Monday 6 December 2021

Kaithi - A Introduction

कैथी एक लिपि है जिसको मगही, भोजपुरी और मैथिलि में भी लिखी जा सकती है। कैथी एक ऐसी लिपि है जो चन्द्रगुप्त काल से अंग्रेज के जमाने तक एक लोकप्रिय लिपि रही। समय के साथ इसको अलग अलग क्षेत्रीय भाषाओ में लिखने के तरीके ईजाद किये गए। चूँकि इसकी लोकप्रियता बिहार में ज्यादा रही तो बिहार के क्षेत्रीय भाषाओ में अलग अलग भाषाओ के विद्वान् साहित्यकारों ने इसको अपने आपने तौर पर लिखा और बताया भी।  लेकिन बिहार के भाषा के सन्दर्भ में जो एक किताब काफी महत्वपूर्ण हो जाती है वह है ग्रीयरसन की किताब जिसमे बिहार के सभी भाषाओ और लिपियों को उसमे वैज्ञानिक तरीके से समझने का प्रयास किया गया और मेरे पास जो जानकारी है उसके हिसाब से इस किताब को सबसे ज्यादा प्रमाणिक माना गया है। आज भी कई विद्वान जब किसी भी भाषा की बात करते है उनके किताब की चर्चा जरूर होती है चाहे भारत के किसी भी क्षेत्र की कोई भी लिपि हो। 


जैसा मैंने कहा कैथी को आप किसी भी क्षेत्रीय भाषा में लिख सकते है। क्योंकि एक समय यह बिहार की प्रशासनिक भाषा हुआ करते थे तो स्वाभाविक है यह पुरे बिहार में अलग क्षेत्र में अलग अलग भाषाओ में स्थानीय तौर पर लिख सकते थे। और इसका काफी उपयोग हुआ भी जिसकी वजह से कई ऐसे साहित्य आज भी बिहार के संग्रहालयों में इसी कैथी लिपि में लिपिबद्ध मिल जाएगी।  सवाल उठता है की इतनी समृद्ध लिपि जो पुरे बिहार में अलग अलग क्षेत्रीय भाषाओ में लिखी जाने वाली लिपि अचानक से १०० साल में ही लगभग लुप्तप्राय सी क्यों हो गयी। 


अगर आप इसको समझने का प्रयास करेंगे तो आपको खुद बखुद समझ आ जायेगा। कैथी लिपि इतनी लोकप्रिय थी जैसे यह जनमानस की लिपि बन गयी थी लेकिन अंग्रेजो ने इसे क्रमबद्ध कर इसको समाप्त करने का प्रयास किया। अगर किसी भी जगह पर ज्यादा समय राज करना हो तो उस राज्य की संस्कृति और भाषा पर प्रहार करो  यही अंग्रेजो ने किया। पहले यहाँ के लोगो को अंग्रेजी सीखने के आग्रह किया ताकि उनका कार्य आसानी से हो सके। दूसरी बात बिहार के सबसे लोकप्रिय लिपि को अपने अंग्रेजी पढ़े लिखे लोगो द्वारा यह भ्रम फैलाया गया की अंग्रेजो से बेहतर कुछ भी नहीं तो लोगों ने तेजी से अंग्रेओ भाषा को अपनाया और कैटी लिपि को हाशिये पर लाते चले गए।  ऐसी ही दुःखद स्थिति कई और भाषाओ के साथ हुआ। 


इसीलिए जब आज हमारे बच्चे अन्य वैश्विक भाषाएँ जैसे अंग्रेजी , स्पेनिश , फ्रेंच आदि सीख रहे है तो उन्हें अपनी पुराणी भाषाओ और लिपियों के बारे में भी बताये और उन्हें इनके साथ जोड़ने के प्रयास करे।  

धन्यवाद!
नोट: सर्वाधिकार सुरक्षित।



Sunday 7 November 2021

Jai Bhim (Movie)


