Tuesday 10 October 2023

Katihar - कटिहार

कटिहार अक्टूबर महीना म अस्तित्व म पचास साल पहले अइले छेलै, मतलब दु अक्टूबर के पचासवाँ स्थापना दिवस मनैलके। कटिहार र साहित्य, संस्कृति आरू इतिहास बहुते समृद्ध छै लेकिन आइज-काल र युवा को ई सब से कोई मतलब नै छै। ओकरा सीनी के खाली मोबाइल में यूट्यूब वीडियो आरू सोशल मीडिया से मतलब छै। जहाँ नया-नया फ़ोटो डाली क आपनो आप क बड़का कंटेंट क्रिएटर माने छै। हक़ीक़त म इ सब यहाँ वहाँ कुछु-कुछु कॉपी पेस्ट करी क पोस्ट करी दै छै। इतिहास से केकरो मतलब नै छै आरू साहित्य कहाँ जे रहले छै केकरो कोई मतलब नै छै। सरकारी तौर पर भी कुछु बात सही दिशा म कहो त नै बढ़ी रहले छै।

आवो तनी कटिहार र बारे म जानलो जे। ई जिला र नाम दिघी-कटिहार जे पुरना शहर छेलै ओकरे नामो पर राखलो गेले छेलै। मुगल शासन जब छेलै त तेजपुर सरकार ई जिला र स्थापना भेले रहै। १७७० म जब मोहम्मद अली खान यहां गर्वनर रहे तभिये ब्रिटिश ई जिला क छीनी लेलकै रहे। ओकरो बाद ब्रिटिश र समय एकरा अनुमंडल र दर्जा दे के पुर्णिया जिला म जोड़ी देलकै। दु अक्टूबर १९७३ क ई जिला पूर्णिया से अलग करी क नया जिला बना देलकै। कटिहार र त्रिमोहिनी संगम जे कुर्सेला र पास छै जहाँ गाँधी जी र अस्थि १२ फरवरी १९४८ में बहएलो गेले छेलै। ई सौभाग्य बहुत कम जगह क प्राप्त छै जहाँ गाँधी जी र अस्थि प्रवाहित भेले छेलै। यहाँ तीन नदी गंगा, कोशी आरू कलबलिया नदी र संगम छै, कलबलिया नदी जे लगभग ३२ किलोमीटर र सफर करै छै येहा संगम पर गंगा म मिली जै छै। त्रिमोहिनी संगम भारत म सबसे बड़का उत्तरायण गंगा र संगम छै। गंगा नदी यहाँ दक्षिण स उत्तर दिशा म बहै छै। और येहा वजह छै की यहाँ जब गंगा पर भोरका सुरजो र किरण पड़ै छै त एतना सुंदर देखै म लागै छै जेकरो बारे म कहलो जै छै की एतना सुंदर गंगा भोरे भोरे कही नै लागै छै। नेपाल से निकले वाला सप्तधारा र कोशी यही आवी क मिलै छै।

सिक्ख र नौवां गुरु जी श्री तेग बहादुर र यादों म लक्ष्मीपुर म गुरुद्वारा स्थापित छै। ई गुरुद्वारा म गुरुजी स संबंधित बहुत सारा धरोहर सुरक्षित छै। १६६६ म गुरुजी यही एगो गाँव छै कांतिनगर नाम स वही अइले रहै।

गंगा नदी र नजदीक मनिहारी स २.५ किलोमीटर दुरो म बल्दीबाड़ी नामो र गाँव छै। येहा जगह छै जहाँ मुर्शीदाबाद र नवाब सिराज-उद-दौला आरू पूर्णिया र गवर्नर नवाब शौकत गंज र बीच म युद्ध भेले छेलै। 

गोगीबील झील बहुत बड़का अउर खूबसूरत झील छै जहाँ देश विदेश स सालो भर पक्षी आवे छै। पूरा साल यहाँ अलग अलग प्रजाति र पक्षी ऐतै रहे छै खास करी क नवंबर स फरवरी तक रूस से पक्षी बहुत बड़का संख्या म आवे छै जेकरा म बहुतायत म राजहंस और लालसर नामो र पक्षी एतै रहे छै। कुछ सालों से सरकार आवे ई झील के खूबसूरत बनावे ल काम करी रहलै छै।

कटिहार स दक्षिण म मनिहारी नामो र अनुमंडल शहर छै जेकरो बारे म कहलो जै छै की पौराणिक कथा र अनुसार यही भगवान कृष्ण र मणी र आभूषण गिरी गेलै छेलै जेकरा खोजे ल भगवान खुद यहाँ अइले छेलै येहा वजह स यहाकरो नाम मनिहारी पडले छेलै।

कल्याणी झील झौवा स्टेशन स पांच किलोमीटर उत्तर म ई झील छै। यहाँ हर साल माघ महीना म पूर्णिमा म मेला लागे छै लोग लाखो र संख्या म नहावे ल आवे छै। ऐसे के त यहां लोग सालो भर आवे छै लेकिन माघ महीना र पूर्णिमा काफी खास मानलो जै छै। यहां कल्याणी माता र मंदिर छै और एक पुरनका शिवलिंग छै जेकरो बारे म आस पास लोगो र कहना छै कि ई शिवलिंग दिनों दिन बढै छै। 

कटिहार जिला म नदी र कमी नै छै लेकिन आय काल सभे नदी गर्मी म लगभग सुखी जै छै। लेकिन बारिश शुरू हेतै चारो तरफ पानी भरी जै छै। महानदी र की कहलो जै ई नदी कटिहार र बीचो बीच बहे छै लेकिन एकरो खासियत यहां मिले वाला मछली छै, एतना रंग बिरंगा आरू स्वादिष्ट मछली मिले छै की मत पूछो। जूट र फसल यहाँ खूब है रहे लेकिन आय काल कम भाय गेले छै। आय काल मक्का र जमाना छै इतना मकई है छै की बड़ा मुश्किलों स कोनो खेत म दोसरो फसल मिळतो। धानों भी खूब है छै। मखाना त पूछो मत अभी बारिश र समय हर जगह मखाना नजर आवी जैतो। एक जमाना रहे रंग बिरंगा सरसों खूब है रहे। कोशी र वजह से बाढ़ त हर बार झेले छै, पढ़ाई लिखाई र माहौल पहले से बहुत बढ़िया रहे लेकिन हमेशा पढ़ाई लिखाई म पिछड़ा ही रहले लेकिन जे भी बच्चा यहां स बाहर निकली गेले समझो कुछु करी क अइले। शिक्षा म पिछड़ा रहला र बाद भी शुभम कुमार आईएएस म टोपर भेले छेलै। 

ई जिला हमेशा शांत रहले कभी कोनो बड़का कांड नै भेले। हरियाली कटिहार र पहचान छै जिनने जेभो उन्हेँ हरियाली नज़र आवी जैतो। हमरो बोली एकदम अलग छै कही भी जा अलग नज़र अयतोह। बिहार र प्रेमचंद र नाम से अनूप लाल मंडल जी र जन्मभूमि कटिहार र समेली म छै, लेकिन जेतना ओकरा सम्मान मिलना चहियों नै मिलले। 

कटिहार र संस्कृति, साहित्य आरू इतिहास काफी मजबूत आरू सक्रिय रहै समय छै हमे सिनी क एकरो बारे म लिखे आरू बोले र पड़ते तभै कटिहार र बारे म लोग जानते। 

©️✍️ शशि धर कुमार

Wednesday 27 September 2023

हिंदी पखवाड़ा

हिंदी पखवाड़ा सरकारी तौर पर १५ दिन का कार्यक्रम होता है जो लगभग हर सरकारी संस्थानों में मनाया जाता है। इसमें हर संस्थान अपने-अपने यहाँ हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए साल भर के कामों का लेखा-जोखा रखता है या यूँ कहे कि वे यह कहते है कि हमने इतना काम हिंदी में किया जैसे कि साल भर में इतने लेख इतनी पत्रिकाओं में विज्ञापन या हमने संस्थान के मुख्य स्थानों पर इतने बैनर पोस्टर लगाये या कि यहाँ हिंदी में भी काम काम किया जाता है आदि-आदि। इसी बीच हिंदी दिवस भी आ जाती है तो लोग बड़ी उत्साह के साथ हिंदी दिवस मनाते नजर आते है और स्वाभाविक है भारत जैसे देश में जहाँ कहा जाता है कि उसकी भाषाई धड़कन हिंदी है वो इसीलिए भी क्योंकि हिंदी विश्व में तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है और उत्तर भारत में हिंदी बोलने वाले लोग तो बहुतायत में पाये जाते है ये अलग बात है कि सबकी हिंदी की अपनी-अपनी बोली कह ले उसमें लोग बोलते है। हिंदी दिवस मनाना कोई बड़ी बात नहीं होनी चाहिए लेकिन सवाल यह है कि भारत में ही अगर हिंदी दिवस मनाना पड़े तो सोचनीय हो जाती है। हिंदी हमारे अंग-अंग में रची बसी है फिर हम हिंदी दिवस क्यों मनाते है हमारी ५० करोड़ लोगों की भाषा जब हिंदी हो तो भी हमें हिंदी दिवस मनाने की आवश्यकता क्यों है? इस बात का उत्तर मुझे मिला “गाँधी और हिंदी” नाम के किताब में जहाँ गाँधी को उद्धरित करते हुए लेखक लिखते है कि “करोड़ों लोगो को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने एक शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी। यह क्या कम जुल्म की बात है कि अपने देश में गर मुझे इन्साफ पाना हो तो मुझे अंग्रेजी भाषा का उपयोग करना पड़े। इसमें मैं अंग्रेजों का दोष निकालूँ या अपना? हिन्दुस्तान को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जाननेवाले लोग है। प्रजा की हाय अंग्रेजों पर नहीं पड़ेगी बल्कि हम लोगों पर पड़ेगी।” यह बातें महात्मा गाँधी जी ने १९०९ में हिंदी स्वराज्य में लिखा था।

गाँधी और हिंदी की बातें निराली है वो इसीलिए कि वे खुद विदेश से बैरिस्टरी कर आये और दक्षिण अफ्रिका गए अपनी बैरिस्टरी का अभ्यास करने लेकिन जब वे भारत वापस आये तो उन्हें समझ आया कि हिंदी के बिना उनका काम नहीं चल सकता है और अगर आप उनको पढ़ते है तो पता चलता है कि वे दस भारतीय भाषाओं में अपना हस्ताक्षर कर सकते थे। गाँधी के अनुसार आप हिंदी अवश्य पढ़िए और उसका अपने जीवन में उपयोग बढ़ाइए और बाँकी भाषाएँ भी सीखिए ताकि अगर भारत के ही किसी और राज्य में आप जाए तो कम से कम वहाँ जिस भाषा का उपयोग होता हो आप उस भाषा में अपना काम चला सके। ५ फरवरी १९१६ को काशी प्रचारिणी सभा में भाषण देते हुए गांधी जी ने कहा था कि हम सब को अदालतों में हिंदी में काम करने पर तवज्जों देनी चाहिए और युवाओं से उन्होंने निवेदन किया कि वे कम से कम अपने हस्ताक्षर से शुरू करे फिर आपस में हम भारतीय चिठ्ठियों में हिंदी को बढ़ावा दे तभी हिंदी सम्मानित हो पायेगी। उनका कहना था कि तुलसीदास जी जैसे कवि ने जिस भाषा में अपनी कविता की हो वह भाषा अवश्य ही पवित्र होगी। वही ६ फरवरी १९१६ को काशी विश्वविद्यालय में भाषण देते हुए उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि इस सम्मलेन जो हिंदी भाषियों के लिए गढ़ माना जाता है वहाँ भी हमें अंग्रेजी में बोलना पड़ रहा है तो हमें शर्म आनी चाहिए कि जो भाषा हमारे दिल में दिल के अन्दर से निकलनी चाहिए उसके लिए हम कोई प्रयास नहीं कर रहे है। अंग्रेजीं में निकली बातें दिल तक नहीं जाती है उन्होंने इसका एक उदहारण देते हुए बताया कि बम्बई जैसे शहर में जो हिंदी भाषी नहीं है लेकिन वहां हिंदी में दिए गए भाषणों पर लोग ज्यादा तवज्जों देते है।  २९ दिसंबर १९१६ लखनऊ में वे कहते है मैं गुजरात से आता हूँ और मेरी हिंदी टूटी फूटी है फिर मुझे थोड़ी भी अंग्रेजी का प्रयोग पाप लगता है। सवाल यह है कि जब गाँधी जी हिंदी को लेकर इतने मुखर थे और आज़ादी के आन्दोलन में उन्होंने हमेशा प्रयास किया कि हिंदी को एक एक सशक्त भाषा के रूप में स्थान मिले और हिंदी एक विश्व भाषा के रूप में अपना स्थान बना सके लेकिन जैसा उन्होंने खुद कहा था कि मैकाले ने जो करना था उसने कर दिया और अपने लिए एक पौध बनानी थी उसने बनाई जिसका नतीजा आज भी हम भुगत रहे है।

मैंने पहले भी कहा है कि हिंदी को देवनागरी में लिखने से ज्यादा प्रचार हो सकता है लेकिन आजकल मोबाइल और लैपटॉप के आ जाने से लोग हिंदी को देवनागरी की जगह रोमन लिपि में लिखने लगे है और सबसे ज्यादा दिक्कत हिंदी भाषी क्षेत्र में रहने वाले लोगों के साथ है यही गांधी जी ने भी महसूस किया तभी उन्हें लखनऊ, बनारस, कानपुर, इंदौर, बम्बई आदि जगहों पर इसपर काफी बात करना पड़ा ताकि लोग हिंदी के प्रति अपने लगाव में बढ़ोतरी कर सके। हम मातृभाषी तो हिंदी में रहना चाहते है लेकिन बोलना हम अग्रेज़ी में चाहते है क्योंकि मैकाले के समय से अंग्रेजीं में बोलने वालों को जो अहमियत मिली कि वे एक अभिजात वर्ग से आते है और उन्हें हिंदी में बोलने में झिझक महसूस होने लगी और यही आज तक होता आ रहा है। कही भी आप हिंदी की जगह अंग्रेजी में बोल दिए तो आपको समझदार माना जाएगा और हिंदी में बोलने पर देशी या देहाती जैसे उपाधियों से नवाज़ा जाएगा। जिन सरकारी संस्थानों की बात मैंने पहले की है वहाँ भी आपको यह लिखा हुआ मिलेगा कि यहाँ पर हिंदी में भरे हुए फॉर्म या हिंदी में लिखे गए फॉर्म को भी स्वीकार किये जाते है क्या यह अपनी ही भाषा के लिए लज्जायुक्त होने वाली बात नहीं है यही तो महात्मा गाँधी ने कहा था कि हमें अपने ही अदालतों में न्याय पाने के लिए हमें अंग्रेजी में फ़रियाद करनी पड़ती है। तो सवाल यही है हिंदी ज्यादा सरल है या अंग्रेजी जिसकी वजह से कार्यालयों में हिंदी की जगह अंगरेजी ने अपना पहला स्थान पाया हुआ है। हिंदी हमारी अपनी भाषा है और हमें इसी में ही अपने ज्यादातर काम पुरे करने चाहिए। भाषा से हम अपने चरित्र को प्रतिबिंबित कर सकते है जैसे अगर आप अफ्रीका में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा अफ़्रीकांस को समझ पा रहे है बोल पा रहे है तो संभव है उनके लोगो द्वारा मनाये जाने वाली त्योहारों और उनके संस्कृतियों के बारे में भी समझ सकेंगे। कहा जाता है अगर भाषा में सच्चाई और दयालुता नहीं है तो उस भाषा को बोलने वाले लोगों में सच्चाई और दयालुता नहीं हो सकती है और हमारी हिंदी में यह कूट-कूट कर भरी हुई है। एक कहावत है “यथा भाषक तथा भाषा” – अर्थात जैसा बोलनेवाला वैसी भाषा। मैं बारम्बार यह कहता आया हूँ कि हम हिंदी भाषियों ने ही हिंदी का बेड़ा गर्क किया है क्योंकि सबसे ज्यादा हिंदी भाषियों ने ही हिंदी भाषा का अनादर किया है क्योंकि उन्हें लगता है वे हिंदी भाषी क्षेत्र में पैदा हुए है तो उन्हें हिंदी भाषा अच्छे से आती है और वे इस बात को लेकर कभी भी अपने अन्दर झाँकने का प्रयास नहीं करते है कि उनकी हिंदी में भी त्रुटियाँ है या हो सकती है। जिस राष्ट्र ने अपनी भाषा का अनादर किया है उन्होंने अपनी राष्ट्रीयता खोयी है। पुरे धरा पर भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ आज माता-पिता अपने बच्चो को माँ-बाबूजी की जगह मम्मी-डैडी बोलना सिखाते है कमरे की जगह रूम हो गया रसोईघर की जगह किचन हो गया ऐसी कई बाते कालांतर में हुई जिसकी वजह से हिंदी भाषा का क्षय हुआ धीरे धीरे ही सही यह लगातार होता चला गया पिछले कुछ सालों से मैकाले की शिक्षा पद्धति का विरोध हो रहा है लेकिन लोग उसके जड़ में झांकना नहीं चाहते है कि मैकाले की एक ही विरासत थी। वह हमें देकर चले गए और हम आज तक उनसे पीछा नहीं छुड़ा पाए वह  है अंग्रेजी भाषा के प्रति हमारा मोह। हिंदी को जीवन में अपनाए तभी हिंदी की सार्थकता साबित हो पायेगी सभी भाषाओ का सम्मान करना सीखे,  खासकर हिंदी अगर आपकी मातृभाषा है तो यह बहुत जरुरी हो जाता है। गाँधी जी भी कहते थे "अंग्रेजी हमारी जरूरत हो सकती है आवश्यकता नहीं।" लेकिन हमने उसे जरुरत बना दिया है यही वजह है संस्थानों में “यहाँ अंग्रेजी में भी फॉर्म या आवेदन स्वीकार किये जाते है” की जगह हमने “यहाँ हिंदी में भी फॉर्म या आवेदन स्वीकार किये जाते है” लिखा हुआ मिलने लगा। यह साबित करता है कि हम अपनी मातृभाषा के प्रति कितना लज्जित महसूस करते है।

