Friday 9 August 2019

I am Kashmir....

मैं जम्मू और कश्मीर हूँ कुछ लोग मुझे दुनिया का स्वर्ग कहते है तो कुछ मानवता का दोजख कहते है लेकिन मेरी खूबसूरती को देखना हो तो मुझे नजदीक से देखना पड़ेगा। वैसे मेरे अन्दर तीन अलग अलग प्रक्षेत्र है और तीनो प्रक्षेत्रो में अलग अलग समुदाय बहुतायत में है जैसे लद्दाख में बोद्ध है तो कश्मीर में इस्लाम को मानने वाले बहुतायत में, तो जम्मू क्षेत्र में हिन्दुओ का बोलबाला है। पिछले ७० सालों से मुझे भारतीय गणराज्य द्वारा प्रदत्त धारा ३७० जो मुझे भारतीय गणराज्य में रहते हुए भी मुझे स्वायतता प्रदान किये हुए था उसे भारतीय संसद द्वारा मानसून सत्र २०१९ में प्रस्ताव पारित कर हटा दिया गया। जहां पूरे देश में इसे एक त्योहार की तरह देखा जा रहा है वहीं कोई कहता है कश्मीर/घाटी के लोगो को बात नहीं सुनी। कुछ कश्मीरी हिन्दू के लिए ये बहुत संवेदना से भरा हुआ एक जीता-जागता सपना पूरे होने जैसा है। पर कुछ कश्मीरी हिन्दुओ के अन्दर अब भी अंदर की टीस जैसे कहीं अटक-सी गई लगती है जैसे ऐसा लगता है कुछ है जो अब भी चुभ सा रहा है। शायद यह कि इस समय उन्हें वहां उनके अपने कश्मीर में होना चाहिए था। उन्हें उनके अपनों की राख में झुलसती वह १९८९ का मंजर याद आ रही है जो कश्मीर में उस समय चल रहे बुरे हालात को रोकने के लिए अपनी जान तक देने के लिए तैयार थे।

कुछ मुख्य पार्टी के नेताओ के घड़ियाली आंसू इस बात का सुबूत बन गए कि इतिहास को जाहिल बनाने में इनके जैसे नेताओं ने कोई कसर नहीं छोड़ी। मैं आज भी इस असमंजस में हूं कि भारत के इतिहास में हुए विभाजन और कश्मीरी हिन्दुओं के विस्थापन की जवाबदेही किसकी है? अपनी कुर्सी सेंकने वाले पत्रकारों की,या वोट बैंक की राजनीति करने वाले नेताओं की, या स्वार्थ की चादर बिछाकर सोने वाले कुछ मतलबी कश्मीरियों की, या जिन्होंने  27 साल से अन्धकार के चादर की तरह छाये आतंकवाद के मुद्दे पर कभी प्रश्न नहीं उठाया? इसीलिए आज दुख होता है कि मेरी क्या गलती जो मुझे सजा भुगतनी पड़ी।

मैंने सब कुछ देर से समझा और जाना। गुस्सा था चिढ़ थी कि अपने ही मंदिर/मस्जिद में अपने ही लोगो के खिलाफ लोगो की साजिस के तहत अपने ही लोगो की बली दी। मुझे गुस्सा आता है कि अपने कश्मीर में ही जब मुझे पत्थर मारा गया तो मेरी चीख क्यों नहीं निकली? कितना छोटा और लाचार बना दिया गया मुझे। मेरी तड़प और मेरी चीख पर हथौड़ा मारा गया, क्योंकि मैंने कश्मीर को संजोए रखने का प्रयास किया। आखिर क्यों, मेरी क्या गलती थी?

जो भी धारा ३७० को वापस लाने के लिए इतने आतुर हैं क्या वे इसका अर्थ भी समझते है या कुछ लोगो के बहकावे में आकर सिर्फ बोलना चाहते है या वे सिर्फ कश्मीर पर राज करना चाहते हैं। वे कश्मीर से इश्क़ नहीं करते, वो इश्क वो जूनून तो हमारे ही अंदर है जो सिर्फ कश्मीर में नहीं लददाख या जम्मू प्रक्षेत्र के लोगो के आँखों में झांककर देखना पड़ेगा की क्या वे भी वही चाहते है जो घाटी के 2-४ जिलो के लोग चाहते है। शायद नहीं क्योंकि धारा ३७० हटने के बाद तो लद्दाख प्रक्षेत्र में जश्न का माहौल है वही जम्मू के लोग खुश है की वे भी अब विकास की राह में सौतेलापन नहीं झेलेंगे।

मुझे किसी से नफरत नहीं है पर ऐसा लगता है मैं वह कश्मीर नहीं जो आजादी के पहले थी। क्या कोई मुझे वही कश्मीर लौटा पायेगा? क्या कोई मेरे मुरझाए चिनार पर पानी की छींटे छिड़केगा?  मैं सरकार के इस फैसले के समर्थन में हूं क्योंकि मुझे पता है मेरे बच्चो को शिक्षा का अधिकार नहीं, मुझे साफ़ सफाई रखने वालो को वो हक नहीं जो भारतीय गणराज्य के बांकी राज्यों में उन्हें उपलब्ध है, मेरे विकास की तस्वीर बनाने वालो के पास वो अधिकार  नहीं जिसके बल पर वे मुझे खुबसूरत और बांकी देशो के साथ जोड़े रखने में सहायक हो, जनता के चुने हुए रहनुमा होने के बाद भी कुछ क्षेत्रो में विकास की बयार नहीं बह पायी क्यों नहीं, बांकी राज्यों में जो कानून है वो यहाँ भी लागू होने में रोड़ा डालते है, क्यों यहाँ के बुजुर्गो पर वह नियम लागू नहीं जो बांकी राज्यों में लागू होता है, क्यों यहाँ की बेटियों के साथ बांकी राज्यों जैसा अधिकार नहीं है।