आज भी कई लोग है जिन्हें उनके हिस्से का न्याय या तो नही मिलता है या इतनी देर हो जाती है कि उस न्याय का कोई महत्व नही रह जाता है। जैसा उच्चतम न्यायालय ने भी कहा है न्याय मिलने की देरी तो न्याय नही मिल पाने के बराबर है।


जी आज मैं जय भीम नामक मूवी के बारे में बात कर रहा हूँ जो इस वस्तु स्थिति को भली भांति दर्शाता भी और आपके अंदर के मानवता को भी झकझोरने का प्रयास करता है। अगर आप संवेदनशील है तो यह मूवी आपको अंदर तक झकझोर देगी। हाँ मेरे कई जानने वाले इस मूवी को इसीलिए नही देखेंगे क्योंकि इसका टाइटल उनकी विचारधारा को अच्छा नही लगेगा। यह अलग बात है कि वे उसी भीम के बनाये संविधान की दुहाई देते जरूर मिल जाएंगे। लेकिन मैं यकीन दिलाता हूँ यह मूवी एक मिल का पत्थर साबित होने जा रही है क्योंकि इस मूवी ने हमारी लचर न्याय व्यवस्था जो नीचे से शुरू होकर ऊपर जाती है उसपर करारा प्रहार करती है।

मूवी में निर्देशक की पकड़ लाजवाब दिखाई पड़ती है और पूरी मूवी एक लय में दिखाई पड़ती है कही भी मूवी आपको ना तो ज्यादा धीमा या ज्यादा तेज नजर आएगी। संगनी का किरदार ऐसा किरदार है जो कइयों को प्रेरणा देगी, नायक ने अपने हिस्से का किरदार बखूबी निभाया है ऐसा लगता है वह इसी किरदार के लिए बना हो, लेकिन संगनी का किरदार तो वाकई में हर लिहाज से 5 में से 5 अंक पाने लायक है हर पल वह इतनी सशक्त नजर आयी है कि आप उसके बिना इस मूवी की कल्पना नही कर सकते है और मूवी भी उसके आस पास ही घूमती है। लेकिन मुझे नाम से थोड़ा ताज्जुब हुआ कि ऐसा नाम चुनने के पीछे की वजह क्या हो सकती है। लेकिन इस नाम से कई दर्शक जो उन्हें देखने का सोच रहे होंगे वे नही देखेंगे। यह मूवी अंबेडकर पर नही बल्कि दलितों पर अत्यचार को लेकर है।

खैर आते है मूवी पर मुझे लगता है यह मूवी अबतक की सर्वश्रेष्ठ मूवी में से एक हो सकती है। सिर्फ इसीलिए नही की यह दलितों पर बनी मूवी है बल्कि इसलिए भी क्योंकि यह हमारे न्याय व्यवस्था में बैठे लोगों के चरित्र पर सवाल उठाता है कि हमारा सिस्टम किस कदर भ्रष्ट और सड़ा हुआ नजर आता है जिसमे लगता है सब कुछ, कुछ लोगों के हाथों की कठपुतली मात्र है जिसमें एक गरीब और ईमानदार व्यक्ति के लिए जीने की मुक्कमल और आसान रास्ता भी नही छोड़ता की वह अपने हिस्से का कष्टमय जीवन भी पूरी ईमानदारी या अपने पूरे सम्मान के साथ जी सके। ऐसी कई मूवी आपने देखी होगी लेकिन यह मूवी आपको याद दिलाता है कि एक आम आदमी कितना कमज़ोर है इस भ्रष्ट सिस्टम के आगे उसकी एक नही चलती है जब जैसे चाहे सिस्टम उसको चलने को मजबूर कर देता है लेकिन यह मूवी संगनी के किरदार को देखते हुए एहसास दिलाता है की सिस्टम चाहे कितना भी भ्रष्ट या सड़ा गला हो गया हो लेकिन उसके कोने के एक हिस्से में कुछ ईमानदार लोग है जो आपके साथ हुए अन्याय को लेकर आगे आपके साथ कि लड़ाई लड़ने को तैयार रहता है।