अंग्रेजो को गालियाँ देने वाले उस समय भी अंग्रेज़ियत के शिकार थे और आज भी है उन्हें यह नहीं समझ आता है कि अंग्रेजी मात्र एक भाषा है उसे सीखने में आप जितना मेहनत करते है उससे कही कम समय में कई और भाषाएँ सीख सकते है। यहाँ पर लोगों को लगता है कि अगर वे अंग्रेज़ों या अमरीकियों की तरह अंग्रेजी बोलने में माहिर हो जाते है लगने लगता है कि वे बड़े बुद्धिजीवी हो गए ऐसा नहीं है। अगर आप अंग्रेज़ी जितना धाराप्रवाह बोल पाते है उसी धाराप्रवाह से अगर कोई स्पेनिश या मंदारिन या फ्रेंच या रूसी भाषा बोल सकता है तो क्या वह भी उतना ही बड़ा विद्वान दिखने का शौक पाल सकता है शायद नहीं। डॉ सुरेश पंत जी की किताब “शब्दों के साथ-साथ” जिसमें शब्दों के प्रयोग और उसकी व्याख्या को विस्तृत तरीके से पेश किया है। किताब में डॉ पंत लिखते है "हिंदी बहुत कठिनताओं के साथ अपना प्रवाह निरंतर और बहुमुखी रखा है और जीवन के विविध क्षेत्रों में सामाजिक आर्थिक विकास के साथ-साथ हिंदी का प्रयोग बढ़ रहा है। प्रचार प्रसार के इस दौर में हिंदी का स्वरुप में क्षेत्रीय प्रभाव अधिक पड़ रहा है। अब हिंदी में पूर्वी हिंदी या पश्चिमी हिंदी का ही अंतर नहीं रहा; हैदराबादी हिंदी, मुम्बइया हिंदी, कोलकाता वाली हिंदी जैसी क्षेत्रीय पहचाने स्पष्ट दिखाई पड़ता है जो हिंदी की भेद नहीं, हिंदी की विशेषताएं है।" यह साबित करता है हिंदी ने अपने आपको कभी बढ़ने से रोका उसे जहाँ जिसने प्यार दिया उसी के हो लिए यही बात डॉ पंत की इस बातों से महसूस किया जा सकता है। आज जो हिंदी लिखी या बोली जाती है। वह हर क्षेत्र में स्थानीय तौर पर बोली जानी वाली बोलियों का सम्मिश्रण है आप बिहार के सीमांचल में जायेंगे तो आपको हिंदी में ठेठी जो अंगिका का ही अप्रभंश बोला जाता है उसका मिश्रण मिलेगा अगर आप भागलपुर परिक्षेत्र में होंगे तो वहाँ अलग है अगर आप भोजपुर में है तो वहाँ अलग है अगर आप मिथिला में है तो वहाँ अलग है अगर आप नेपाल जाएँ तो वहाँ आपको अलग मिलेगी। उसी प्रकार मध्य प्रदेश में अलग अलग परिक्षेत्र के हिसाब से आपको सम्मिश्रित हिंदी ही मिलेगी। अगर आप उत्तर प्रदेश की बात करे तो आपको उसमे ब्रज भाखा, बुन्देली, चंदेली आदि का सम्मिश्रण मिलेगा। अगर आप हरियाणा जाएँ तो वहां की हिंदी अलग है अगर आप राजस्थान जाएँ तो वहां की हिंदी अलग है तो सवाल है हिंदी है क्या? हिंदी बोलने में और लिखने में अलग अलग हो जाती है क्योंकि बोलने में बोली का सम्मिश्रण होता है लेकिन लिखने में तो व्याकरण के प्रयोग के कारण एक ही रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि दिल्ली, राजस्थान, बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र या उत्तर पूर्व के राज्यों की हिन्दी भी गलत कही जा सकती है। जैसा कि कहा जाता है कि "गरीब के कान का सोना भी पीतल" कह दिया जाता है। बिहार के लोग जब हिंदी बोलते हैं तो वो दरअसल अपनी क्षेत्रीय (भोजपुरी, मगही, मैथिली, अंगिका, ठेठी आदि) के शब्दों को हिन्दी में मिश्रण के साथ बोलते हैं। डॉ पन्त के इन बातों को समझने के लिए उनकी इस किताब के साथ उनके आज तक के सहयोगी चैनल पर उनका इंटरव्यू "राजनीति की भाषा या भाषा की राजनीति!" नाम से अवश्य सुनने लायक है। ऐसी ही तीन अंक किताबों की सीरीज है “शब्दों का सफ़र” जिसे अजित वडनेरकर जी ने लिखा है शब्दों का संयोजन और उसकी व्याख्या से हिंदी के बारे में या उसके शब्दों के इस्तेमाल पर काफी बारीक नजर से व्याख्या किया है। जो हिंदी भाषा के विद्यार्थी या अध्येताओं के लिए काफी उपयोगी है।

२३ सितम्बर को राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की जयंती हो और आप हिंदी पर बात कर रहे हो और उनका उल्लेख ना हो मुश्किल लगता है तो मैं यहाँ २० जून १९६२ दिल्ली में राज्यसभा में राष्ट्रकवि दिनकर जी ने जो बातें कही उसके बारे में उल्लेख करना चाहूँगा। उन्होंने कहा था – "देश में जब भी हिंदी को लेकर कोई बात होती है, तो देश के नेतागण ही नहीं बल्कि कथित बुद्धिजीवी भी हिंदी वालों को अपशब्द कहे बिना आगे नहीं बढ़ते। पता नहीं इस परिपाटी का आरम्भ किसने किया है, लेकिन मेरा ख्याल है कि इस परिपाटी को प्रेरणा प्रधानमंत्री से मिली है। पता नहीं, तेरह भाषाओं की क्या किस्मत है कि प्रधानमंत्री ने उनके बारे में कभी कुछ नहीं कहा, किन्तु हिंदी के बारे में उन्होंने आज तक कोई अच्छी बात नहीं कही। मैं और मेरा देश पूछना चाहते हैं कि क्या आपने हिंदी को राष्ट्रभाषा इसलिए बनाया था ताकि सोलह करोड़ हिंदी भाषियों को रोज अपशब्द सुनाएं? क्या आपको पता भी है कि इसका दुष्परिणाम कितना भयावह होगा?" यह सुनकर पूरी सभा सन्न रह गई। चुप्पी तोड़ते हुए दिनकर जी ने फिर कहा- 'मैं इस सभा और खासकर प्रधानमंत्री नेहरू से कहना चाहता हूं कि हिंदी की निंदा करना बंद किया जाए। हिंदी की निंदा से इस देश की आत्मा को गहरी चोट पहुँचती है।' यह वक्तव्य आप राज्यसभा की वेबसाइट पर भी पढ़ सकते है। उस दिन और भी कई बातें उन्होंने हिंदी को लेकर कही। हिंदी के लिए लिए प्यार सबके दिलों में हमेशा से रही है लेकिन कई बार यह ज्यादा दुखदायी दिखता है कि हिंदी भाषियों ने ही हिंदी का बेड़ा गर्क करने का भार उठाया हुआ है।

आखिर में मैं हिंदी के बारे में कुछ महत्वपूर्ण व्यक्तियों को उनका हिंदी के प्रति प्यार को उन्हीं के शब्दों में:
“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल,
बिनु निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।
अँग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन,
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।”

~भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

“पुरस्कारों के नाम हिन्दी में हैं
हथियारों के अंग्रेज़ी में
युद्ध की भाषा अंग्रेज़ी है
विजय की हिन्दी।”

~रघुवीर सहाय

“लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है।”

~ मुनव्वर राना
धन्यवाद  
©️शशि धर कुमार 

Friday 15 September 2023

हिंदी दिवस

आजकल (१४ - २८ सितंबर) सरकारी तौर पर हर सरकारी संस्थान में हिंदी विभाग हिंदी पखवाड़ा मनाता है। इसी क्रम में १४ सितंबर हिंदी दिवस के अवसर पर एक सरकारी कार्यक्रम में पश्चिम दिल्ली जाना हुआ और इस कार्यक्रम का संचालन करने वाली संस्था जिनमें ज्यादातर हिंदी भाषी लोग है और हिंदी भाषी क्षेत्र से आते है। कार्यक्रम में शामिल होकर अच्छा प्रतीत हुआ और लगा कि कुछ लोग है जो दिल से हिंदी दिवस या हिंदी के प्रति समर्पित है और हिंदी को आगे बढ़ते देखना चाहते है। मैं भी देखना चाहता हूँ, सिर्फ हिंदी को ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं को भी आगे बढ़ते और फलते-फूलते देखना चाहता हूँ। मैं पिछले कुछ सालों से इसी कोशिश में लगा रहता हूँ की चाहे कोई भी भाषा या बोली क्यों ना हो सभी को फैलने-फूलने का अधिकार है। यही वजह है कि मैंने खुद कैथी में लिखना शुरू किया और अंगिका में भी जो मेरी बचपन की बोली है और पुरे अंग क्षेत्र में बोली जाती है, उसमे भी कुछ कुछ लिखता रहता हूँ। कल जब कार्यक्रम स्थल पर जा रहा था तो एक बंधू मिले गाज़ीपुर के मुझसे पूछा की आप कहाँ से हो तो आदतन मैंने कटिहार, बिहार बोला तो उसने कहा की कटिहार में जो बोली, बोली जाती है उन्हें बड़ी अच्छी लगती है मैंने पूछा ऐसा क्यों तो उन्होंने कहा हमारे आस पास में कई लोग कटिहार के रहते है और मैं कई सालों से सुनता आ रहा हूँ, और इसमें काफी मुलायमपन महसूस होता है, जबकि वे अपनी भोजपुरी जो गाज़ीपुर और उसके आस पास बोली जाती है उनके अनुसार खड़ी बोली जाती है जो उन्हें सही नहीं लगता है उनका कहना था की उनके बरेली की भोजपुरी अच्छी लगती है। तो समझ आया की दुनिया कितनी छोटी है एक व्यक्ति गाज़ीपुर का रहता है गौतम बुद्ध नगर में और उसे कटिहार की बोली पसंद है तो हिंदी को बचाने की कवायद तभी सफल होगी जब हम मिटटी से जुडी कई बोलियों को बचा कर रख पाएंगे। क्योंकि हिंदी इतनी समृद्ध ऐसे ही नहीं हो गयी है जिसके अंदर ८ लाख से ज्यादा शब्द हो वो भाषा तो कमजोर हो नहीं सकती उसको बचाने की कवायद में आमूल चल परिवर्तन की आवश्यकता है। 


मुंशी प्रेमचंद के शब्दों में "लिखते तो वह लोग हैं, जिनके अंदर कुछ दर्द है, अनुराग है, लगन है, विचार है। जिन्होंने धन और भोग विलास को जीवन का लक्ष्य बना लिया, वो क्या लिखेंगे?" शायद वही दर्द है मेरे अन्दर मेरे हिंदी भाषा के प्रति और मेरी अपनी बोली अंगिका के प्रति भी है, जो कभी कभी किसी लेख या कविता के माध्यम से निकल जाती है । कल कार्यक्रम में सबने लगभग यही बात कही की आप जहाँ भी हो जैसे भी अपना योगदान अवश्य देने की कोशिश करिए चाहे जितना समय मिलता हो उसी में और एक भाषाविद जो हिंदी में काफी अच्छा लिखते है उनसे भी यही सुनने को मिला हिंदी कभी हिंगलिश से समृद्ध नहीं होगी और ना ही अंग्रेजी को अपनाने से, अंग्रेजी की अपनी अहमियत है लेकिन अपनी स्वभाषा जिसे हिंदी के रूप में हम गलती से राष्ट्रभाषा कहते है वह राजभाषा है। हम हिंदी भाषियों की यही दिक्कत है की हमें लगता है की हम हिंदी भाषी है तो हमें हिंदी आती ही है और यही सबसे बड़ी भूल है। आजकल तो हिंदी को रोमन लिपि में लिखा जाता है और वे भी संभ्रांत कहलाने लगे है। क्योंकि वे रोमन में हिंदी लिखते है जबकि किसी भी स्मार्टफोन या लैपटॉप या कंप्यूटर में आसानी से हिंदी या कोई भी अन्य भारतीय भाषा लिखी जा सकती है। समस्या हमारे अपने अन्दर घर कर गयी है जो काफी जटिल है, जटिल इसीलिए है क्योंकि हम अपने बच्चों को हिंदी में शिक्षा देने के बजाय उसे अंग्रेजी में दिलाने लगे है तथा उनका लगाव भी अपनी बोली के प्रति नहीं जगा पाते है तो हिंदी तो बहुत दूर की बात है। और जो हिंदी के पैरोकार है वे भी खुद अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम विद्यालय में पढ़ाने लगे है सवाल है की वे कब अपने बच्चो के अंदर हिंदी या किसी अन्य भारतीय भाषा के प्रति लगाव पैदा करेंगे। 


आपकी अपनी भाषा या बोली क्षेत्रीय है लेकिन हम उसमें बोलने से हिचकिचाते है जैसा मैंने ऊपर लिखा की एक गाजीपुर का व्यक्ति जब मुझसे मिला तो मैंने उसे बताया की अंगिका जो हमारी बोली है वह आज से नहीं सदियों से अंग की मिटटी में पली बढ़ी लेकिन हमारे अपने क्षेत्र से निकलते ही हमारी बोली समाप्त होती चली गयी और हमारी अगली पीढी को तो उसके बारे में जानकारी ही नहीं है। तो हम कैसे कहेंगे की हमारी अगली पीढी हमारे साहित्य या भाषा या बोली को बचाने में हमारी सहायक होगी। हमें अपनी बोली के प्रति जो लज्जा आती है पहले वह मिटाना ही सबसे पहली सीढ़ी होगी, किसी भी बोली और भाषा के प्रति उसमे सहायक बनने का वरना बस ऐसे ही हिंदी दिवस या ऐसे किसी मौके पर किसी की कोई भी दो लाइन प्रतिलिपि कर अपना नाम डाल इतिश्री कर लेंगे इससे किसी भी भाषा और बोली को हम समृद्ध नहीं करेंगे वरन उसे क्षय के रास्ते पर लेकर जायेंगे। 


कुछ लोग कहते है मेरी कविताओं में अशुद्धियाँ होती है जिसे मैं स्वीकारता हूँ और उसका तत्काल निष्पादन करने की कोशिश करता हूँ जबतक अशुद्धियाँ नहीं होंगी तो मैं या कोई भी सीखेंगे कैसे? क्या जो हिंदी में या अंग्रेजी में या संस्कृत या प्राकृत में या कैथी में उच्च शिक्षित है वे गलती नहीं करते है अवश्य करते होंगे और करते भी है और ऐसा मैंने बड़े-बड़े विद्वानों को मंचों से स्वीकारते सूना है गलती होने स्वाभाविक है लेकिन क्या आप उस गलती से सीख पाते है यह बड़ी बात होती है। बदलाव मनुष्य के प्रकृति का नियम है इसीलिए हम मनुष्य है और हमें इसके साथ जीने आना चाहिए। क्या वे इस बात को स्वीकारते है की उनसे भी कई त्रुटियाँ होती है शायद नहीं क्योंकि उनका उच्च शिक्षित होना उन्हें ऐसा करने से रोकता है। हिंदी या किसी भी स्थानीय बोली की समृद्धि हम जैसे नौसीखिए से ही होनी है किसी प्रकांड शिक्षित व्यक्ति से भाषा या साहित्य में समृद्धि संभव है उसे जन-जन तक ले जाना मुश्किल है क्योंकि उनकी बातें या उनकी कवितायें समझने के लिए भी उनके इस्तेमाल किये शब्दों का ज्ञान होना माँगता है। हम जैसे नौसीखिए लोगों की कविताये बिना पैसे खर्च किये लोग पढ़ते है आपकी कविताएं और लेख पढ़ने और सुनने के लिए पैसे खर्च करने पड़ते है जो सामान्य जन के बस की बात नहीं है। मुझे पता है जैसे लिखता हूँ सही-गलत लोग पकड़ते है की मैं कहना क्या चाहता हूँ मेरी बातों को समझने के लिए शब्दकोष की जरुरत नहीं पड़ती है। आखिर में मैं डॉ बिरेन्द्र कुमार 'चन्द्रसखी' जी को उद्धृत करना चाहूँगा।  उनके शब्दों में "इस देश की मिटटी से अवश्य जुड़िये हिंदी अपने आप आ जायेगी। चन्दन की बिंदी लगाइए या ना लगाइए लेकिन इस देश की मिटटी की बिंदी अवश्य लगाइए"। 

