाभाविक मददगार नजर आता है और अमेरिका, पाकिस्तान का स्वाभाविक दोस्त। 

एक शुद्ध देशी वैज्ञानिक उपलब्धियों की कहानी कहते कहते दूसरे सीजन में आकर राजनीति की चाशनी अवश्य दिखती है। जिसमे कभी थोड़ा खट्टापन और थोड़ा मीठापन भी नजर आता है। आज हमें गर्व होता है कि भारत ने अंतरिक्ष विज्ञान में बड़ी ऊंचाइयां हासिल की हैं. चांद पर अपना यान उतार दिया है, मंगल तक यान भेज दिया है। साथ ही आज हम विश्व की प्रमुख परमाणु शक्ति भी हैं मगर यह रातों रात चमत्कार से संभव नहीं हो पाया है इसके पीछे देश के भविष्य को देखने वाली दृष्टि जो सी वी रमण से शुरू होकर कलाम साहेब के पोखरण परमाणु परिक्षण तक की यात्रा में अनेकानेक कठिनाइयों का सामना करते हुए  भारत को विश्व में सम्मानजनक स्थिति दिलाने की दृढ़ इच्छाशक्ति वाले वैज्ञानिक, विचारक और राष्ट्रीय नेता शामिल हैं। 

होमी विश्व युद्ध के दौरान भारत लौट कर कलकत्ता के एक साइंस कॉलेज में प्रोफेसर हो जाते हैं, जबकि साराभाई कैंब्रिज में अपना रिसर्च छोड़ कर घर आ जाते हैं।  होमी जहां परमाणु विज्ञान में दिलचस्पी रखते हैं, वहीं साराभाई का सपना देश का पहला रॉकेट बनाने का है। जहां होमी जी भाभा प्रोफेसर हैं और साराभाई उनके स्टूडेंट से चलकर धीरे-धीरे दोनों दोस्त बन जाते हैं फिर कई मुद्दों जैसे भाभा के परमाणु बम बनाने के विचार से साराभाई इत्तफाक नहीं रखते हुए उसके इस प्रोजेक्ट से अपने आपको अलग करते है लेकिन दोस्ती अभी तक कायम रहती है साथ में दोनों के बीच चिट्ठियों का आदान प्रदान होता रहता है इसी क्रम में 1942 में महात्मा गांधी के "अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन" से प्रभावित होकर होमी और साराभाई कॉलेज में एक दिन अंग्रेजी झंडा उतार कर स्वराज का तिरंगा लहरा देते हैं और यहीं से उनका मुश्किल वक्त शुरू होता है उनके रिसर्च के लिए आने वाले पैसे रोक लग जाती है फिर भाभा कॉलेज से अपनी नौकरी छोड़ कर मुंबई जाते हैं और जेआरडी टाटा के साथ उनका नया सफर शुरू होता है टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ फंडामेंटल रिसर्च के रूप में। दूसरी तरफ साराभाई पढ़ाई के साथ-साथ अपने पिता के कारोबार में हाथ बंटाते है और वे कपड़ा मिलों को आधुनिक बनाना चाहते हैं लेकिन यूनियन लीडरों का विरोध सहना पड़ता है इसके बावजूद वे किसी तरह से वे इसमें कामयाब हो गए और अहमदाबाद टेक्सटाइल इंडस्ट्रीज़ रिसर्च एसोसिएशन स्थापित करने में कामयाब भी हुए बाद में उन्होंने अहमदाबाद में ही इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ अहमदबाद भी स्थापित किया।

दूसरे सीजन की शुरूआत 1962 के युद्ध के बाद से होती है, जब भारत चीन से हार चुका था। हमारे देश के कुछ हिस्से पर भी चीन ने कब्जा कर लिया था. ऐसे में डॉ. होमी जहांगीर भाभा न्यूक्लियर बम बनाने के अपने प्रोग्राम को तेज कर देते हैं। लेकिन अमेरिका सहित चीन और पाकिस्तान इस प्रोग्राम पर नजर बनाए हैं साथ में भाभा की टीम में कुछ लोग ऐसे हैं, जो पैसों की लालच में अमेरिकन खुफिया एजेंसी सीआईए के लिए काम करते हैं। सीआईए को जब पता चलता है कि भाभा न्यूक्लियर रिएक्टर बनाने की दिशा अपना काम तेज कर दिए हैं, तो वो उनको मारने की कोशिश करते हैं, लेकिन किस्मत से वे बच जाते हैं। इधर, साराभाई लगातार सरकारी विरोधो के बावजूद थुंबा में अपनी टीम के साथ सैटेलाइट लॉन्च करने की कोशिश में लगे रहते है लेकिन उनको सफलता नहीं मिल पाती हैं और यही वजह होती है की सरकार इनके बजट में कटौती कर देती है। 

ऑडिट ऑफिसर का डॉ. विक्रम साराभाई से यह कहना की  "सर हम 62 की लड़ाई हार चुके हैं. पाकिस्तान की सेना सीमा पर खड़ी है. ऐसे में आप ही बताइए कि डिफेंस बजट कहां खर्च करना चाहिए? सेना पर या फिर रॉकेट उड़ाने पर?" इस पर साराभाई बिना कोई जवाब दिए अपने सपने की उड़ान को वास्तविक रूप देने में लगे रहते है उनका मानना है कि स्पेस में सैटेलाइट लॉन्च होने से लोगों की जिंदगी आसान हो पायेगी। उनके टेलीविजन के जरिए सही सूचनाएं मिलेंगी. मौसम का पूर्वानुमान होगा, जिससे प्राकृतिक आपदा से बचने में मदद मिलेगी. डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम उनके विजन को पूरा करने में जी जान से मदद करते हैं। 

इन्ही सब द्वंदों से निपटते हुए कैसे तीनों महान वैज्ञानिक अपने अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए अपना सर्वस्व लगा देते है और कैसे अलग अलग परिस्थितियों से निपटने के लिए तरीके निकालते है यही इस सीरीज की खासियत है। हाँ सीरीज में थोड़ा अंग्रेजी में संवाद का उपयोग हुआ है जिससे आम ठेठ हिंदी भाषी को थोड़ी दिक्कत हो सकती है लेकिन कुल मिलकर सीरीज अच्छी बन पडी है पहले सीज़न में कहानी पर पकड़ काफी अच्छी है लेकिन सीज़न 2 में थोड़ा ढीलापन नजर आता है। खैर अगर आप एतिहासिक दृष्टी से और भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों के बारे में जानना चाहते है यह एक अच्छा अवसर हो सकता है। 

धन्यवाद
शशि धर कुमार

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