सिस्टम लोगों से मिलकर बना है वह भी इसी समाज का हिस्सा है बस कोशिश होनी चाहिए कि जब भी सिस्टम में कुछ भी गलत होता देखे आप न्यायिक प्रक्रिया का सम्मान रखते हुए उसके साथ चलते हुए अपनी बात हमेशा उठाए यही इस मूवी का मूल उद्देश्य है।

धन्यवाद। जय भीम।

Thursday 28 October 2021

रानी रामपाल या विराट कोहली (भारत पकिस्तान मैच आईसीसी टी20 वर्ल्ड कप)

आईसीसी टी20 वर्ल्ड कप के पहले मैच में भारत का पाकिस्तान से हारना किसी भी भारतीय को पसंद नहीं आया चाहे वे इसको स्वीकारे या इंकार करे या वे खेल भावना की दुहाई देकर इसको भूल जाने की बात कहते हो लेकिन ये उनका दिल ही जानता है वे इस मामले में कितने कमजोर है। मैं यहाँ हार जीत के विश्लेषण पर बात नहीं करना चाहता हूँ मैं बात करना चाहता हूँ जो उसके बाद की कहानी जो हुई वो यह थी की मोहम्मद शमी को उसके प्रदर्शन के लिए ऑनलाइन ट्रोल जिस तरीके किया गया उसपर बात करना चाहता हूँ। हो सकता है कइयों को यह बात सही ना लगे लेकिन जरुरी नहीं की आपको जो सही लगे उसी पर मैं बात करूँगा या करता हूँ। 


एक टीम जिसके कप्तान रानी रामपाल है और वे ओलिंपिक जैसे खेल में प्रतिनिधित्व कर रही थी और दूसरी टीम जिसके कप्तान विराट कोहली है अभी आईसीसी टी20 वर्ल्ड कप में अपना अभियान जारी रखे हुए है हारी दोनों की टीम थी लेकिन दोनों खेल में एक बात सामान थी वह थी पुरे खेल में एक व्यक्ति को उस हार के लिए जिम्मेदार ठहराना। पहले खेल में एक मैच में वंदना कटारिया ने हैट्रिक गोल किया फिर भी भारीतय टीम हार गयी उसके वावजूद भी उसके घर के बाहर जातिसूचक शब्दों के साथ हो हल्ला किया गया। आप इस खबर को यहाँ पढ़ सकते है http://toi.in/EChFza/a31gj दूसरे खेल में एक खिलाडी को छोड़कर बांकी सभी को फेल कहा जाएगा उसके बाद भी एक खिलाडी को ही सबसे ज्यादा ऑनलाइन ट्रोल किया गया। मेरे यह लिखने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है लेकिन यहाँ जो एक बात सबसे बड़ी है जो हम सभी भूल रहे है वह है विराट कोहली का शमी के साथ खड़े नहीं होने का सन्देश देना जैसे रानी रामपाल ने किया था। 


रानी रामपाल द्वारा दिए गए वीडियो स्टेटमेंट को आप यहाँ सुन सकते है। https://twitter.com/TheQuint/status/1423921000631078917 यही दोनों कप्तान के कर्तव्यों में अंतर नजर आता है आप कप्तान होते है आप सिर्फ अपने खिलाड़ियों को खेल में मैदान में ही समर्थन नहीं देते है बल्कि आप उन्हें अगर खेल से जुडी किसी भी बात पर बाहर भी समर्थन की आवश्यकता होती है तो आप देते है।  