धन्यवाद

©️✍️शशि धर कुमार

Wednesday 23 August 2023

सांगीत के विविध आयाम

 #हिंदी

डॉ बीरेंद्र कुमार 'चन्द्रसखी' के किताब "सांगीत के विविध आयाम" के षष्टम अध्याय में लेखक द्वारा "नारी व पुरुष सामाजिक परिवेश में" स्त्री पुरुष के स्थिति पर काफी पैनी नज़र से इस विषय पर अपनी बात रखी है और जितना आप लेखक को पढ़ते है उतना उनके मुरीद होते चले जाते है लेकिन रुकिए यह तभी तक संभव है जबतक आप विषय में किये गए चर्चा से सम्बंधित विषयों को पढ़ा होगा तभी आप इन बातों की गंभीरता को समझ पाएंगे। लेखक का इशारा समय के साथ स्त्री-पुरुष समानता से समाज के सारे दायित्वों का भार नारी पर डाल दिया जाता है और यही पर समाज में नारी के ऊपर सामाजिक भार अत्यधिक बढ़ जाता है जिसकी वजह से उनकी सामाजिक स्थिति पुरुषो की तुलना में काफी कमतर होने लग जाती है और लेखक के अनुसार समाज का पतन यही से शुरू होता है जब नारी अपने लिए या अपने बच्चों के भविष्य के लिए जिम्मेदारी पूर्वक या खुलकर सोचने में असमर्थ कर दिए जाते है। नारी की यही असमर्थता समाज के ह्राष का कारण माना गया क्योंकि एक समय था जब समाज में महिलाओं में कई विदुषी स्त्रियाँ हुई जिन्होंने समाज में अपनी पहचान छोड़ी थी इनमे से कइयों को बहुत सारे लोगों ने पढ़ा भी होगा जैसे घोषा, अपाला, मैत्रेयी जैसी स्त्रियों ने समाज पर अमिट छाप छोड़ने में कामयाब रही थी। मध्यकाल आते आते स्त्रियाँ किसी भी वर्ण की हो उन्हें शिक्षा से वंचित होना पड़ा जिसका असर पारिवारिक स्थिति के साथ साथ सामाजिक स्थिति पर गंभीर असर पड़ा। यही वजह है की मध्यकाल आते आते समाज में स्त्रियों के लिए सती प्रथा, बाल विवाह, बेमेल विवाह आदि का प्रचलन तेजी से बढ़ा जिससे समाज में नैतिकता का पतन काफी तेज़ी से हुआ। एक समय आया है जब पुत्रों की इच्छा में कन्याओं की ह्त्या करने से भी समाज हिचकने से बाज़ नहीं आया। 

इन्ही मुद्दों पर लेखक सांगीत के बारे में आगे लिखते है कि सांगीत के मंचों से बहुत सारे लेखकों ने इन मुद्दों को समाज के लिए कोढ़ की संज्ञा दी और आवाज उठाने का काम किया और सांगीत के मंचों के माध्यम से समाज में जागरूकता फैलाने का काम किया। इसी क्रम में लेखक ने "सांगीत हरिश्चंद्र" में राजा हरिश्चंद्र को काशी में अस्पृश्य राजा डोम के घर पर नौकर दिखाया तथा इसी क्रम में रानी तारावती को ब्राह्मण के घर पर नौकरानी का कार्य करना दिखाना साबित करता है की उस समय के सांगीत लेखक समाज में आगे की सोच रखने वाले थे और समाज को उसका विकृत रूप समय समय पर दिखाते रहे थे। इसकी झलक आप श्रवण चरित्र में उद्यान ऋषी और चन्द्रकला की बातचीत में पुत्रैच्छा की विकृत इच्छा के बारे में देख सकते है

चन्द्रकला: 
"बुढ़ापा आ गया प्यारे पुत्र लेकिन न एक दीना। 
नैन अंधे भये हा बेसहारे किस तरह जीना।।"

उद्यान ऋषी:
"महा दुःख हुआ नैनों का, सहूँ कैसे मैं इस गम को।
अगर होता कोई बालक, तौ देता दिलासा दम को।।
निह्लाता धुलाता पीया जिमाता प्रीती से तुमको।
उठाता बिठाता ऊँगली पकर के डुलाता हमको।।"  

इसी प्रकार सांगीत "पूरमल प्रथम भाग" में राजा शंखपति के द्वारा बहुपत्नी प्रथा के सम्बन्ध में साक्ष्य देना भी उस समय समाज की सोच को दर्शाता है। 
"धर्म रजपूत क्षत्रिन के अनेकों ब्याह करते है।
जाबजा जा स्वयम्बर में बहुत सी नारी वरते है।।"

आपको समाज में फैली ऐसी कई बुराइयों के बारे में सांगीत ने अपने आपको समाज में स्थापित करने के लिए बहुत ही मुखरता के साथ अपनी बात पहुंचाई लेकिन आज सांगीत की स्थिति जिस प्रकार बदतर स्थिति में पहुँचा दी गयी की ऐसा लगता है वह अपना दम तोड़ के मानेगी। हमें अपने समाज में फ़ैली बुराइयों के बारे में मुखरता के साथ बात करनी चाहिए और समाज को आगे ले जाने में सहायक बनना चाहिए।  ऐसा नहीं है की आज समाज से सारी बुराईयाँ खत्म हो चुकी है आज भी समाज में कई बुराईयाँ मौजूद है लेकिन हम सुविधानुसार किसी का बुराई करते है तो किसी पर चुप्पी साध लेते है। हमें अपनी संस्कृति पर गर्व होना चाहिए और उसको बचाने के प्रयास किये जाने चाहिए। 
धन्यवाद 
शशि धर कुमार

#𑂍𑂶𑂟𑂲
𑂙ॉ 𑂥𑂲𑂩𑂵𑂁𑂠𑂹𑂩 𑂍𑂳𑂧𑂰𑂩 '𑂒𑂢𑂹𑂠𑂹𑂩𑂮𑂎𑂲' 𑂍𑂵 𑂍𑂱𑂞𑂰𑂥 "𑂮𑂰𑂁𑂏𑂲𑂞 𑂍𑂵 𑂫𑂱𑂫𑂱𑂡 𑂄𑂨𑂰𑂧" 𑂍𑂵 𑂭𑂭𑂹𑂗𑂧 𑂃𑂡𑂹𑂨𑂰𑂨 𑂧𑂵𑂁 𑂪𑂵𑂎𑂍 𑂠𑂹𑂫𑂰𑂩𑂰 "𑂢𑂰𑂩𑂲 𑂫 𑂣𑂳𑂩𑂳𑂭 𑂮𑂰𑂧𑂰𑂔𑂱𑂍 𑂣𑂩𑂱𑂫𑂵𑂬 𑂧𑂵𑂁" 𑂮𑂹𑂞𑂹𑂩𑂲 𑂣𑂳𑂩𑂳𑂭 𑂍𑂵 𑂮𑂹𑂟𑂱𑂞𑂱 𑂣𑂩 𑂍𑂰फ़𑂲 𑂣𑂶𑂢𑂲 𑂢ज़𑂩 𑂮𑂵 𑂅𑂮 𑂫𑂱𑂭𑂨 𑂣𑂩 𑂃𑂣𑂢𑂲 𑂥𑂰𑂞 𑂩𑂎𑂲 𑂯𑂶 𑂌𑂩 𑂔𑂱𑂞𑂢𑂰 𑂄𑂣 𑂪𑂵𑂎𑂍 𑂍𑂷 𑂣ढ़𑂞𑂵 𑂯𑂶 𑂇𑂞𑂢𑂰 𑂇𑂢𑂍𑂵 𑂧𑂳𑂩𑂲𑂠 𑂯𑂷𑂞𑂵 𑂒𑂪𑂵 𑂔𑂰𑂞𑂵 𑂯𑂶 𑂪𑂵𑂍𑂱𑂢 𑂩𑂳𑂍𑂱𑂉 𑂨𑂯 𑂞𑂦𑂲 𑂮𑂁𑂦𑂫 𑂯𑂶 𑂔𑂥𑂞𑂍 𑂄𑂣 𑂫𑂱𑂭𑂨 𑂧𑂵𑂁 𑂍𑂱𑂨𑂵 𑂏𑂉 𑂒𑂩𑂹𑂒𑂰 𑂮𑂵 𑂮𑂁𑂥𑂁𑂡𑂱𑂞 𑂫𑂱𑂭𑂨𑂷𑂁 𑂍𑂷 𑂣ढ़𑂰 𑂯𑂷𑂏𑂰 𑂞𑂦𑂲 𑂄𑂣 𑂅𑂢 𑂥𑂰𑂞𑂷𑂁 𑂍𑂲 𑂏𑂁𑂦𑂲𑂩𑂞𑂰 𑂍𑂷 𑂮𑂧𑂕 𑂣𑂰𑂉𑂁𑂏𑂵। 𑂪𑂵𑂎𑂍 𑂍𑂰 𑂅𑂬𑂰𑂩𑂰 𑂮𑂧𑂨 𑂍𑂵 𑂮𑂰𑂟 𑂮𑂹𑂞𑂹𑂩𑂲-𑂣𑂳𑂩𑂳𑂭 𑂮𑂧𑂰𑂢𑂞𑂰 𑂮𑂵 𑂮𑂧𑂰𑂔 𑂍𑂵 𑂮𑂰𑂩𑂵 𑂠𑂰𑂨𑂱𑂞𑂹𑂫𑂷𑂁 𑂍𑂰 𑂦𑂰𑂩 𑂢𑂰𑂩𑂲 𑂣𑂩 𑂙𑂰𑂪 𑂠𑂱𑂨𑂰 𑂔𑂰𑂞𑂰 𑂯𑂶 𑂌𑂩 𑂨𑂯𑂲 𑂮𑂧𑂰𑂔 𑂧𑂵𑂁 𑂢𑂰𑂩𑂲 𑂍𑂵 𑂈𑂣𑂩 𑂮𑂰𑂧𑂰𑂔𑂱𑂍 𑂦𑂰𑂩 𑂃𑂞𑂹𑂨𑂡𑂱𑂍 𑂥ढ़ 𑂔𑂰𑂞𑂰 𑂯𑂶 𑂔𑂱𑂮𑂍𑂲 𑂫𑂔𑂯 𑂮𑂵 𑂇𑂢𑂍𑂲 𑂮𑂰𑂧𑂰𑂔𑂱𑂍 𑂮𑂹𑂟𑂱𑂞𑂱 𑂣𑂳𑂩𑂳𑂭𑂷𑂁 𑂍𑂲 𑂞𑂳𑂪𑂢𑂰 𑂧𑂵𑂁 𑂍𑂰𑂤𑂲 𑂍𑂧𑂞𑂩 𑂯𑂷𑂢𑂵 𑂪𑂏 𑂔𑂰𑂞𑂲 𑂯𑂶 𑂌𑂩 𑂪𑂵𑂎𑂍 𑂍𑂵 𑂃𑂢𑂳𑂮𑂰𑂩 𑂮𑂧𑂰𑂔 𑂍𑂰 𑂣𑂞𑂢 𑂨𑂯𑂲𑂁 𑂮𑂵 𑂬𑂳𑂩𑂴 𑂯𑂷𑂞𑂰 𑂯𑂶 𑂔𑂥 𑂢𑂰𑂩𑂲 𑂃𑂣𑂢𑂵 𑂪𑂱𑂉 𑂦𑂫𑂱𑂭𑂹𑂨 𑂨𑂰 𑂃𑂣𑂢𑂵 𑂥𑂒𑂹𑂒𑂷𑂁 𑂍𑂵 𑂦𑂫𑂱𑂭𑂹𑂨 𑂍𑂵 𑂪𑂱𑂉 𑂔𑂱𑂧𑂹𑂧𑂵𑂠𑂰𑂩𑂲 𑂣𑂴𑂩𑂹𑂫𑂍 𑂨𑂰 𑂎𑂳𑂪𑂍𑂩 𑂮𑂷𑂒𑂢𑂵 𑂧𑂵𑂁 𑂃𑂮𑂧𑂩𑂹𑂟 𑂍𑂩 𑂠𑂱𑂉 𑂔𑂰𑂞𑂵 𑂯𑂶। 𑂢𑂰𑂩𑂲 𑂍𑂲 𑂨𑂯𑂲 𑂃𑂮𑂧𑂩𑂹𑂟𑂞𑂰 𑂮𑂧𑂰𑂔 𑂍𑂵 𑂯𑂹𑂩𑂰𑂭 𑂍𑂰 𑂍𑂰𑂩𑂝 𑂧𑂰𑂢𑂰 𑂏𑂨𑂰 𑂍𑂹𑂨𑂷𑂁𑂍𑂱 𑂉𑂍 𑂮𑂧𑂨 𑂟𑂰 𑂔𑂥 𑂮𑂧𑂰𑂔 𑂧𑂵𑂁 𑂧𑂯𑂱𑂪𑂰𑂋𑂁 𑂧𑂵𑂁 𑂍𑂆 𑂫𑂱𑂠𑂳𑂭𑂲 𑂮𑂹𑂞𑂹𑂩𑂱𑂨𑂰𑂀 𑂯𑂳𑂆 𑂔𑂱𑂢𑂹𑂯𑂷𑂁𑂢𑂵 𑂮𑂧𑂰𑂔 𑂧𑂵𑂁 𑂃𑂣𑂢𑂲 𑂣𑂯𑂒𑂰𑂢 𑂓𑂷ड़𑂲 𑂟𑂲 𑂅𑂢𑂧𑂵𑂁 𑂮𑂵 𑂍𑂅𑂨𑂷𑂁 𑂍𑂷 𑂥𑂯𑂳𑂞 𑂮𑂰𑂩𑂵 𑂪𑂷𑂏𑂷𑂁 𑂢𑂵 𑂣ढ़𑂰 𑂦𑂲 𑂯𑂷𑂏𑂰 𑂔𑂶𑂮𑂵 𑂐𑂷𑂭𑂰, 𑂃𑂣𑂰𑂪𑂰, 𑂧𑂶𑂞𑂹𑂩𑂵𑂨𑂲 𑂔𑂶𑂮𑂲 𑂮𑂹𑂞𑂹𑂩𑂱𑂨𑂷𑂁 𑂢𑂵 𑂮𑂧𑂰𑂔 𑂣𑂩 𑂃𑂧𑂱𑂗 𑂓𑂰𑂣 𑂓𑂷ड़𑂢𑂵 𑂧𑂵𑂁 𑂍𑂰𑂧𑂨𑂰𑂥 𑂩𑂯𑂲 𑂟𑂲। 𑂧𑂡𑂹𑂨𑂍𑂰𑂪 𑂄𑂞𑂵 𑂄𑂞𑂵 𑂮𑂧𑂰𑂔 𑂧𑂵𑂁 𑂮𑂹𑂞𑂹𑂩𑂱𑂨𑂷𑂁 𑂍𑂵 𑂪𑂱𑂉 𑂮𑂞𑂲 𑂣𑂹𑂩𑂟𑂰, 𑂥𑂰𑂪 𑂫𑂱𑂫𑂰𑂯, 𑂥𑂵𑂧𑂵𑂪 𑂫𑂱𑂫𑂰𑂯 𑂄𑂠𑂱 𑂍𑂰 𑂣𑂹𑂩𑂒𑂪𑂢 𑂞𑂵ज़𑂲 𑂮𑂵 𑂥ढ़𑂰 𑂔𑂱𑂮𑂮𑂵 𑂮𑂧𑂰𑂔 𑂧𑂵𑂁 𑂢𑂶𑂞𑂱𑂍𑂞𑂰 𑂍𑂰 𑂣𑂞𑂢 𑂍𑂰फ़𑂲 𑂞𑂵ज़𑂲 𑂮𑂵 𑂯𑂳𑂄। 𑂉𑂍 𑂮𑂧𑂨 𑂄𑂨𑂰 𑂔𑂥 𑂣𑂳𑂞𑂹𑂩𑂷𑂁 𑂍𑂲 𑂅𑂒𑂹𑂓𑂰 𑂧𑂵𑂁 𑂍𑂢𑂹𑂨𑂰𑂋𑂁 𑂍𑂲 𑂯𑂞𑂹𑂨𑂰 𑂍𑂩𑂢𑂵 𑂮𑂵 𑂦𑂲 𑂮𑂧𑂰𑂔 𑂯𑂱𑂒𑂍𑂢𑂵 𑂮𑂵 𑂥𑂰ज़ 𑂢𑂯𑂲 𑂄𑂨𑂰।