जहाँ ७० सालों से धारा ३७० के साथ जिया है अगले कुछ साल इसके बिना जीकर देखते है क्या पता जो रोज मेरे सीने पर मेरे किसी ना किसी अपने का खून बहता है वो बंद हो जाए तो मैं फिर से दुनिया का जन्नत हो जाउंगी। फिर से मेरे यहाँ लोग सैर सपाटे के लिए आएंगे लोग खुशहाल जीवन जियेंगे यही तो मैं चाहती हूँ। मैं ही कश्मीर हूँ।

Friday 2 August 2019

कोशी की विभीषिका और सरकारी तंत्र

कोशी के बारे में बचपन में पढ़ा था कि "कोशी को बिहार का शोक" कहा जाता है लेकिन शायद बचपन में इसके मायने नही पता थे इसीलिए नही की तब कोशी में बाढ़ नही आती थी बल्कि इसीलिए की वह बाढ़ तबाही का मंजर आज जो लेकर आती है तब लेकर नहीं आती थी। आज हर वर्ष कोशी अपने साथ कुछ ऐसा मंजर लेकर आती है जिसे देखकर एक संवेदनशील व्यक्ति की रूह जरूर कांप जाती है। हर बार की भांति इस बार भी कोशी अपने पानी के तेज बहाव के साथ साथ कुछ रूह कँपाने वाली मंजर भी लायी जिससे पूरा मिथिलांचल और सीमांचल प्रभावित हुआ। लेकिन इस बार मधुबनी जिला सबसे ज्यादा प्रभावित रहा जिसके कुछ चलचित्र/चित्र देखकर अंदर तक कंपन होने लगी। लेकिन लोग भी क्या करे यही उनका भविष्य है और कोशी माता का प्रकोप किसी ना किसी को तो झेलना पड़ेगा और हर बार यही सोचकर कि कोशी माता कुपित है और हम उन्हें मनाने में लगा जाते है और संयोग देखिये देर सवेर कोशी माता मान भी जाती है भले वे किसी का पूरा संसार अपने अंदर समा गई हो लेकिन जीवन इसी में खुश हो जाता है कि बांकी लोग सुरक्षित है।

बाढ़ की आपदा लाखों लोगों के घरों में तबाही  लेकर आता हैं हर साल लगभग एक से डेढ़ महीना तक लाखों लोगों का चीत्कार एवं वेदना से पूरा मिथिलांचल और सीमांचल के लोग परेशान रहते हैं। फसलें तबाह हो जाती हैं, फूस और कच्चे मकानो के साथ पक्के मकानों को भी भारी क्षति होती है जो पानी के तेज बहाव के सामने आते है वैसे घर भी या तो पूर्णतः अस्तित्वहीन हो जाते है या दरक जाते हैं । इसी क्रम में बुजुर्गों और बच्चों की कई मौतें हो जाती हैं। कुछ एक तो पानी में बहकर कहाँ से कहाँ चले जातें हैं पता भी नही चलता, कहने का मतलब यह है कि हर ओर तबाही का मंजर दिखता है। गाँव की ज्यादातर आबादी तो गरीब और कच्चे मकानों में रहते है जो प्रतिदिन मजदूरी करते है तो उनके घर चूल्हा जलता है। ऐसे में इतने लंबे समय तक रहने वाली बाढ़ से निपटने के लिए उनके पास सरकारी अनाज दुकान का ही भरोसा होता है। ऐसे बाढ़ के समय वे भी सही से काम नही कर पाती है क्योंकि ना तो सड़क दिखता है और ना जाने कौन सी सड़क टूटी हुई हो। सरकारी नाव तो बामुश्किल मिलता है और मिलता भी है तो उसपर चढ़ने के लिए पैसे चाहिए। क्योंकि बाढ़ के समय तो हर किसी को अपना पेट भरना है।

नियमानुसार बाढ़ पीड़ितों के अनुदान के लिए सरकारी तौर पर सब कुछ नियम के किताबो पर लिखा होता है। ऐसे में सरकारी तंत्र इनसे निपटने की टोली बनाकर नाटकीय ढोंग करते हुए हमेशा दिखाई दे जाएंगे। कुछ अपवाद स्वरूप भी हो सकते है जो वाकई में दिल से काम करते है और जहाँ रहेंगे गरीबों के लिए ही काम करेंगे। 

बाढ़ आता है पहले खेत खलिहान डूबता है फिर सड़क, फिर दरवाजा, फिर आंगन, फिर घर भी डूबने लगता है जैसे जैसे घर के अंदर पानी बढ़ता जाता है वैसे वैसे जमा पूँजी धीरे धीरे डूबती रहती है। फिर लोग भागते हैं एक फेहरिस्त लिए सरकारी दरवाजो पर की एक किलो चूड़ा, थोड़ा गुड़, मोमबत्ती, माचिस, खिचड़ी और नाव के लिए। लेकिन समस्याओं के इतनी बड़ी सूची में आपदा के समय दी जाने वाली वस्तुओं की भाड़ी कमी गरीबों में अफ़रातफ़री का माहौल पैदा होता है।

यही है हर बार आने वाली कोशी की विभीषिका का प्रकोप और उससे निपटते लोगो की भागदौड़ के बीच सरकारी तंत्र और उसके अन्दर फलते फूलते राजनेता से लेकर मुखिया तक की कहानी।

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