मुझे व्यक्तिगत तौर पर ना तो विराट कोहली से कुछ लेना देना नहीं है ना ही किसी और क्रिकेटर से या बॉलीवूड से या राजनीती से या न्यूज़ चैनल से क्योंकि मेरे हिसाब से सबसे ज्यादा अगर भारत का बेडा गर्क किसी ने किया है तो इन्ही लोगो ने किया है। ये पहले आपकी भावनाओ से खेलेंगे फिर कहेंगे की अगर मेरे किसी कार्य/बात से किसी  दिल दुखा है हम उन सभी से मांफी मांगते है। कभी सोचा है शायद हम यह सोचते भी नहीं। आप पूछेंगे की तो क्या मैं किसी का फैन नहीं हूँ जी मैं किसी का फैन नहीं मैं खेल का प्रशंसक हूँ हर उस खेल में जिसमे भारत का मस्तक ऊंचा करने वाले लोग खेलते है मैं क्रिकेट का फैन हूँ ना की क्रिकटर का, मैं हॉकी का फैन हूँ ना की किसी खिलाडी का और हाँ अगर कोई व्यक्तिगत खेल हो तो बात अलग है उसमे एक ही व्यक्ति खेलता है और उसके आप फैन हो सकते है और व्यक्तिगत खेल के वर्ग में है मेरे आदर्श। इसका मतलब यह नहीं की आँख बंद कर उनकी हर बात सुनूंगा।

Saturday 19 June 2021

We miss you Milkha Singh!!!!!

मिलखा सिंह (उड़न सिख़) का जन्म २० नवंबर १९२९ को गोविंदपुर जो अब पाकिस्तान में है जन्मे एक भारतीय धावक जिन्होंने रोम के १९६० ग्रीष्म ओलंपिक और टोक्यो के १९६४ ग्रीष्म ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। वे भारत के सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ एथलीट्स में से एक थे। भारत के विभाजन के बाद की अफ़रा तफ़री में मिलखा सिंह ने अपने माँ-बाप को खो दिया। अंततः वे शरणार्थी बन के ट्रेन से पाकिस्तान से भारत आए। और लगातार वे अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते रहे जबतक उन्हें पहचान नहीं मिल गयी।  


यूं तो मिल्खा सिंह जी ने भारत के लिए कई पदक जीते, लेकिन रोम ओलंपिक में उनके पदक से चूकने की कहानी लोगों को आज भी याद है।


कार्डिफ़, वेल्स में १९५८ के कॉमनवेल्थ खेलों में स्वर्ण जीतने के बाद उन्हें लोग जानने लगे। इसी समय जब उन्हें पाकिस्तान में दौड़ने का न्यौता मिला, लेकिन दौड़ में मिलखा सिंह ने अपने प्रतिद्वन्द्वियों को ध्वस्त कर दिया। अधिकांश दर्शक इतने प्रभावित हुए कि पूरी तरह बुर्कानशीन औरतों ने भी इस महान धावक को गुज़रते देखने के लिए अपने नक़ाब उतार लिए थे। इस जीत के बाद पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अयूब खान ने उन्हें 'फ्लाइंग सिख' की उपाधि से नवाजा।


भारत सरकार ने १९५९ में उन्हें पद्म श्री की उपाधि से भी सम्मानित किया। उनका पद्य श्री के आगे का भारतीय नागरिक सम्मान नहीं मिलना यह दर्शाता है की आज भी सरकार हमारे एकल खेल के लिए कितनी गंभीर है। 


कभी जब उनसे ८० दौड़ों में से ७७ में मिले अंतरराष्ट्रीय पदकों के बारे में पूछा जाता था तो वे कहते थे, "ये सब दिखाने की चीजें नहीं हैं, मैं जिन अनुभवों से गुजरा हूँ उन्हें देखते हुए वे मुझे अब भारत रत्न भी दे दें तो मेरे लिए उसका कोई महत्व नहीं है।"


आप हमेशा हमारे दिल में रहेंगे  चाहे आप कही भी रहे पूरा भारत और भारतीय आपके साथ हमेशा अपने दिल में रखेगा। मिल्खा सिंह एक ऐसी शख्सियत थे जिनके बारे में शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता है वे एक संस्थान है और आगे भी भारतीय धावक समुदाय में उनकी पहचान एक पितामह की ही रहेगी। हमने अच्छे अच्छे एथलीट पैदा किये लेकिन बहुत कम उस श्रेणी में आते है जिस श्रेणी के मिल्खा सिंह जी रहे। 