𑂅𑂢𑂹𑂯𑂲𑂁 𑂧𑂳𑂠𑂹𑂠𑂷𑂁 𑂣𑂩 𑂪𑂵𑂎𑂍 𑂮𑂰𑂁𑂏𑂲𑂞 𑂍𑂵 𑂥𑂰𑂩𑂵 𑂧𑂵𑂁 𑂄𑂏𑂵 𑂪𑂱𑂎𑂞𑂵 𑂯𑂱𑂨𑂰 𑂍𑂲 𑂮𑂰𑂁𑂏𑂲𑂞 𑂍𑂵 𑂧𑂁𑂒𑂷𑂁 𑂮𑂵 𑂥𑂯𑂳𑂞 𑂮𑂰𑂩𑂵 𑂪𑂵𑂎𑂍𑂷𑂁 𑂢𑂵 𑂅𑂢 𑂧𑂳𑂠𑂹𑂠𑂷𑂁 𑂍𑂷 𑂮𑂧𑂰𑂔 𑂍𑂵 𑂪𑂱𑂉 𑂍𑂷ढ़ 𑂍𑂲 𑂮𑂁𑂔𑂹𑂖𑂰 𑂠𑂲 𑂌𑂩 𑂄𑂫𑂰ज़ 𑂇𑂘𑂰𑂢𑂵 𑂍𑂰 𑂍𑂰𑂧 𑂍𑂱𑂨𑂰 𑂌𑂩 𑂮𑂰𑂁𑂏𑂲𑂞 𑂍𑂵 𑂧𑂁𑂒𑂷𑂁 𑂍𑂵 𑂧𑂰𑂡𑂹𑂨𑂧 𑂮𑂵 𑂮𑂧𑂰𑂔 𑂧𑂵𑂁 𑂔𑂰𑂏𑂩𑂴𑂍𑂞𑂰 𑂤𑂶𑂪𑂰𑂢𑂵 𑂍𑂰 𑂍𑂰𑂧 𑂍𑂱𑂨𑂰। 𑂅𑂮𑂲 𑂍𑂹𑂩𑂧 𑂧𑂵𑂁 𑂪𑂵𑂎𑂍 𑂢𑂵 "𑂮𑂰𑂁𑂏𑂲𑂞 𑂯𑂩𑂱𑂬𑂹𑂒𑂁𑂠𑂹𑂩" 𑂧𑂵𑂁 𑂩𑂰𑂔𑂰 𑂯𑂩𑂱𑂬𑂹𑂒𑂁𑂠𑂹𑂩 𑂍𑂷 𑂍𑂰𑂬𑂲 𑂧𑂵𑂁 𑂃𑂮𑂹𑂣ृ𑂬𑂹𑂨 𑂩𑂰𑂔𑂰 𑂙𑂷𑂧 𑂍𑂵 𑂐𑂩 𑂣𑂩 𑂢𑂸𑂍𑂩 𑂠𑂱𑂎𑂰𑂨𑂰 𑂞𑂟𑂰 𑂅𑂮𑂲 𑂍𑂹𑂩𑂧 𑂧𑂵𑂁 𑂩𑂰𑂢𑂲 𑂞𑂰𑂩𑂰𑂫𑂞𑂲 𑂍𑂷 𑂥𑂹𑂩𑂰𑂯𑂹𑂧𑂝 𑂍𑂵 𑂐𑂩 𑂣𑂩 𑂢𑂸𑂍𑂩𑂰𑂢𑂲 𑂍𑂰 𑂍𑂰𑂩𑂹𑂨 𑂍𑂩𑂢𑂰 𑂠𑂱𑂎𑂰𑂢𑂰 𑂮𑂰𑂥𑂱𑂞 𑂍𑂩𑂞𑂰 𑂯𑂶 𑂍𑂲 𑂇𑂮 𑂮𑂧𑂨 𑂍𑂵 𑂮𑂰𑂁𑂏𑂲𑂞 𑂪𑂵𑂎𑂍 𑂮𑂧𑂰𑂔 𑂧𑂵𑂁 𑂄𑂏𑂵 𑂍𑂲 𑂮𑂷𑂒 𑂩𑂎𑂢𑂵 𑂫𑂰𑂪𑂵 𑂟𑂵 𑂌𑂩 𑂮𑂧𑂰𑂔 𑂍𑂷 𑂇𑂮𑂍𑂰 𑂫𑂱𑂍ृ𑂞 𑂩𑂴𑂣 𑂮𑂧𑂨 𑂮𑂧𑂨 𑂣𑂩 𑂠𑂱𑂎𑂰𑂞𑂵 𑂩𑂯𑂵 𑂟𑂵। 𑂅𑂮𑂍𑂲 𑂕𑂪𑂍 𑂄𑂣 𑂬𑂹𑂩𑂫𑂝 𑂒𑂩𑂱𑂞𑂹𑂩 𑂧𑂵𑂁 𑂇𑂠𑂹𑂨𑂰𑂢 𑂩𑂱𑂭𑂱𑂞 𑂌𑂩 𑂒𑂁𑂠𑂹𑂩𑂍𑂪𑂰 𑂍𑂲 𑂥𑂰𑂞𑂒𑂲𑂞 𑂧𑂵𑂁 𑂣𑂳𑂞𑂹𑂩𑂶𑂒𑂹𑂓𑂰 𑂍𑂲 𑂫𑂱𑂍ृ𑂞 𑂅𑂒𑂹𑂓𑂰 𑂍𑂵 𑂥𑂰𑂩𑂵 𑂧𑂵𑂁 𑂠𑂵𑂎 𑂮𑂍𑂞𑂵 𑂯𑂶
𑂒𑂁𑂠𑂹𑂩𑂍𑂪𑂰: 
𑂥𑂳ढ़𑂰𑂣𑂰 𑂄 𑂏𑂨𑂰 𑂣𑂹𑂨𑂰𑂩𑂵 𑂣𑂳𑂞𑂹𑂩 𑂪𑂵𑂍𑂱𑂢 𑂝 𑂉𑂍 𑂠𑂲𑂢𑂰।।
𑂢𑂶𑂢 𑂃𑂁𑂡𑂵 𑂦𑂨𑂵 𑂯𑂰𑂁 𑂥𑂵𑂮𑂯𑂰𑂩𑂵 𑂍𑂱𑂮 𑂞𑂩𑂯 𑂔𑂲𑂢𑂰।।

𑂇𑂠𑂹𑂨𑂰𑂢 𑂩𑂱𑂭𑂱:
𑂧𑂯𑂰 𑂠𑂳𑂂𑂎 𑂯𑂳𑂄 𑂢𑂶𑂢𑂷𑂁 𑂍𑂰, 𑂮𑂯𑂴𑂀 𑂍𑂶𑂮𑂵 𑂧𑂶𑂁 𑂅𑂮 𑂏𑂧 𑂍𑂷।
𑂃𑂏𑂩 𑂯𑂷𑂞𑂰 𑂍𑂷𑂆 𑂥𑂰𑂪𑂍, 𑂞𑂰𑂈 𑂠𑂵𑂞𑂰 𑂠𑂱𑂪𑂰𑂮𑂰 𑂠𑂧 𑂍𑂷।।
𑂢𑂱𑂯𑂹𑂫𑂰𑂞𑂰 𑂡𑂳𑂪𑂰𑂞𑂰 𑂣𑂲𑂨𑂰 𑂔𑂱𑂧𑂰𑂞𑂰 𑂣𑂹𑂩𑂲𑂞𑂲 𑂮𑂵 𑂞𑂳𑂧𑂍𑂷।
𑂇𑂘𑂰𑂞𑂰 𑂥𑂱𑂘𑂰𑂞𑂰 𑂈𑂁𑂏𑂪𑂲 𑂣𑂰𑂍𑂩 𑂍𑂵 𑂙𑂳𑂪𑂰𑂞𑂰 𑂯𑂧𑂍𑂷।।

𑂅𑂮𑂲 𑂣𑂹𑂩𑂍𑂰𑂩 𑂮𑂰𑂁𑂏𑂲𑂞 "𑂣𑂴𑂩𑂹𑂧𑂪 𑂣𑂹𑂩𑂟𑂧 𑂦𑂰𑂏" 𑂧𑂵𑂁 𑂩𑂰𑂔𑂰 𑂬𑂁𑂎𑂣𑂞𑂱 𑂍𑂵 𑂠𑂹𑂫𑂰𑂩𑂰 𑂥𑂯𑂳𑂣𑂞𑂹𑂢𑂲 𑂣𑂹𑂩𑂟𑂰 𑂍𑂵 𑂮𑂧𑂹𑂥𑂢𑂹𑂡 𑂧𑂵𑂁 𑂮𑂰𑂍𑂹𑂭𑂹𑂨 𑂠𑂵𑂢𑂰 𑂦𑂲 𑂇𑂮𑂲 𑂮𑂧𑂨 𑂍𑂵 𑂮𑂧𑂰𑂔 𑂍𑂲 𑂮𑂷𑂒 𑂍𑂷 𑂠𑂩𑂹𑂬𑂰𑂞𑂰 𑂯𑂶।
𑂡𑂩𑂹𑂧 𑂩𑂔𑂣𑂴𑂞 𑂍𑂹𑂭𑂞𑂹𑂩𑂱𑂢 𑂍𑂵 𑂃𑂢𑂵𑂍𑂷𑂁 𑂥𑂹𑂨𑂰𑂯 𑂍𑂩𑂞𑂵 𑂯𑂶।
𑂔𑂰𑂥𑂔𑂰 𑂔𑂰 𑂮𑂹𑂫𑂨𑂧𑂹𑂥𑂩 𑂧𑂵𑂁 𑂥𑂯𑂳𑂞 𑂮𑂲 𑂢𑂰𑂩𑂲 𑂫𑂩𑂞𑂵 𑂯𑂶।।

𑂄𑂣𑂍𑂷 𑂮𑂧𑂰𑂔 𑂧𑂵𑂁 𑂤𑂶𑂪𑂲 𑂊𑂮𑂲 𑂍𑂆 𑂥𑂳𑂩𑂰𑂅𑂨𑂷𑂁 𑂍𑂵 𑂧𑂰𑂩𑂵 𑂧𑂵𑂁 𑂮𑂰𑂁𑂏𑂲𑂞 𑂢𑂵 𑂃𑂣𑂢𑂵 𑂄𑂣𑂍𑂷 𑂮𑂧𑂰𑂔 𑂧𑂵𑂁 𑂮𑂹𑂟𑂰𑂣𑂱𑂞 𑂍𑂩𑂢𑂵 𑂍𑂵 𑂪𑂱𑂉 𑂥𑂯𑂳𑂞 𑂯𑂲 𑂧𑂳𑂎𑂩𑂞𑂰 𑂍𑂵 𑂮𑂰𑂟 𑂃𑂣𑂢𑂲 𑂥𑂰𑂞 𑂣𑂯𑂳𑂁𑂒𑂰𑂆। 𑂪𑂵𑂍𑂱𑂢 𑂄𑂔 𑂮𑂰𑂁𑂏𑂲𑂞 𑂍𑂲 𑂮𑂹𑂟𑂱𑂞𑂱 𑂔𑂱𑂮 𑂣𑂹𑂩𑂍𑂰𑂩 𑂥𑂠𑂞𑂩 𑂮𑂹𑂟𑂱𑂞𑂱 𑂧𑂵𑂁 𑂣𑂯𑂳𑂀𑂒𑂰 𑂠𑂲 𑂏𑂨𑂲 𑂍𑂲 𑂊𑂮𑂰 𑂪𑂏𑂞𑂰 𑂯𑂶 𑂫𑂯 𑂃𑂣𑂢𑂰 𑂠𑂧 𑂞𑂷ड़ 𑂍𑂵 𑂧𑂰𑂢𑂵𑂏𑂲। 𑂯𑂧𑂵𑂁 𑂃𑂣𑂢𑂵 𑂮𑂧𑂰𑂔 𑂧𑂵𑂁 फ़𑂶𑂪𑂲 𑂥𑂳𑂩𑂰𑂅𑂨𑂷𑂁 𑂍𑂵 𑂥𑂰𑂩𑂵 𑂧𑂵𑂁 𑂧𑂳𑂎𑂩𑂞𑂰 𑂍𑂵 𑂮𑂰𑂟 𑂥𑂰𑂞 𑂍𑂩𑂢𑂲 𑂒𑂰𑂯𑂱𑂉 𑂌𑂩 𑂮𑂧𑂰𑂔 𑂍𑂷 𑂄𑂏𑂵 𑂪𑂵 𑂔𑂰𑂢𑂵 𑂧𑂵𑂁 𑂮𑂯𑂰𑂨𑂍 𑂥𑂢𑂢𑂰 𑂒𑂰𑂯𑂱𑂉। 𑂊𑂮𑂰 𑂢𑂯𑂲𑂁 𑂯𑂶 𑂍𑂲 𑂄𑂔 𑂮𑂧𑂰𑂔 𑂮𑂵 𑂮𑂰𑂩𑂲 𑂥𑂳𑂩𑂰𑂅𑂨𑂰𑂁 ख़𑂞𑂹𑂧 𑂯𑂷 𑂒𑂳𑂍𑂲 𑂯𑂶 𑂄𑂔 𑂦𑂲 𑂮𑂧𑂰𑂔 𑂍𑂵 𑂍𑂆 𑂥𑂳𑂩𑂰𑂅𑂨𑂰𑂁 𑂧𑂸𑂔𑂴𑂠 𑂯𑂶। 𑂪𑂵𑂍𑂱𑂢 𑂯𑂧 𑂮𑂳𑂫𑂱𑂡𑂰𑂢𑂳𑂮𑂰𑂩 𑂍𑂱𑂮𑂲 𑂍𑂰 𑂥𑂳𑂩𑂰𑂆 𑂍𑂩𑂞𑂵 𑂯𑂶 𑂞𑂷 𑂍𑂱𑂮𑂲 𑂣𑂩 𑂒𑂳𑂣𑂹𑂣𑂲 𑂮𑂰𑂟 𑂪𑂵𑂞𑂵 𑂯𑂶 𑂯𑂧𑂵𑂁 𑂃𑂣𑂢𑂵 𑂮𑂁𑂮𑂹𑂍ृ𑂞 𑂣𑂩 𑂏𑂩𑂹𑂫 𑂯𑂷𑂢𑂰 𑂒𑂰𑂯𑂱𑂉 𑂌𑂩 𑂇𑂮𑂍𑂷 𑂥𑂒𑂰𑂢𑂵 𑂍𑂵 𑂣𑂹𑂩𑂨𑂰𑂮 𑂍𑂱𑂨𑂵 𑂔𑂰𑂢𑂵 𑂒𑂰𑂯𑂱𑂉।
𑂡𑂢𑂹𑂨𑂫𑂰𑂠
𑂬𑂬𑂱 𑂡𑂩 𑂍𑂳𑂧𑂰𑂩
#कैथी #Kaithi

Saturday 29 July 2023

तुम चुप क्यों रहे केदार

यह मेरे लेख का शीर्षक नही, यह एक किताब का नाम है जो 2013 केदारनाथ में हुई घटना को लेकर हृदयेश जोशी जी की है। हृदयेश जोशी जी लगातार पर्यावरण से संबंधित विषयों पर हमेशा सक्रिय होकर लिखते और बोलते रहते है। यह किताब उनके एक चैनल के साथ रहने के दौरान पत्रकारिता करते हुए इस घटना के साथ साथ और कई घटनाओं पर उन्होंने प्रकाश डालता है।


यह किताब आप जब पढ़ना शुरू करते है तो आपको गुस्सा आता है आप किस दुनिया में जी रहे है। इसको पढ़ने के बाद अंदाज़ा लग पाता है आप पर्यावरण के प्रति खासकर जो पहाड़ों से संबंधित है आप कुछ भी नही जानते है। अगर आप बहुत सी किताबें पढ़ ले तो भी क्योंकि जितना इन पहाड़ों में बसे लोग इन पहाड़ों को और इसकी पहचान तथा इसके बनावट को पहचान पाते है उतना शायद ही कोई पहचान पायेगा। इसीलिए हृदयेश जोशी जी की यह किताब पढ़नी आवश्यक हो जाती है क्योंकि वे खुद पहाड़ से आते है और मैं उनकी पर्यावरण के प्रति कई रिपोर्टों का कायल रहा हूँ। इस किताब में ऐसा क्या है जो हम जैसों को पढ़ना चाहिए। इस किताब में हर वह बात है जो एक घटना को पुनर्जीवित करती है शब्दों के माध्यम से और इस किताब से आप समझ सकते है कि गलती कहाँ और कितनी हुई है और कितनी हो रही है साथ में सरकार की योजना और उसके बारे में विशेषज्ञों की राय और सरकारी नीतियों के बारे में भी। उस नीतियों के बारे में भी जो वे लोग आमतौर पर बराबर गलती करते हुए आ रहे है। यह किताब पर्यावरण के प्रति जागरूक व्यक्ति के लिए अहम पड़ाव हो सकती है खासकर पहाड़ों की स्थिति जानने के लिए।

केदारनाथ की घटना के बाद सबसे बड़ी घटना 2021 में चमोली में हुई घटना थी जिसने ऋषिगंगा को पूरी तरह बर्बाद कर दिया और एक हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट का भी पूरी तरह सफाया कर दिया और धौलीगंगा में एनटीपीसी के प्रोजेक्ट पर भी असर पड़ा। इस बाढ़ में आये पत्थर और गाद ने लगभग 200 लोगो के जान ले ली। अभी जब मैं यह लिख रहा हूँ तो लगभग भारत के हर हिस्से में बारिश की तबाही दिख रही है हर नदी पिछले कई दशकों के रिकॉर्ड तोड़ रही है और नदियों के अपने बहाव क्षेत्र में लोगों ने इस तरह अतिक्रमण किया हुआ है की हर बड़े शहरों के नदी किनारे पर यही हाल है जिसकी वजह से इस साल लगता है नदी अपने पुराने रास्तों में बहना चाहती है यही वजह है कि कई बड़े शहरों में लोगो को स्थिति बहुत ज्यादा खराब है। यह सिर्फ इसीलिए नही हो रहा है क्योंकि पहाड़ों पर भारी बारिश हो रही है बल्कि प्रकृति जलवायु में सबसे बड़े परिवर्तन की ओर ईशारा कर रही है। और शायद हम समझने को नाकाम हो रहे है। अभी हृदयेश जोशी जी की बांग्लादेश में जलवायु परिवर्तन से हुए विस्थापितों को लेकर एक रिपोर्ट आयी थी जिसको देखने के बाद आप प्रकृति में हुए बदलावों से परिचित हो पाएंगे। उस वीडियो को आप यहाँ https://youtu.be/fP-nwyGrn6M देख पाएंगे। दिल्ली में यमुना का पिछले तीन दशक बाद इस तरह के बाढ़ का दर्शन होना भी पहले से ही सुनिश्चित था इसपर भी आप हृदयेश जोशी जी की वीडियो देख https://youtu.be/TvANdIyrOns सकते है। दिल्ली में आये यमुना के बाढ़ पर मेरा लेख यहाँ https://shashidharkumar.blogspot.com/2023/07/yamuna-flood-delhi.html पढ़ सकते है। 

मैंने भी कई वर्ष दिल्ली में गुजारे है इसी वजह से दिल्ली से एक लगाव सा हो गया और यही वजह है की मैंने यमुना के बाढ़ पर एक कविता लिख डाली। 

समस्या सिर्फ सरकारें पैदा नही कर रही है जितना सरकारें जिम्मेदार है उससे कही ज्यादा हम जिम्मेदार है इस तरह के प्राकृतिक आपदाओं के लिए। हम प्रकृति में हो रहे बदलावों को स्वीकार नही कर पा रहे है और ना ही उसके बारे में गंभीर है।


इस किताब के माध्यम से आप पहाड़ो की पारिस्थितिकी को जान पाएंगे कि विकास के नाम पर जो पहाड़ो में लगातार विस्फोट और पहाड़ों को काटा जा रहा है इसके बारे में पर्यावरणविदों ने हर तरह से सरकारों को आगाह करने का प्रयास किया है लेकिन सरकार जैसे अपने अलग धुन में चली जा रही है और ऐसा अंग्रेजों के जमाने से ही चला आ रहा है कि वे ना तो पर्यावरणविदों की सुनते है और ना ही स्थानीय निवासियों की सुनते है जो अपने जंगलों पहाड़ों को बचाने के लिये कभी कुली बेगार आंदोलन तो कभी तिलाड़ी विद्रोह तो कभी सल्ट और सालम की क्रांति तो कभी हिमालय बचाओ आंदोलन तो कभी चिपको आंदोलन तो कभी झपटों छीनों आंदोलन तो कभी टिहरी बाँध के खिलाफ तो कभी केदार घाटी बचाओ आंदोलन के नाम पर आम जनजीवन इसके खिलाफ खड़ी भी होती है और कभी कभी सरकारों को इनके आगे झुकना पड़ा है। लेकिन हम जैसे मैदानी इलाकों के लोगो के लिए पहाड़ सिर्फ खूबसूरती का नज़ारा देखने भर के लिए होता है हमें इन आंदोलनों से कोई मतलब नही होता है लेकिन शायद हम भूल जाते है की पूरे भारत का पर्यावरण संतुलन हिमालय पर टिका हुआ है। हम मैदानी इलाके वाले यह तक समझने में नाकाम है कि हमारे मैदानी इलाकों में बहने वाली ज्यादातर नदियां इन्हीं हिमालयी क्षेत्रो से निकलती है। इसके बावजूद हम इन नदियों की ना तो रक्षा कर पा रहे है और ना ही इन संतुलन बनाये रखने का कोई प्रयास

मैं विकास का विरोधी नही लेकिन पहाड़ों के अस्तित्व को खतरे में डालकर तो कतई नही। और कुछ महीने पहले ही जोशीमठ में जो लगातार पहाड़ दरकने की घटना हुई और अब भी हो रही है शायद सरकार इससे भी सबक नही ले पा रही है कि पहाड़ का विकास पहाड़ों के अस्तित्व को ध्यान में रखकर ही किया जा सकता है। जोशीमठ पर लिखे मेरे लेख को आप यहाँ https://shashidharkumar.blogspot.com/2023/01/Joshimath-Natural-or-human-error.html पढ़ सकते है। लेखक या रिपोर्टर के तौर पर हृदयेश जोशी जी की तारीफ कर सकता हूँ और इस किताब के माध्यम से पहाड़ियों की लड़ाई को उन्होंने जल, जंगल और जमीन की लड़ाई बताई है तो इसी जल, जंगल और जमीन की लड़ाई तो आदिवासी भी लड़ रहे है तो उन्हें क्यों नक्सली कहा जा रहा है, क्या इसीलिए की पहाड़ियों की लड़ाई हिंसक नही रही और नक्सलियों की लड़ाई हिंसक रही है। यह मेरा सिर्फ एक सवाल है और मुझे जानने की इच्छा है। हो सकता है मैं गलत हूँ शायद पूरे परिदृश्य को सही से नही समझ पाया हूँ।

लेकिन इस किताब के बारे में अवश्य कह सकता हूँ कि पढ़ने लायक है और आप पहाड़ों में घूमने के शौकीन है तो आपको यह किताब अवश्य पढ़नी चाहिए क्योंकि यह किताब आपको पहाड़ों के प्रति जिम्मेदार महसूस कराती है। 
जिम्मेदार बनिये और सशक्त बनिये।
धन्यवाद।
✍️©️ शशि धर कुमार

Sunday 16 July 2023

यमुना बाढ़ दिल्ली २०२३

दिल्ली में मानसून के साथ इस बार बाढ़ की 
घटना ने पूरे भारत का दिल दहला दिया तो सोचिये यमुना किनारे रहने वालों के मन में क्या चल रहा होगा। यमुना में बाढ़ की कहानी कोई नई नही है लेकिन हाल के वर्षों तक एक पीढ़ी ने इस तरह का बाढ़ नही देखा था कहा जा रहा है इससे पहले १९७८ में ऐसी ही बाढ़ आई थी लेकिन इतना पानी तब भी नही आया था। इस बाढ़ ने दिल्ली जो देश की राजधानी है उसका नुकसान बहुत ज्यादा बढ़ा दिया है। इस बाढ़ के कारण लोगों को बहुत परेशानी और संकट का सामना करना पड़ रहा है।


बाढ़ के मौसम के दौरान यमुना नदी में पानी में वृद्धि  अमूमन होती ही  है और हर साल बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो ही जाती है। इस बार मानसून के आगमन के साथ ही भारी वर्षा के कारण यमुना का जलस्तर बढ़ गया और नदी जो पहले सालों साल पहाड़ी राज्यों से गाद लाकर मैदानी इलाकों में छोड़ती रही है जिसकी वजह से इसकी पानी वहन करने की क्षमता में साल दर साल काफी गिरावट आई है। इससे दिल्ली में यमुना का पानी बहकर यमुना के आस पास के कई इलाकों में घुस गया है। बाढ़ के कारण घरों, गलियों और सड़कों में भी बहुत सारा कीचड़ गाद के रूप में हर तरफ फैलेगा। लोगों को इस स्थिति से निपटना मुश्किल हो जाएगा और उन्हें अपने घरों से बाहर निकलने में भारी परेशानी का सामना करना पड़ेगा।

यमुना के इस ऐतिहासिक बाढ़ से प्राकृतिक नुकसान बहुत अधिक हुआ है। प्राकृतिक जीव जंतुओं के साथ मानव और पालतू पशु पक्षियों पर भी इस पर्यावरणीय आपदा का असर पड़ा है। इस स्थिति में अपने घर और भोजन के लिए आम आदमी को जद्दोजहद करना पड़ रहा है।

इस बाढ़ ने दिल्ली में यमुना के अपने प्रवाह क्षेत्र में हो रहे अतिक्रमण की स्थिति को काफी हद तक उजागर किया है। यमुना के इस बाढ़ से सिर्फ यमुना या इसके आस पास के इलाकों में ही नही इससे बाहर हुए दशकों पहले आधिकारिक अतिक्रमण को भी उजागर किया है और प्रकृति के रूप में यमुना ने इस बाढ़ से यह बताने की कोशिश भी की है। इसी का नतीजा है सिविल लाइन्स हो या दिल्ली सचिवालय हो या ITO वाला क्षेत्र हो या राजघाट वाला क्षेत्र हर क्षेत्र में लगभग ३-४ फूट पानी का बहना इसी अतिक्रमण का नतीजा है। इसी अतिक्रमण के चलते सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंच रहा है और इस क्षति का अंदाजा शायद बाढ़ के नीचे होने पर ही पता चल पाएगा। सरकारी भवनों, औद्योगिक क्षेत्रों, खेती वाली भूमि और बांधों के नजदीकी क्षेत्रों में बाढ़ का नुकसान को भरना बहुत ही मुश्किल होगा।

इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा शायद कोई नही क्योंकि दिल्ली में राजनैतिक रस्सा कस्सी के बीच आम जनता को इस बाढ़ से दिल्ली देश की राजधानी होते हुए जितना जल्दी राहत मिलना चाहिए उतना जल्दी मिल नही पाया। आपस में अलग अलग प्रशासनिक विभागों की कमजोरियां भी खुल कर नज़र आई और लोग एक दूसरे को कोसते नज़र आ रहे है। हर बार जब बाढ़ आती है तो नागरिक निकाय पर प्रश्नचिन्ह उठते है इसबार भी उठा लेकिन बाढ़ की वजह हथनी कुंड बैराज पर फोकस कर दिया गया। राजनीति के काम करने की नीयत से राजनीति का स्तर पता चलता है लेकिन यहाँ सभी राजनैतिक पार्टियों ने एक दूसरे पर दोषारोपण करने का प्रयास किया और जो सबसे अहम सवाल था कि आम आदमी को फौरी तौर पर कैसे राहत पहुंचाया जाए वह कहीं ना कही पीछे नजर आया। दिल्ली का सीवेज सिस्टम भी कहा जा रहा है कि वह काफी पुराना है और जिस अनुपात में राजधानी की जनसंख्या में वृद्धि हुई है उस के अनुसार सीवेज सिस्टम का अपग्रेडेशन नही हो पाया यह भी एक वजह है जब हर बार यमुना में बाढ़ आती है तो मयूर विहार जैसे निचले इलाके से यमुना में गिरने वाला गंदे नाले का पानी रिवर्स में जाने लगता है और मयूर विहार और आस पास के इलाके में बाढ़ जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। दिल्ली में जब भी बाढ़ आती है और पानी से सड़कों पर जाम की स्थिति उत्पन्न होती है तो हर बार नागरिक निकाय के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने नालों की सफाई समय पर नही की जिसकी वजह से आज हमें यह दिन देखना पड़ रहा है। तो मेरे कुछ सवाल है जो प्रशासन में बैठे लोगों से पूछे जाने चाहिए:
१) नागरिक निकाय हर साल बारिश से पहले नालों की सफाई क्यों नही करती है?
२) नागरिक निकाय सीवेज सिस्टम को अपग्रेड क्यों नही कर पा रही है?
३) सरकार का शहरी विकास मंत्रालय दिल्ली में रहते इसके बारे में क्यों नही सोच पा रही है?
४) दिल्ली में बहती यमुना के 25 किमी क्षेत्र में इतने बाँध का क्या औचित्य है, क्या इसके रख रखाव के बारे में सोचा नही जाना चाहिए था?
५) बाँध के फाटक नही खुलने की वजह के लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है?
६) पूरे भारत मे नदियों के किनारे हो रहे अतिक्रमण को लेकर सरकार की क्या नीति है?
७) पूरे भारत मे नदियों में गाद जमा होने से नदियों के पानी वहन की हो रही क्षमता को लेकर सरकार क्या सोचती है? क्यों नही आज तक ऐसी कोई योजना के बारे में विचार किया गया जबकि हर साल अरबों रुपैये की संपत्ति का नुकसान बिहार के लोगों को कोशी दे जाती है?
८) नदियों की वास्तविक बहाव क्षेत्र को संरक्षित करने की किसी भी प्रकार की योजना पर काम क्यों नही हो रहा है?
९) क्यों नही नदियों के वास्तविक बहाव क्षेत्र के आस पास के कुछ हिस्सों को पेड़ों से आच्छादित करने की योजना बने ताकि इससे नदी के साथ कटाव होने की समस्या को कम किया जा सके?
१०) क्यों नही नदियों के लिए पूरे भारत मे एक समान नीति निर्धारण किये जाय ताकि नदियों के संरक्षण को लेकर एक समान नीति पर काम हो?
ऐसे कई और मुद्दे हो सकते है नदियों को लेकर जिसकी चर्चा करने पर ही समाधान की तरफ बढ़ा जा सकता है साथ में राजनैतिक दृढ़ इच्छाशक्ति की भी जरूरत है।

इस घटना के समय सरकारी अधिकारियों को तुरंत कदम उठाने की आवश्यकता होती है और जनता को बचाव और उपयुक्त सुरक्षा की व्यवस्था करने के लिए संबंधित एजेंसियों के साथ सहयोग करना चाहिए। लोगों को जागरूक करने और उन्हें बाढ़ के खतरों से बचाने के लिए जागरूकता अभियान भी चलाया जाना चाहिए। इस प्रकार से एकजुट होकर हम बाढ़ और मौसम की आपदा पर विजय प्राप्त कर सकते है और अपने प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और वर्धन कर सकते हैं।
✍️©शशि धर कुमार

Friday 21 April 2023

संस्कृति वर्चस्व और प्रतिरोध

"संस्कृति वर्चस्व और प्रतिरोध" किताब के लेखक पुरुषोत्तम अग्रवाल जी ने किताब का नाम इस तरह से चुना है की आपको उसी से अंदाज़ा हो जायेगा कि लेखक पुरे किताब में क्या कहना चाह रहे है। शुरुआत होती है "हम कौन थे, क्या हो गए और क्या होंगे अभी?" से जिससे समाज की परिस्थिति के बारे में पता चलता है। और यह समाज के बारे में लिखा गया है। मैंने जब यह किताब खरीदा था तो पता था की इसको पढ़ने के बाद विचारों में उतार चढ़ाव अवश्य होंगे और यही वजह थी की इतनी छोटी सी किताब पढ़ने में औसतन ज्यादा समय लगा क्योंकि ईमानदारी से कहूँ तो इतने विचारों के भंवर को संभाल पाना आसान नहीं क्योंकि आपको अपने  विचारों में खोखलापन साफ़ नजर आने लगता है जैसे जैसे आप इस किताब को पढ़ते जाते है उसी प्रकार आप अपने विचारों की स्थिति के बार में पता लगा पाते है। लेखक के ही शब्दों में यह किताब इतना विचारोत्तेजक है की इसे संभाल पाना मुश्किल है व्यक्तिगत तौर पर नहीं समाज आज जिन परिस्थितियों से गुजर रहा है उसको लेकर यह टिपण्णी की गयी होगी ऐसा लगता है। इसीलिए इस किताब को पढ़ने से पहले आपको अपने अंदर विचारों की एक तरफ़ा शृंखला अगर है तो फिर इस किताब को झेल पाना बहुत मुश्किल होगा। क्योंकि जितना आप आगे बढ़ते जायेंगे यह किताब आपके अपने ही विचारो की बखिया उधेड़ता महसूस होगा और कई बार आपको लगेगा की मैं क्यों इस किताब को पढ़ रहा हूँ और इससे क्या हासिल होने वाला है।  