उनकी आखिरी ख्वाहिश है कि जो गोल्ड मेडल उनसे रोम ओलंपिक में गिर गया था, वह मेडल कोई भारतीय जीते। वे दुनिया छोड़ने से पहले भारत को ओलंपिक में एथलेटिक्स में गोल्ड मेडल जीतते देखना चाहते थे। लेकिन आज भी हम या हमारी सरकार कितनी गंभीर है इसी से पता चलता है की आज भी टोकियो ओलंपिक्स जाने वालो के लिस्ट में व्यक्तिगत खेलों के धावक ग्रुप में हमारे खिलाड़ी २० किमी और ३००० मीटर में ही भाग ले पाएंगे।  


धन्यवाद आपका! 

भारत और भारतीय सदैव आपके आभारी रहेंगे। 

Saturday 12 June 2021

महारानी या बिहार के 90 के दशक की सियासत

मैं स्वाभाविक तौर पर किसी फिल्म या वेब सीरीज के बारे में कोई भी टिपण्णी करना पसंद नहीं करता हूँ लेकिन इस वेब सीरीज (महारानी) को देखने के बाद आप चुप भी नहीं बैठ सकते है। 

अगर आप 90 के दशक के है और बिहार में पैदा हुए है तो काफी दिलचस्प हो जाता है की आप उससे पीछा छुड़ा पाए। अगर आपके मन में उस दशक के बारे में किसी भी प्रकार का प्रश्न है तो यह सीरीज आपको अवश्य देखनी चाहिए यह आपके दिमाग में चल रहे कई प्रश्नों का उत्तर दे सकती है बशर्ते आपने उस दशक के बारे में पहले से अपनी कोई राय ना बना ली हो। शुरुआत के दो एपिसोड में ही आपको पता चल जाता है बिहार में जो आज की राजनैतिक पृष्ठभूमि है वो ऐसा क्यों है। इसमें आपको सत्ता के लिए एक वर्ग का संघर्ष और दूसरे वर्ग का सत्ता का अपने हाथों से फिसलने ना देने की कवायद। आखिरी एपिसोड में भी आपको कई ऐसे खुलासे देखने को मिलेंगे जो आपने शायद ही सुना हो। कई भारतीय मीडिया ने इसे 3.5/5 स्टार दिए है लेकिन IMDB ने 7.5/10 स्टार दिए है लेकिन मेरे हिसाब से 4.5/5 स्टार पाने के लायक है क्योंकि सीरीज देखने के बाद आपको लगेगा की बिहार की पृष्ठभूमि और किरदार के डायलॉग पर कितनी मेहनत की गयी है। एक एक डायलॉग आपको उस समय के करीब ले जायेगा। निर्देशक ने जिस तरह से घटनाओ को जोड़ने की कोशिश की है वो बिहार की पूरी पृष्ठभूमि कहता है। 

बिहार को राजनीति की पाठशाला कहा जाता है। जातीय समीकरण समझने हो, राजनीतिक पैंतरे सीखने हों, या देश के असल मुद्दों पर ज्ञान चाहिए हो, तो बस बिहार चले जाइए, आपके ज्ञानचक्षु ना खुल जाए तो बेकार है। वैसे भी बिहार की राजनीति के कई अध्याय हैं जिन्होंने ना सिर्फ बिहार को बदल कर रख दिया बल्कि देश की राजनीति पर भी अपना गहरा असर छोड़ा। 

“महारानी” 1990 के दशक के बिहार में स्थापित एक राजनीती और राजनैतिक घटनाक्रम को लेकर बुनी गयी है ऐसी कहानी है जो अपने जातिगत गणित, पारंपरिक क्षत्रपों और उभरती आवाज के साथ शुरू होती है। भले निर्देशक ने डिस्क्लेमर में यह कहा हो की यह एक काल्पनिक कथा है लेकिन पहले एपिसोड से आपको पता चल जाता है की कहानी किसके बारे में है। 