आगे मेरी प्रतिक्रिया से पहले मैं लेखक के बारे में बताना चाहता हूँ की वैसे ही यूट्यूब पर कुछ दर्शनशास्त्र से सम्बंधित वीडियो देखने के सन्दर्भ में इनकी एक वीडियो जो हाल ही में व्याख्यान में दिया गया था सूना जो काफी हद तक मेरे विचारो को सहलाता नजर आया वैसे में तकनिकी विषय का छात्र हूँ लेकिन साहित्य और दर्शन में रूचि होने की वजह कई किताबों और वीडियोस को पढ़ना और देखना शुरू किया जो मेरे बौद्धिक विकास में सहायक हो और तब इनकी एक किताब मंगाई थी जिसके बारे में पहले ही अपना टिपण्णी दे चुका जिसका नाम है "कौन है भारत माता?" और आज यह किताब मुझे किसी और सन्दर्भ में रिफरेन्स के तौर पर मिला तो मुझे लगा की पढ़ना चाहिए अब इस किताब को पढ़ने के बाद लगता है मुझे इनकी दो और किताब है जो पढ़नी चाहिए "तीसरा रुख़" और "विचार का अनंत" शायद इन दो किताबों को पढ़ने के बाद एक अलग विचार से आगे बढ़ पाऊँ। वैसे में विचारों के मामले में रूढ़ीवादी कतई नहीं रहा हूँ लेकिन कुछ लोगों को लगता है मैं पुराने ख्यालातों वाला व्यक्ति हूँ लेकिन सबकी अपनी अपनी समझ होती है मैं किसी भी बात को तथ्य और तर्क की कसौटी पर रखकर देखनी की कोशिश करता हूँ। यही मेरी रूढ़ीवादिता है।  

आखिर किताब में ऐसा क्या है जो मैं ऐसा महसूस कर पा रहा हूँ क्योंकि इस किताब की भूमिका में एक समाजसेवी के द्वारा यह सवाल पूछना की "क्या प्रेम का प्रचार प्रसार करना भी उतना आसान है जितना की नफरत का?" किताब की भूमिका में ही लेखक यह कहते है की "समाज को बदलने की कोई भी सार्थक यात्रा खुद से आरम्भ होती है। यह आरम्भ में ही समझ लेना हितकारी होगा की भारतीय समाज की बनावट ही ऐसी है की यहाँ ना धक्कामार ब्राह्मणवाद चल सकता है ना धक्कामार गैर-ब्राह्मणवाद।" मुख्यतः लेखक इस किताब में अलग अलग लेख के माध्यम से समाज से ही सवाल करते है और कोशिश करने का प्रयास करते है की आखिर समाज से कहाँ भूल हो रही है या समाज को किस दिशा की और बढ़ना चाहिए और इन बातों की किस तरह से देखा जा सकता है। इसी क्रम इस इन प्रश्नो पर कुछ सोच विचार हो सके। इन विचारों के माध्यम से लेखक चाहते है की समाज इन प्रश्नो पर गंभीरता से विचार करे और समझे की समाज की दशा और दिशा क्या होनी चाहिए। और इसको तय करने के लिए सिर्फ वे ही जिम्मेदार नहीं है पुरे समाज को मिलकर इसकी जिम्मेदारी उठानी होगी। 

किताब में अलग अलग लेख जिसमें मुझे जो पसंद आये वे है ".... और क्या होंगे अभी?", "प्रामाणिक भारतीयता की खोज", "इस माहौल में विवेकानंद", "सीता शम्बूक और हम", "घुप अँधेरे में छोटी-सी लालटेन", "खड़े रहो गांधी", "जातिवादी कौन" आदि। एक समाज के रूप में "हम" का बोध गहरे आत्म-मंथन का विषय है और "हम कौन थे, क्या हो गए, और क्या होंगे अभी" मैथिलि शरण गुप्त की प्रसिद्द पंक्ति के रूप में इस "हम" का आत्म मंथन की व्यंजना करवाती है। और यही लेखक अपनी लकीर खींचने का प्रयास करते है कबीर को आगे रखकर उनके शब्दों में की "यह कड़वी सच्चाई है की 'हम सब' के 'हम' और 'सब के बीच बहुत फर्क था, कबीर उसी समाज के अंग थे, जिसकी पीड़ा उनके दोहों में दिखती भी थी, जैसे 'तू बाम्हन मैं काशी का जुलहा' और 'हम तो जात कमीना' जैसे शब्दों का ताना बाना उसी दर्द का हिस्सा है। अंग्रेजी हमारी बौद्धिक बनावट की भाषा है भावनात्मक बनावट की नहीं, जैसे की आज भी अगर कोई अपनी बात अंग्रेजी में कहता है तो ऐसा लगता है की काफी बड़ा बुद्धिजीवी है और लेखक भी इस बात को समझे बिना नहीं रह पाते है और कहते है की आज भी हमारे यहाँ ऊँचे दर्जे का चिंतन अंग्रेजी में होता है और जनता देशी भाषाओं में काम चलाती है।  ठीक उसी प्रकार कई संस्कृत नाटकों में आप संभ्रांत किरदारों को संस्कृत में संवाद बोलते पढ़ते है लेकिन आम जन-मानस की भाषा प्राकृत होती है। हमें 'हम' से जरुरत ऐसे भारतीय आत्म-बोध की है जिसमे 'हम' की आकांक्षाओं को ही नहीं 'सब' की व्यथाओं को भी धारण करने की सामर्थ्य हो।

विचारों का भंवर ऐसा नहीं हो की किसी विचार को सिर्फ उसके इरादे भर से मान लिया जाए, उस विचार की परख उसकी सच्चाई, परम्परा और समाज में सभी लोगो द्वारा उन मूल्यों को बल दिया गया हो। इस प्रसंग में कबीर के प्रति स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के विचार को पढ़ने योग्य बताया गया है। यदि सभी मनुष्य ब्रह्म के ही रूप है और जीवन ही ईश्वर का रूप है तो एक तरफ चींटी को आटा खिलाना और दूसरी तरफ उसी मानव जीवन के दूसरे अंग से दुरी क्यों? जैसे गाँधी कहते है की सत्य और हिंसा का सिद्धांत इतना पुराना होने के बावजूद यह हर काल में सृष्टी के साथ चलता चला आ रहा है। तो सत्य सिर्फ एक आतंरिक खोज का हिस्सा नहीं हो सकता है उसे सामाजिक खोज का हिस्सा भी बनाना पड़ेगा। हमें अपना विवेक किसी भी ऐसे विचार या व्यक्ति के हवाले नहीं करना चाहिए जो सिर्फ यह चाहता है की उनके ही विचार सुने और पढ़े जाय, फिर सत्य और अहिंसा की खोज सामाजिक तौर पर नामुमकिन है। अगर आप विवेकानंद को धार्मिक कहते है उनके कहे कुछ वाक्यों पर ध्यान देने की जरुरत है जैसे "भूखे के सामने भगवान् पेश करना उसका अपमान है।", "धर्म का सामाजिक नियमों से क्या प्रयोजन?", "धर्म को कोई हक़ नहीं की वह समाज के नियम गढ़े।" आदि। लेकिन आप विवेकानंद को राजनैतिक भी नहीं बोल सकते है क्योंकि उनका राजनीती से दूर दूर का कोई वास्ता नहीं था तो ऐसे वक्तव्यों से वे क्या कहना चाहते थे। वे हम सबको आत्म अवलोकन करने ही कह रहे थे की जिस जंजाल से आप और आपका समाज आगे नहीं बढ़ पा रहा है उससे आपको छुटकारा पाने की आवश्यकता है। 

समाज में स्त्री की पवित्रता ऐसी चीज है जिसे जांचने का और परखने का हक़ सिर्फ सामाजिक सत्ता को है। उस सत्ता को जो स्त्री को देवी कहकर पुकारता तो है लेकिन समय मिलने पर उसकी अग्नि परीक्षा लेने से भी नहीं चुकता है। स्त्री को ही अपने शरीर, मन और व्यक्तित्व पर अधिकार नहीं है। ऐसा लगता है परम्परा से सत्ता आयी वो भी पुरुष प्रधान तंत्र के हिस्से लेकिन मर्यादा की जिम्मेवारी सिर्फ स्त्री के हिस्से। प्रगतिशील उदारपंथी बुद्धिजीवी किसी भी समस्या को स्वाभाव से मुद्दों पर रेखांकित करने का काम नहीं कर पाते है वे केवल प्रतिक्रिया देकर अपनी इतिश्री कर लेते है। आजकल हर ऐसी बातो को राष्ट्रीय गौरव, समाज की इज्जत आदि से पुकारकर या बोलकर इसे एक रूप में रंगने का प्रयास लगातार होता रहता है। परिभाषाओं पर एकाधिकार रखने वाली सत्ता की निगाह में अभी भी चाहे वो स्त्री हो या कामगार समाज उसकी हैसियत क्या है किसी से छुपी नहीं है। गाँधी का रामराज्य का मतलब था समाज के आखिरी पायदान पर खड़े व्यक्ति के आँख के आंसू पोछे जाय। और इसी को जादू की पुड़िया कहकर बाबू जगजीवन राम को भी यही समझाने का प्रयास किये थे। राजनीती तो ऐसे सवालों पर हमेशा चुप्पी साधकर अपनी मौन स्वीकृति तो दिखा ही देता है और उसकी मज़बूरी भी है। कभी कभी लगता है स्त्री का व्यक्तित्व अर्जन की समस्या किसी सभ्यता परम्परा के उदार और सहिष्णु होने अथवा न होने भर की समस्या हो। 

ऐसी ही कई समस्याओं पर ध्यान आकृष्ट करना मुझे लगता है पुरुषोत्तम अग्रवाल जी का प्रयास सफल माना जाना चाहिए और मैं उनको धन्यवाद देना चाहता हूँ ऐसी विचारोत्तेजक किताब हम जैसे पाठकों के बीच लाने के लिए। 

धन्यवाद 
शशि धर कुमार

Saturday 8 April 2023

Rocket Boys

रॉकेट बॉयज़ भारत के दो ऐसे पुरुषो के बारे में कहानी कहता है जो इतिहास में दर्ज है साथ में हमारे तीसरे महान वैज्ञानिक डॉ कलाम साहेब की कहानी है। कहानी भारत के इतिहास में चार महत्वपूर्ण दशकों (1940-80 के दशक) के इर्द-गिर्द सेट है और कैसे भारत एक मजबूत, बहादुर और स्वतंत्र राष्ट्र बनने की ओर बढ़ रहा और उसके राह में क्या क्या रोड़े आते है यह भी दर्शाता है। 

इन तीनो की आँखों में अपने देश की उड़ान को लेकर जो सपने है उसे वे हरसंभव प्रयत्न कर पूरा करना चाहते है और हर दिन हर समय वे उन सपनो के साथ जीते है और जिन्दगी की तमाम मुश्किलों के बावजूद वे आगे बढ़ने को हमेशा तत्पर दीखाई पड़ते है। उनकी आंखों में सपने और उनके दिमाग में एक योजना के साथ  डॉ होमी जे भाभा ने भारत के परमाणु कार्यक्रम को सोचा और स्थापित किया और डॉ विक्रम साराभाई ने भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम और कई अन्य संस्थानों की स्थापना की। उनकी यात्रा में मृणालिनी साराभाई, डॉ. साराभाई के जीवन में एक मजबूत स्तंभ, डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम , जिन्होंने आधुनिक भारतीय एयरोस्पेस और परमाणु प्रौद्योगिकी का नेतृत्व किया और पंडित जवाहरलाल नेहरू जिन्होंने हर कदम पर उनका समर्थन किया।

होमी जहांगीर भाभा का मानना है कि अगर भारत को ताकतवर देश बनना है तो उसे अपना परमाणु बम कार्यक्रम पूरी शक्ति से आगे बढ़ाना चाहिए। दूसरी तरफ विक्रम साराभाई हैं जो अंतरिक्ष में उपग्रह भेजकर देश के आम इंसान की तकदीर बदलना चाहते हैं। दोनों की अपनी अपनी पारिवारिक जिंदगी में अनेक अनछुए पहलु है जो इनदोनो को साथ में विचारों के मतभेद के साथ आगे बढ़ते रहने को प्रेरित करता है और है अमेरिका की साजिशें, दबाव और जासूसी भी है लेकिन जहाँ एक तरफ पाकिस्तान व दूसरी तरफ चीन से घिरे भारत को रूस में अपना स्वाभाविक मददगार नजर आता है और अमेरिका, पाकिस्तान का स्वाभाविक दोस्त। 

एक शुद्ध देशी वैज्ञानिक उपलब्धियों की कहानी कहते कहते दूसरे सीजन में आकर राजनीति की चाशनी अवश्य दिखती है। जिसमे कभी थोड़ा खट्टापन और थोड़ा मीठापन भी नजर आता है। आज हमें गर्व होता है कि भारत ने अंतरिक्ष विज्ञान में बड़ी ऊंचाइयां हासिल की हैं. चांद पर अपना यान उतार दिया है, मंगल तक यान भेज दिया है। साथ ही आज हम विश्व की प्रमुख परमाणु शक्ति भी हैं मगर यह रातों रात चमत्कार से संभव नहीं हो पाया है इसके पीछे देश के भविष्य को देखने वाली दृष्टि जो सी वी रमण से शुरू होकर कलाम साहेब के पोखरण परमाणु परिक्षण तक की यात्रा में अनेकानेक कठिनाइयों का सामना करते हुए  भारत को विश्व में सम्मानजनक स्थिति दिलाने की दृढ़ इच्छाशक्ति वाले वैज्ञानिक, विचारक और राष्ट्रीय नेता शामिल हैं। 

होमी विश्व युद्ध के दौरान भारत लौट कर कलकत्ता के एक साइंस कॉलेज में प्रोफेसर हो जाते हैं, जबकि साराभाई कैंब्रिज में अपना रिसर्च छोड़ कर घर आ जाते हैं।  होमी जहां परमाणु विज्ञान में दिलचस्पी रखते हैं, वहीं साराभाई का सपना देश का पहला रॉकेट बनाने का है। जहां होमी जी भाभा प्रोफेसर हैं और साराभाई उनके स्टूडेंट से चलकर धीरे-धीरे दोनों दोस्त बन जाते हैं फिर कई मुद्दों जैसे भाभा के परमाणु बम बनाने के विचार से साराभाई इत्तफाक नहीं रखते हुए उसके इस प्रोजेक्ट से अपने आपको अलग करते है लेकिन दोस्ती अभी तक कायम रहती है साथ में दोनों के बीच चिट्ठियों का आदान प्रदान होता रहता है इसी क्रम में 1942 में महात्मा गांधी के "अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन" से प्रभावित होकर होमी और साराभाई कॉलेज में एक दिन अंग्रेजी झंडा उतार कर स्वराज का तिरंगा लहरा देते हैं और यहीं से उनका मुश्किल वक्त शुरू होता है उनके रिसर्च के लिए आने वाले पैसे रोक लग जाती है फिर भाभा कॉलेज से अपनी नौकरी छोड़ कर मुंबई जाते हैं और जेआरडी टाटा के साथ उनका नया सफर शुरू होता है टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ फंडामेंटल रिसर्च के रूप में। दूसरी तरफ साराभाई पढ़ाई के साथ-साथ अपने पिता के कारोबार में हाथ बंटाते है और वे कपड़ा मिलों को आधुनिक बनाना चाहते हैं लेकिन यूनियन लीडरों का विरोध सहना पड़ता है इसके बावजूद वे किसी तरह से वे इसमें कामयाब हो गए और अहमदाबाद टेक्सटाइल इंडस्ट्रीज़ रिसर्च एसोसिएशन स्थापित करने में कामयाब भी हुए बाद में उन्होंने अहमदाबाद में ही इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ अहमदबाद भी स्थापित किया।

दूसरे सीजन की शुरूआत 1962 के युद्ध के बाद से होती है, जब भारत चीन से हार चुका था। हमारे देश के कुछ हिस्से पर भी चीन ने कब्जा कर लिया था. ऐसे में डॉ. होमी जहांगीर भाभा न्यूक्लियर बम बनाने के अपने प्रोग्राम को तेज कर देते हैं। लेकिन अमेरिका सहित चीन और पाकिस्तान इस प्रोग्राम पर नजर बनाए हैं साथ में भाभा की टीम में कुछ लोग ऐसे हैं, जो पैसों की लालच में अमेरिकन खुफिया एजेंसी सीआईए के लिए काम करते हैं। सीआईए को जब पता चलता है कि भाभा न्यूक्लियर रिएक्टर बनाने की दिशा अपना काम तेज कर दिए हैं, तो वो उनको मारने की कोशिश करते हैं, लेकिन किस्मत से वे बच जाते हैं। इधर, साराभाई लगातार सरकारी विरोधो के बावजूद थुंबा में अपनी टीम के साथ सैटेलाइट लॉन्च करने की कोशिश में लगे रहते है लेकिन उनको सफलता नहीं मिल पाती हैं और यही वजह होती है की सरकार इनके बजट में कटौती कर देती है। 

ऑडिट ऑफिसर का डॉ. विक्रम साराभाई से यह कहना की  "सर हम 62 की लड़ाई हार चुके हैं. पाकिस्तान की सेना सीमा पर खड़ी है. ऐसे में आप ही बताइए कि डिफेंस बजट कहां खर्च करना चाहिए? सेना पर या फिर रॉकेट उड़ाने पर?" इस पर साराभाई बिना कोई जवाब दिए अपने सपने की उड़ान को वास्तविक रूप देने में लगे रहते है उनका मानना है कि स्पेस में सैटेलाइट लॉन्च होने से लोगों की जिंदगी आसान हो पायेगी। उनके टेलीविजन के जरिए सही सूचनाएं मिलेंगी. मौसम का पूर्वानुमान होगा, जिससे प्राकृतिक आपदा से बचने में मदद मिलेगी. डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम उनके विजन को पूरा करने में जी जान से मदद करते हैं। 

इन्ही सब द्वंदों से निपटते हुए कैसे तीनों महान वैज्ञानिक अपने अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए अपना सर्वस्व लगा देते है और कैसे अलग अलग परिस्थितियों से निपटने के लिए तरीके निकालते है यही इस सीरीज की खासियत है। हाँ सीरीज में थोड़ा अंग्रेजी में संवाद का उपयोग हुआ है जिससे आम ठेठ हिंदी भाषी को थोड़ी दिक्कत हो सकती है लेकिन कुल मिलकर सीरीज अच्छी बन पडी है पहले सीज़न में कहानी पर पकड़ काफी अच्छी है लेकिन सीज़न 2 में थोड़ा ढीलापन नजर आता है। खैर अगर आप एतिहासिक दृष्टी से और भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों के बारे में जानना चाहते है यह एक अच्छा अवसर हो सकता है। 

धन्यवाद
शशि धर कुमार

Saturday 4 March 2023

विश्व पुस्तक मेला, दिल्ली

पुस्तक मेला और प्रगति मैदान हमेशा आश्चर्यचकित करता रहा है। जब भी जाता हूँ मन को असीम शांति मिलती है। इतने सारे किताब प्रेमी अभी भी है, और आज भी खरीदते है किताबें.....मेरे लिए नई नई किताबों की लिस्ट... नए नए इनोवेटिव तरीके से पढ़ने पढ़ाने के लिए भी काफी कुछ देखने को मिलता है। वाकई में अद्भुत नजारा होता है लेकिन जब दिल्ली हो तो खाने वाले के क्या कहने, वे खाते भी बड़े दिल से और भीड़ आप खाने के स्टाल भी देख पाएंगे। 

इस बार हिंदी को लेकर काफी प्रचार प्रसार किया गया था और वो सच भी था काफी ऐसी किताबों को देखा जो हिंदी और हिंदी के बारे में बड़े बड़े लेखकों की भी किताबें उसी में से एक किताब जो मुझे पसंद आई वह है गांधीजी और हिंदी, मैं तो कहूँगा की हिंदी प्रेमियों को यह किताब अवशय पढ़नी चाहिए (वैसे मैं इसपर अलग से टिपण्णी अवश्य लिखना चाहूँगा)। NBT ने इसबार हिंदी और उसके आस पास काफी किताबों को तवज्जो दिया था जिसको आप उसके स्टाल पर देख सकते है। हिंदी के प्रकाशनों के स्टाल पर भीड़ जो थी उसका अंदाजा लगाना मुश्किल था। हिंदी को लेकर कई प्रकाशन ने अलग तरह का माहौल बनाया हुआ था ऐसा लग रहा था जैसे उत्सव का माहौल हो। लेखकों से बातचीत, पाठकों के साथ हिंदी के बैनर के साथ फ़ोटो और भी बहुत कुछ था, मतलब गज़ब का माहौल था। पाठकों ने भी अपनी तरफ से भरपूर कोशिश की प्रकाशन के लोगों को भी अच्छा लगे। लोगों ने किताब ख़रीदे, लेखको के साथ सेल्फी, काउंटर पर केशियर को धन्यवाद मतलब अतुलनीय माहौल था। 

लेकिन जहाँ इतनी बड़ा आयोजन हो वहाँ कुछ ना कुछ तो अव्यवस्था होगी और मुझे जो सबसे ज्यादा अखरा वह था मोबाइल नेटवर्क की बड़ी समस्या जिसकी वजह से मुझे तीन स्टाल पर किताब नही मिल पाया क्योंकि आप UPI से पेमेंट नही कर पाएंगे अलबत्ता अगर आपके पास जिओ का नेटवर्क हो तो अलग बात है। एक तो कॉमिक्स का स्टाल था...😉 इसके लिए National Book Trust, India को सोचना चाहिए था लेकिन इनका सिस्टम बड़े अच्छे से चल रहा था। 

धन्यवाद।

रुकतापुर...

रूकतापुर मतलब रुकने वाली जगह लेखक ने बड़ा अच्छा नाम सोचा बिहार के सन्दर्भ में यह किताब काफी तथ्यों के साथ एक ऐसा विवरण है जो एक पत्रकार के लिए अपने घुमन्तु जीवन में कई बार आ सकती है और यह किताब उसी का परिणाम है वैसे बिहार से कई बड़े पत्रकार हुए जिन्होंने राष्ट्रीय पटल पर अपना नाम अंकित किया है लेकिन अगर उन्हें ध्यान से देखे तो उन सभी का अपना एक ईको सिस्टम रहा जिसके अंदर वे पूरी तरह फले फुले, ऐसा नहीं कह सकते है की उनमे योग्यता नहीं होगी अवश्य होगी तभी इतना दूर तक आ पाए लेकिन अगर आप उस ईको सिस्टम के बाहर वाले पत्रकारों के बारे में ढूंढने का प्रयास करेंगे तो आपको नहीं के बराबर मिलेगा। 

खैर आते है किताब पर रुकतापुर काफी अच्छा नाम लगा जो हटकर भी है और संकेतात्मक भी है जो बिहार जैसे राज्य के लिए ऐसा लगता है पूर्णतः सत्य है जैसे मैं पहले भी कहता रहा हूँ की कोई भी लेखक बामुश्किल ही बिना पक्षपात के कोई किताब या लेख लिख पायेगा। यह किताब वाकई में अगर आप तथ्यात्मक रूप से देखे तो बिहार के सन्दर्भ में कई अच्छी बाते और कई ऐसी बातों के बारे में भी बात करता है जिससे लगता है की यहाँ पक्षपात हो गया। किताब की शुरुआत सुपौल जिले से शुरू होती है जिसमे कई ऐसी बाते दर्शाई गयी है जिससे लगता है बेकारे बिहार में रहते है काहे नहीं बिहार छोड़कर कही और बस जाते है लेकिन अपने जमीन से उखड़कर दूसरे जगह बसना आसान नहीं होता है। जिस सुपौल की किताब में बात की गयी है आज भी बड़ी लाइन बनने के बाद इस जगह की स्थिति में आमूल चल परिवर्तन हुआ हो ऐसा नहीं लगता है हाँ बस इतना जरुर हुआ है की किताब में लेखक को जितना समय यात्रा में लगा अब वो नहीं लगता है "क्या कीजियेगा, बैकवर्ड इलाका है न...."। पटना में अगर कोई एक महीना रह ले और सुपौल या सहरसा या मधेपुरा या अररिया या फॉरबिसगंज या कटिहार कोई घूम ले तो लगेगा कौन बियांबान में आ गए है यही हकीकत भी है आज के बिहार की। लेखक के अनुसार ही अगर बातों को आगे बढाए तो पीएनएम मॉल, म्यूजियम, सभ्यता द्वार या ज्ञान भवन घूम आइये तो लगता है पेरिस पहुँच गए लेकिन कोसी कछार, गया और मुजफ्फरपुर शिवहर, सीतामढ़ी के गाँवों में जाइएगा तो आज भी बलराज साहनी की "दो बीघा जमीन" की याद आएगी। 

बिहार की स्थिति ऐसी है की एक तरफ यूपीएससी, आईआईटी, मेडिकल और आईटी में यहाँ के छात्र झंडा फहरा रहे है वही आज भी मुजफ्फरपुर में जब चमकी बुखार का प्रकोप आता है तो बच्चे किस प्रकार मरते है किसी को पता ही नहीं चलता कि क्या हो रहा है। बिहार के सभी पिछड़े जिलों से देश के बड़े बड़े शहरों को जाती ट्रेने बिहार की बदहाली की दशा बताती है लगभग इस किताब में यही कहते मिलेंगे लेखक महोदय, जो लगता है की सही भी है। यह सिर्फ ट्रैन की बात नहीं है बसों की हालात भी लेखक के शब्दों में कहे तो यहाँ भी कम रुकतापुर नहीं है लेखक महोदय को पूर्णिया से पटना आने के दौरान दोपहर दो बजे पूर्णिया से चलने वाली बस मुजफ्फरपुर शाम के ८ बजे पहुँच गयी और वहां से पटना ८० क़ीमी तय करने में साढ़े छह घंटे लग गए हालाँकि लेखक महोदय ने इसके भी भरसक लगने वाले कारण तो जरूर बताये है लेकिन सरकार को लपेटे में लेना नहीं भूले की सरकार बिहार के हर जिले से अधिकतम ५ घंटे में पहुँचने की सरकार के दावे की पोल खोल दिए। लेखक महोदय को सहरसा, समस्तीपुर,मधुबनी, जयनगर, दरभंगा,सीतामढ़ी, कटिहार और मुजफ्फरपुर से मजदूरों के पलायन की संख्या को हजारो में लिखा है और सही भी लगता है क्योंकि इन क्षेत्रो से दिल्ली और पंजाब की तरफ जाने वाली गाड़ियों में आपको जगह मुश्किल से मिलती है इसी क्रम में लेखक को एक युवक मिलता है जिसके दादा कभी पंजाब मजदूरी करने जाते थे फिर उसके पिताजी गए और अब वह जा रहा है। कोरोना में जब बिहार ट्रैन आ रही थी तो सरकारी आंकड़े के हिसाब से ३० लाख मजदुर वापस आये थे यही संख्या काफी कुछ कहता है लेकिन सरकार अपने अपने आंकड़े से बिहार को अग्रणी राज्यों में बताना नहीं भूलती है। 

किताब के दूसरे भाग के "घो-घो रानी, कितना पानी" से शुरुआत करते है तो यह बताना नहीं भूलते है की २८ सितम्बर २०१९ को पटना जो बिहार की राजधानी है किस प्रकार जलमग्न हो गयी और चारो तरफ त्राहिमाम मची हुयी थी और तत्कालीन उप मुख्यमंत्री के घर तक में पानी घुस गया था और ऐसी कई हस्तियां थी जिन्हे उस समय काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा था प्रख्यात गायिका शारदा सिन्हा जी की फोटो हम सबने सोशल मीडिया पर देखा ही होगा। उस भयावहता को देखने के बाद विश्व विख्यात लेखक रेणु जी का १९७५ में लिखा गया पटना के बाढ़ पर ही रिपोर्ताज पढ़ने पर अक्षरश वही नजर आने लगा था। लेखक सिर्फ रुकतापुर को आगे बढ़ाने के लिए यही नहीं रुकते है वे कोशी के बारे में भी बात करते है अगर आपने कोशी डायन नाम से रेणु की रिपोर्ताज पढ़ी होंगी तो इन लेखक महोदय के अनुभव भी कम नहीं है कोशी की विभीषिका को लेखक जी ने कोशी के वटवृक्ष नाम से भी एक किताब लिखी है उसको पढ़कर अंदाजा लगाया जा सकता है इस किताब में कोशी की विभीषिका पर थोड़ा संक्षेप में बातें कही गयी है लेकिन कही गयी है और अगर आप कोशी या सीमांचल क्षेत्र से आते है तो आपको यह आपकी अपनी कहानी लगेगी जो यहाँ के लोग हर साल झेलते है। दरभंगा के सूखते तालाब और बिगहा क्षेत्र में पानी में आर्सेनिक और फ्लोराइड की अधिक मात्रा में मिलना और उस दूषित पानी के पीने से होने वाली मानवीय क्षति से तो बिना संवेदना वाला व्यक्ति भी काँप जाए। 

भुखमरी, कुपोषण, चमकी जैसी ऐसी कई समस्याओं के बारे में लेखक महोदय में बड़ी अच्छी विवेचना की है। मखाना फोड़ने की विधि से लेकर इन मजदूरों के साथ आने वाली दिक्कतों का भी काफी बारीकी से जिक्र किया है। किताब के अनुसार बिहार के जनगणना २०११ के अनुसार ६५ फीसदी ग्रामीण आबादी भूमिहीन और इसके सबसे ज्यादा संख्या पिछडो और दलितों की है, इसी क्रम में सरकार भूमिहीनों के लिए जो कार्यक्रम चलाती है उन्हें कागज भी मिल जाते है लेकिन उनको वास्तविक अधिकार नहीं मिल पाता है। बेरोजगारी भी एक बड़ी समस्या है जिसकी वजह से यहाँ के युवा अपने लिए रोजगार की तलाश में थक हारकर बाहर की राह पकड़ते है। 

अगर आप बिहार से है तो आपको यह किताब अवश्य पढ़नी चाहिए ताकि आपको अंदाजा हो की बिहार के कितने रुकतापुर है जो बिहार के वास्तविक विकास की गति पर रोक लगाए हुए है। लेखक महोदय का धन्यवाद। 

धन्यवाद 
शशि धर कुमार 

Sunday 5 February 2023

बींसवीं गाँठ

यह उपन्यास राजेश वर्मा जी द्वारा लिखित है जिसकी पृष्टभूमि बौद्धकालीन संगीति और एक पति का पत्नी के प्रति प्रेम को दर्शाता हुआ एक ऐसा उपन्यास है जो बौद्धकालीन समाज के बारे में दर्शाता है। 

इस उपन्यास का कथानक अंग देश के चम्पा के एक ग्राम के रहने वाले शिव का अपने पत्नी के प्रति प्रेम और बौद्ध भिक्खु बनने के बीच में जो मन में प्रश्न उठते है जिसके भँवर में उपन्यास के आखिरी हिस्से में ही बाहर आ पाता है। इसको पढ़ते हुए आपको लेखक अपनी लेखनी से बौद्धकालीन समाज में लेकर जाने में सफल होते है और आपको लगने लगता है कि आप भी उपन्यास के मुख्य पात्र शिव के साथ साथ चलते हुए चम्पा से चलते हुए बौद्ध संगीति के लिए वैशाली पहुँचते है और फिर वापस भी आते है। शिव एक ऐसा पात्र है जो अपनी पत्नी से बीस दिन के लिए बीस गाँठ के रूप में पत्नी को दिए अपने वचन को पूरा करने के लिए पूर्णतः समर्पित दिखता है। लेकिन उस समय की सामाजिक परिस्थिति जो एक आम इंसान को उस सामाजिक ढाँचे से बाहर निकलने को उद्देलित करता है कि कैसे वह इस सामाजिक बंधनो में जो भेदभाव है उससे निकलने को छटपटाता है यह दर्शाती है। इसी उहापोह की स्थिति से निकलने के लिए शिव बौद्ध भिक्खु होने का रास्ता चुनता है जहाँ किसी भी प्रकार का ना कोई सामाजिक बंधन है ना ही किसी प्रकार का अवांछित बंधन। इसी छटफटाहट से निकलने के लिए वह बौद्ध भिक्खु तो बन जाता है लेकिन उसका अपने पत्नी के प्रति प्रेम से वह बाहर नही निकल पाता है। जबतक आप किसी धर्म में है आपको किसी ना किसी प्रकार का ऐसा बंधन बाँधे रखता है जो है ही नही लेकिन कभी कभी आपको लगता है कि यह कैसा बंधन है जो ना चाहते हुए भी मानना पड़ता है और उसके मुताबिक चलना पड़ता है। मुझे लगता है यह उपन्यास कहानी के मुख्य पात्र शिव के अंदर भी इसी छटफटाहट का नतीजा है जिससे वह बाहर निकलना चाहता है। 