कई सालों बाद बिहार में पिछड़ी जाति का कोई मुख्यमंत्री बना है। नाम है भीमा भारती और काम-पिछड़ों को बिहार की राजनीति में सबसे ऊपर ले आना, उन्हें ऊंची जाति वालों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना सिखाना। लेकिन राजनीति का ही खेल है कि सत्ता संभालते ही भीमा भारती पर जानलेवा हमला हो जाता है। गोली मारी जाती है, किसने मारी पता नहीं चलता। संकट काफी बड़ा है, सरकार अभी-अभी बनी है, राजा ही घायल हो गया है, ऐसे में बिहार जैसे बड़े राज्य की जिम्मेदारी कौन संभालेगा। पार्टी में नेता कई हैं, सीएम बनने के सपने भी भुनाए जा रहे हैं, लेकिन भीमा भारती का दिमाग घोड़े से भी तेज चलता है। अपनी ही पार्टी के बड़े नेताओं को छोड़ पत्नी रानी भारती को सीएम बनवा देते हैं। फंडा सिंपल है, कागज पर मुख्यमंत्री रानी रहेंगी, लेकिन सत्ता भीमा ही चलाएंगे। क्या एक अशिक्षित महिला रानी भारती जो एक गृहिणी हैं और बिहार के मुख्यमंत्री भीमा की पत्नी हैं इन सब राजनैतिक दावपेंच से अपने आपको बचा पाती है। 

भीमा भारती इतना बड़ा दांव तो चल दिया, लेकिन पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को ही नाराज कर गए। पार्टी के अंदर ही फूट पड़ गई और कई नेता अपने ही राजा को सबक सिखाने के चक्कर में पड़ गए। लेकिन बिहार की पहली महिला सीएम बनीं रानी भारती ने भी तेवर दिखाने शुरू किए। अपने ही 'साहेब' (बिहार में कई पत्नियां अपने पति को साहेब कहती हैं) के खिलाफ जाने की हिम्मत दिखाने लगीं। कभी मंत्रियों का मंत्रालय बदल दिया, किसी को बर्खास्त कर दिया, इनक्वायरी बैठा दी। सबकुछ होता रहा और भीमा भारती एक घायल राजा की तरह बस देखते रहे। यही है महारानी की कहानी जिसमें राजनीति है, राजनीतिक दांव-पेंच हैं और सत्ता में बने रहने की हर मुमकिन कोशिश।

डायलॉग जो पसंद आ सकते है 
  • हुमा कुरैशी का एक डायलॉग है- "हमसे 50 लीटर दूध दूहा लो, 500 गोबर का गोइठा बना लो पर एक दिन में इतना फाइल पर अंगूठा लगाना, ना.. हमसे ना हो पाएगा।" 
  • जूनियर पुलिस अफ़सर पिछड़ी जाति के अपने सीनियर पुलिस अधिकारी से कहता है- सरकार भले आप लोगों का है, सिस्टम हमारे हाथ में है। 
  • सीएम आवास में घुसते हुए नेता कहता है- यह सीएम हाउस है या तबेला? 
  • भीमा का सहयोगी मिश्रा उनके प्रतिद्वंद्वियों को 'आपदा में अवसर' तलाशने का ताना मारता है। 
कहां है कमी 
‘महारानी’ देखने के बाद कई जगह ऐसा महसूस होता है कि इसके लेखन में कमी रह गई। रानी की जिंदगी में अचानक तेजी से उतार-चढ़ाव आते हैं जो काफी तेज लगते है। एपिसोड 4 में अचानक से एक 'घोटाला' दिखाया जाता है। पांचवें एपिसोड में एक 'बाबा' आ जा जाता है। हर एपिसोड अपने आप में एक अलग थलग दीखता है।

Tuesday 11 May 2021

प्रकृति का दोहन ही सारी समस्याओं की जड़ है।

लुटियंस दिल्ली का नाम तो सुना ही होगा कभी ना कभी। यह शब्द 2014 के बाद से काफी प्रचलित हुआ है मीडिया और उससे जुड़ी गलियारों के बीच और उसी लुटियंस दिल्ली को लेकर कई मीडिया हाउस में डिबेट के नाम पर चीख चिल्लाहट भी शुरू हुई। उसी लुटियंस दिल्ली में एक जगह आता है रायसीना हिल्स क्षेत्र जिसपर आज का राष्ट्रपति भवन बसा है उसी राष्ट्रपति भवन के मुख्य द्वार जो इंडिया गेट की ओर खुलती है उसी लुटियंस दिल्ली में पुराने जो सदियों से रच बस गए जामुन के पेड़ थे वे अब उजाड़ दिए गए है या यूँ कहे उसे विस्थापित कर दिया गया। क्योंकि एक महान संरचना खड़ी होनी है उसी जगह। 

लगभग दो दशक दिल्ली में गुजारने के बाद उस जगह से कई व्यक्तिगत यादें जुड़ी हुई है। उस लॉन से जुड़ी कई यादें करोड़ो लोगों के साथ इस प्रकार जुड़ी हुई है जिसका वर्णन शब्दों में तो मुश्किल है। कई यादें जो राजपथ को राजपथ बनाती थी उसके दोनों तरफ के खूबसूरत हरी भरी घासों से आच्छादित जमीन उसपर जामुन के पुराने पेड़ साथ में बोटिंग की सुविधा से युक्त मानव निर्मित छोटी से झील इन सबको मिलाकर इस पूरे जगह को अगर प्रकृति प्रेमी की नजर से देखे तो सबसे सुंदर कैनवास किसी भी फ़ोटो को लेने के लिए। रोज लाखों लोग आते है उस इंडिया गेट पर और सैकड़ो लोग वहाँ पर लोगों की सबसे सुंदर तस्वीर खींचकर अपना गुजर बसर करते है। लेकिन पिछले 1 साल से जब से यह मानव निर्मित वायरस दुनिया के छत पर धुंध की तरह छाया है तबसे उसी इंडिया गेट के गलियारे में लोगों की चहल पहल लगभग बंद सी हो गयी है। और अब उस कैनवास को नया रूप देने के लिए उसके खूबसूरत लैंप पोस्ट जो आपको अंग्रेजों के जमाने की याद दिलाते है साथ में खूबसूरत हरी भरी लॉन और उसके साथ जामुन के पुराने पेड़ की छाँव की शीतलता का एहसास आपको जेठ की दुपहरी में ही पता चल सकता है, सबको हटा दिया गया है।

मेरे लिए ऐसे चित्र को देखना काफी दुःखद तो होता है मानसिक तौर पर भी चोट पहुँचाने का काम करता है। लेकिन दर्द यह है कि कहे तो किससे और सुनेगा कौन। वैसे भी अगर आप किसी भी राजनैतिक पार्टी के अंध समर्थक नही होते है तबतक आपकी बातों का कोई मतलब नही रह जाता है कि आप क्या सोचते है। लेकिन मन में सवाल हो तो उसे सामने ना रखना भी जायज नही होता तो अपनी बात रखनी ही चाहिए। वैसे भी दिल्ली अब पत्थरों का जंगल सा दिखता है जिधर देखिए तरक्की की फ्लाईओवर दिखेगी। लेकिन 15 साल पहले किसी भी सड़क पर जितनी ट्रैफिक थी आज भी उतनी ही है उसमें कोई बदलाव नही हुआ। पहले जिस गली में 10 कारें दिखती थी आज वहाँ दोनों तरफ 100 दिख जाएंगी अगर आपको घर जाना हो तो बामुश्किल आप निकल पाएंगे। उसके साथ साथ मेट्रो की पार्किंग भी फुल रहने लग गयी, वो अलग ही कहानी है। हमने कारें ले ली रखने को जगह नही, सरकारों को दोष दे रहे कि सरकार प्रदूषण के बारे में सोच नही रही है लेकिन हम अपनी आदतों पर लगाम लगाने की बजाय उसे और बढ़ाये जा रहे है। हम अपने घरों में AC लगाने से बाज नही आ रहे और कह रहे है गर्मी बढ़ रही है। आज जो मानव निर्मित वायरस दुनिया पर छाया हुआ है यह भी कही ना कही प्रकृति के अंधाधुंध दोहन का ही नतीजा है जो हमारा शरीर कमजोर पड़ चुका है और हम इसको सहन नही कर पा रहे है।