वह उसी सामाजिक बंधन से निकलने के लिए रास्ते के बारे में सोचता है और इसके लिए पूरा प्रयास भी करता है लेकिन वह भिक्खु बनने के बाद भी एक सामाजिक बंधन जो उसका अपने पत्नी के प्रति है उससे नही निकल पा रहा है। और यह स्वाभाविक भी है की आप जिस समाज के साथ जीते है उसके आस पास बहुत सारी सामाजिक परिस्थितियाँ आपको अपने अंदर समाए रहती है। आप उससे बमुश्किल निकल पाते है। 

लेखक का कहानी के प्रति बंधन यह बताता है कि एक सटीक कथानक कितनी ही पुरानी पृष्टभूमि हो लेकिन कहानी पाठकों को जोड़ने में सफल हो पाती है। एक साहित्य प्रेमी होने के नाते यह ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित कहानी बहुत ही सुंदर और सुव्यवस्थित तरीके से संजोया गया है जो आपको उस समयकाल के बारे में बहुत सी ऐसी बातों से अवगत कराता है जिसको जानने के लिए आपको इतिहास की किताबों को खंगालना पड़ता है। 

एक बार फिर से लेखक महोदय का धन्यवाद।

शशि धर कुमार

Sunday 15 January 2023

जोशीमठ - त्राशदी या मानवीय भूल

जोशीमठ सिर्फ एक ऐतिहासिक नगरी नहीं है धार्मिक नगरी भी है जो बदरीनाथ का द्वार भी है। यहाँ से लोग  केदारनाथ, बदरीनाथ और हेमकुंड साहिब जाते है इसको आप बेसकैम्प भी मान सकते है। गैज़ेटीयर ऑफ उत्तराखंड की माने तो 1881 की जनगणना के हिसाब से यहाँ 500 से भी कम लोग रहते थे और आज 17 हजार के करीब है।


प्रकृति अपने हिसाब से अपने हर चीज में सुधार या संतुलन लाने का का हर संभव प्रयास करती है आज जो जोशीमठ की हालत है इसके लिए प्रकृति कम जिम्मेदार है जितना मानवीय कारण। चमोली जिले में बसा यह शहर काफी पुराना है इसका अस्तित्व एक सराय की रूप में संसार के सामने तब आया जब जगद्गुरु आदि शंकराचार्य जी ने वहाँ पर तपस्या कर ज्ञान प्राप्त की और ज्ञान प्राप्त करने के बाद दर्शन की पूरी परिभाषा लिखी। आज अगर भारतीय दर्शन पढ़ना हो तो उसके बिना दर्शन पूर्ण नही माना जा सकता है। इस शहर का बहुत पुराना इतिहास रहा है लेकिन विकास के नाम पर जिस तरीके से आँख मूँदकर इस सजीव पहाड़ के साथ खिलवाड़ किया गया है यह त्रासदी उसी का नतीजा है। आज से 50 साल पहले तक जिस प्रकार पहाड़ो पर घर बनाये जाते थे आज उसकी स्थिति भी काफी बदली है जिसकी वजह से भी इन कच्चे पहाड़ो पर अतिरिक्त दवाब बढ़ा है। जहाँ सामान्तया दो मंजिला मकान बना होता था वहाँ लोगों ने चार मंजिला से लेकर दस मंजिला होटल खड़ा कर दिया। जो पहाड़ आज भी जीवित पहाड़ो में गिना जाता है और जो मलबे पर बना पहाड़ हो उसके लिए ऐसी क्षमता को सहन करने की शक्ति धीरे धीरे जाती रही। आज की स्थिति सिर्फ पिछले 50 सालों की नही है जब मिश्रा समिति की 1976 में रिपोर्ट आई थी उस रिपोर्ट में जो-जो कहा गया था अक्षरशः वही हो रहा है तो क्या अब सरकारों को भी सचेत नही हो जाना चाहिए कि पहाड़ो या प्रकृति से किस हद तक छेड़छाड़ संभव है इसको जाने बिना देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है।

आजकल सुषमा स्वराज जब विपक्ष की नेता थी तब की एक वीडियो वायरल हो रही है उन्होंने जो बातें संसद में कही थी आज दशक बीत जाने के बाद भी उसपर कोई भी केंद्र की सरकार हो या उत्तराखंड की सरकार हो किसी भी प्रकार से विचार करना तक उचित नही समझा। इसी संदर्भ में उमा भारती जी के भी बयान को देखा जाना चाहिए जब उन्होंने कहा था कि गंगा की अविरलता को रोकने के प्रयास पर रोक लगनी चाहिए गंगा सिर्फ एक नदी नही है यह करोड़ो लोगों के लिए कई प्रकार से जीवनदायिनी साबित हुई है अगर हम इसकी अविरलता को बांधने का प्रयास करेंगे तो कही ना कही हमें इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। शायद इसी वजह से केदारनाथ जैसा प्रलय आता रहा है और उत्तराखंड के पहाड़ो को बार बार हिलाकर मानो यह कहता रहा है कि हम अभी जीवित है हमें मरा हुआ समझने की भूल ना करो नही तो हम यूँ ही दरकते रहेंगे और आप विस्थापित होते रहेंगे। पहले टिहरी विस्थापित हुआ अब जोशीमठ विस्थापित होने की कगार पर है। हाल ही में इसरो द्वारा जारी रिपोर्ट आँख खोलने वाला साबित हो सकता है जिसमें कहा गया है कि जोशीमठ का पहाड़ धीरे धीरे धँस रहा है। क्या यह हमारे लिए चेतावनी नही है?

जोशीमठ का दरकना हमारे लिए प्रकृति की चेतावनी है कि हम किस हद तक प्रकृति का दोहन कर सकते है। सरकारों से निवेदन है कि वे चेत जाए नही तो एक दिन ऐसा आएगा जब पूरी सभ्यता नष्ट हो जाएगी और हम मूक दर्शक बने रहने के सिवा कुछ नही कर पाएंगे। जोशीमठ को बचाने का एक ही तरीका है कि उसे कही और बसाया जाय और जोशीमठ शहर को प्रकृति के साथ बांधकर रखने का प्रयास किया जाय ताकि वह शहर भी जिंदा रह सके।
धन्यवाद

शशि धर कुमार। 

Tuesday 10 January 2023

Hindi - हिंदी

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल,

बिनु निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।

अँग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन,

पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।

~ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

पुरस्कारों के नाम हिन्दी में हैं

हथियारों के अंग्रेज़ी में

युद्ध की भाषा अंग्रेज़ी है

विजय की हिन्दी।

~ रघुवीर सहाय

लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है

मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है।

~ मुनव्वर राना

ऊपर तीन अलग अलग समय के लोगों द्वारा हिंदी को परिभाषित करने की कोशिश है उसे समझने की आवश्यकता है। तभी आप हिंदी की महत्ता को समझ पायेंगे।

१४ वे शब्द जो मेरे लिए है ख़ास 

१) मां

२) जीवन

३) दुलार

४) बचपन

५) स्नेह

६) जवानी

७) प्यार

८) अभिलाषा

९) स्पर्श

१०) क्रोध

११) अपमान

१२) अलगाव

१३) मौत

१४) मिट्टी

अगर हर रोज आप खुद से और अपने लोगों से करीब दस हिंदी शब्दों का प्रयोग करके भी बात कर लें तो हमारा हिंदी के प्रति प्यार दिख जायेगा और हिंदी भाषा के साथ थोड़ा इंसाफ हो जायेगा।

मुझे पता है मैं बिहारी हूँ मेरी हिंदी के व्याकरण के हिसाब से कुछ कमजोरियां भी है और मैं उसे मानता भी हूँ क्या आप मानते है? आप नहीं मानेंगे क्योंकि आपको लगता है आपकी ही हिंदी शुद्ध है, समस्या है और मुझे लगता है आज जो हिंदी लिखी या बोली जाती है। वह हर क्षेत्र में स्थानीय तौर पर बोली जानी वाली बोलियों का सम्मिश्रण है आप बिहार के सीमांचल में जायेंगे तो आपको हिंदी में ठेठी जो अंगिका का ही अप्रभंश बोलते है उसका मिश्रण मिलेगा अगर आप भागलपुर परिक्षेत्र में होंगे तो वहां अलग है अगर आप भोजपुर में है तो वहां अलग है अगर आप मिथिला में है तो वहां अलग है अगर आप नेपाल जाएँ तो आपको अलग मिलेगी। उसी प्रकार मध्य प्रदेश में अलग अलग परिक्षेत्र के हिसाब से आपको सम्मिश्रित ही मिलेगी। अगर आप उत्तर प्रदेश की बात करे तो आपको उसमे ब्रज भाखा, बुन्देली, चंदेली आदि का भी सम्मिश्रण मिलेगा। अगर आप हरियाण जाएँ तो वहां की अलग ही हिंदी है अगर आप राजस्थान जाएँ तो वहां की हिंदी अलग है तो सवाल है हिंदी है क्या? हिंदी बोलने में और लिखने में अलग अलग हो जाती है क्योंकि बोलने में बोली का सम्मिश्रण होता है लेकिन लिखने में तो व्याकरण के प्रयोग के कारण एक ही रहता है तो इसीलिए किसी के हिंदी बोलने का मखौल उड़ाने से पहले यह सोचियेगा की क्या आप सही और शुद्ध हिंदी बोल पाते है? मेरे जैसे बिहारी जो मैं को आज भी दिल्ली में इतने साल रहने के बाद भी हम ही बोलता है मुझे पता है व्याकरण के तौर पर मैं गलत हूँ लेकिन हम का मतलब सिर्फ मेरी बात नहीं होती है पुरे कुटुंब की बात होती है।

सवाल सिर्फ अपने आप से पूछने पर ही जवाब मिल सकता है बांकी सब तो छलावा है क्योंकि अगर कोई कहता है कि आप गलत हिंदी बोल रहे है तो मानना पड़ेगा की मैं गलत बोल रहा हूँ तभी सुधार संभव है लेकिन हिंदी हार्टलैंड के नाम से मशहूर उत्तर भारत के हिंदी भाषी लोग सिर्फ अपने आपको को ही शुद्ध हिंदी बोलने वाला मानते हो तो सुधार की गुंजाईश कम रह जाती है।

हिंदी को जीवन में अपनाए तभी हिंदी की सार्थकता साबित हो पायेगी सभी भाषाओ का सम्मान करना सीखे,  खासकर हिंदी अगर आपकी मातृभाषा है तो यह बहुत जरुरी हो जाता है। ✍

धन्यवाद
शशि धर कुमार

Friday 6 January 2023

कोशी के वटवृक्ष

यह किताब मैंने 2022 के पूर्वाध में मंगाई थी लेकिन एक चैप्टर बाद यह रह गयी थी तो मैने सोचा कि साल के शुरुआत में ही इसको पढ़ लिया जाय। यह कहानी सुपौल जिले के उन बुजुर्गों की है जिनका 2008 के कोशी के बाढ़ में सब कुछ छीन गया। पुष्यमित्र जी लिखित यह किताब काफी रिसर्च और आँकड़ो पर आधारित है। 

2008 के बाढ़ के बाद सुपौल जिले के इन बुजुर्गों का घर बार सब कुछ छीन गया यहाँ तक कि रिश्तों की गर्माहट को भी कोशी के बाढ़ में बहकर आये रेतों ने पूरी तरह ढँक दिया था। जब चारों ओर अँधेरा हो तो चाहे उम्र कोई भी हो लोग उजाला ढूँढने का प्रयास ही करते है यही मानव जीवन है भले कोशी ने 1954 के बाद 2008 में कोशी डायन का रूप लेकर सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, पूर्णिया, अररिया में जिस तरह की विभीषिका देखी वह दशकों में एक बार देखने को मिलती है। 

यह विभीषिका इतनी बड़ी थी कि तत्कालीन केंद्र की सरकार को इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित करना पड़ा। राष्ट्रीय आपदा घोषित करने से ऐसी विभीषिकाओं में सब कुछ खो चुके लोगों को कितना फायदा पहुँचता है यह तो समय ही बताता है लेकिन ऐसी आपदाओं से लोग खुद ही किसी तरह निकलते है चाहे तमिलनाडु का सुनामी झेल चुके लोग या उत्तराखंड की त्रासदी झेल चुके लोग हो आखिरकार उन्हें खुद ही अपने लिए रास्ता निकालना होता है ऐसी त्रासदियों से बाहर निकलने का। सरकारी योजना कुछ जगह पहुंचती तो है लेकिन अधिकतर जगह यह भ्रस्टाचार की भेंट चढ़ती हुई दिखाई पड़ती है। सुपौल में लोगों ने हेल्पेज इंडिया की मदद से बुजुर्गो ने न सिर्फ अपने आप को खड़ा किया बल्कि ऐसे कई सामाजिक बुराइयों से बाहर निकलकर समाज में एक उदाहरण पेश किया जो यह साबित करता है कि बुजुर्ग चाहे किसी उम्र के हो उन्हें अगर थोड़ी सी भी सहायता मिले तो वे पहाड़ भी चढ़ सकते है। यही सुपौल जिले के इन बुजुर्गो ने कर दिखाया। जब आदमी के पास खोने को कुछ नही रहता है तब वे ज्यादा जोश के साथ अपनी ही गलतियों के साथ सीखते हुए आगे बढ़ते है यही इन बुजुर्गो ने किया। जब इन्हें लगा कि अब इनका साथ सबने छोड़ दिया है यहाँ तक कि उनके परिवार वाले भी इन्हें बोझ समझने लगे तो इसी अंधेरे में हेल्पेज इंडिया इनको एक तरह से रोशनी दिखाने की कोशिश करती है। लेकिन जब आप ऐसे सामाजिक कार्य को हाथ मे लेते है यह हमेशा से होता आया है कि समाज के वे लोग जिनके स्वार्थो पर ऐसे कामों से कुठाराघात होता है वे आपका हर संभव विरोध करते है। भले ही लेखक इस किताब के माध्यम से कुछ चीजों पर पर्देदारी की हो लेकिन मैं भी संयोगवश उसी कोशी की विभीषिका देखने वालों में से हूँ जो हर साल इस मंजर को देखता है चाहे कम स्तर पर हो या बृहद स्तर पर। 

इस कहानी में हर किरदार अलग है अलग पृष्ठभूमि से आता है अलग अलग जाति समुदाय या अलग अलग धर्मो के लोग एक मंच पर आकर इन बुजुर्गो ने न सिर्फ अपनी जमीन तैयार की बल्कि इस इलाके के युवाओं में जो दिल्ली पंजाब जाकर काम करने की रफ्तार थी उसपर भी रोक लगाया। इससे मजदूरों का पलायन रुका, साथ में परिवार के लोगों ने इन बुजुर्गों को एक एसेट की तरह देखना शुरू किया। और बुजुर्गों ने भी इतना होने के बाद भी अपने बच्चों को वापस मुख्यधारा में लाने का हर संभव प्रयास किया चाहे वह बुजुर्गों का मान सम्मान करना हो या बुजुर्गों द्वारा अपने बच्चों के लिए रोजगार के द्वार खोलना, दोनों तरफ से एक दूसरे को समझने की भरपूर कोशिश हुई और आज इस ग्राम सहायता समूह ने अपना एक रजिस्टर्ड संस्था बनाया है जिसमें सुपौल, मधुबनी और दरभंगा जिले के लगभग 6000 बुजुर्ग इससे जुड़कर 6000 परिवारों की जिंदगी में बदलाव लाने का हरसंभव प्रयास हो रहा है। आज यह ग्रुप इतना सक्षम है कि किसी भी तरह की प्राकृतिक विपत्ति आने पर ये लोग अपना कर्ज चुकाने के नाम पर अनाज , पैसा और पशुओं के लिए भी चारे का इंतजाम करते है। क्योंकि इन्हें लगता है जब इनपर विपत्ति आयी थी तो देशभर के लोगों ने इनकी मदद की थी और यह इनपर एक कर्ज है जो उतार तो नही सकते है लेकिन उसके हिस्से को कम अवश्य करते है यही वजह है जब उत्तराखंड में त्रासदी आयी थी तो इस ग्रुप ने 5 लाख 40 हजार रुपैया यह कहकर दिया कि इसे दान ना समझा जाए यह उनपर कर्ज है जो वे इस मदद के साथ इसको कम करना चाहते है। ऐसा ही जब 2019 में मधुबनी में बाढ़ आई थी तो इस ग्रुप ने 2500 परिवारों के लिए सूखा राशन और 25 क्विंटल पशुओं के लिए चारा भी भेजा था। आप कल्पना कीजिये यह ग्रुप ऐसे उम्र के लोगों की है जिसे उम्र के इस पड़ाव में रिटायर्ड मान लिया जाता है और वे आज 6000 परिवारों के लिए एक मिसाल बन रहे है जो उम्र के आखिरी पड़ाव में जीवन जीने के तरीके को समझने का प्रयास कर रहे है साथ में कई लोगों के जीवन मे बदलाव भी ला रहे है। लेखक Pushya Mitra जी का धन्यवाद इतनी बढ़िया और प्रेरणादायक कहानी समाज के बीच में लाने के लिए। 

धन्यवाद।

शशि धर कुमार

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