पूरी बात का लब्बोलुआब यह है कि हम जिस तरह से प्रकृति का दोहन करने में लगे हुए है उससे हम अपने वजूद को सवालों के घेरे में डाल रहे है और हम अपने वजूद के साथ ही खेल रहे है। हम सबको प्रकृति को उसका हक लौटाने के बारे में सबको सोचना पड़ेगा। हर एक व्यक्ति की जिम्मेदारी बनती है सभी अपने अपने हिस्से की जिम्मेदारी पर्यावरण के प्रति निभाये। जिस तरीके से नदियाँ सुख रही है, वृक्ष काटे जा रहे है, सरकारे उनके बारे में सोच नही पा रही है कि भविष्य क्या होगा किसी को नही पता। और हम सरकार किसकी बनेगी उसपर चर्चा करने पर लगे हुए है। सरकारें और राजनेताओं को यह विषय out of context लगता है। हम सबको भूटान के बारे में इससे सीख लेने की आवश्यकता है दुनिया का सबसे छोटे देशों में उसकी गिनती होती है वहाँ का संविधान कहता है कि वहाँ पर कुछ भी हो जाये 70 प्रतिशत से हरियाली कम नही हो सकती है।

धन्यवाद।

शशि धर कुमार

Wednesday 14 April 2021

Bhim Rao Ambedkar


भारत रत्न भीमराव रामजी आंबेडकर (१४ अप्रैल, १८९१ – ६ दिसंबर, १९५६) बाबासाहब के नाम से लोकप्रिय, भारतीय विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ और समाजसुधारक के नाम से मशहूर बाबासाहेब की जयंती की हार्दिक बधाई!

आशा करते है बाबा साहेब द्वारा कृत संविधान हम सबको एक निश्चित और सामान अधिकार दिलाने में अभी तक कामयाब रहा होगा। मैं यहाँ उन बातो को बताना नहीं चाहता हूँ की किनकी वजह से यह नहीं मिला और किनकी वजह से यह मिला। लेकिन संविधान ने हमे बहुत कुछ ऐसा दिया है जिनसे हम अपनी ज़िन्दगी कैसे बेहतर कर सके, हम अपने अधिकारो की रक्षा कैसे करे, हमारे कर्तव्य क्या क्या है इत्यादि जो बाबा साहेब ने 70 साल पहले सोचा आज भी वह उतना ही अक्षरश सत्य है जितना 40 साल या 70 साल पहले। तो आज हमे इस बात को जानने में ज्यादा विश्वास दिखाना चाहिए की एक व्यक्ति की वजह से एक आम आदमी को इतना अच्छा संविधान मिला है, यह उनकी दूरदर्शिता का कमाल है।

आपको ध्यान रखना है की कौन क्षद्म रूप से आपको बरगलाने की कोशिश में लगा हुआ है ऐसे लोगो को बेनकाब करने की जरुरत है। क्योंकि कोई भी क्षद्म रूप किसी भी समाज के लिए कही सही नहीं होता है। 

बाबा साहेब के बारे में जो आज़ादी से लेकर आजतक चित्र प्रस्तुत किया गया उसमे सिर्फ एक संविधान निर्माता के रूप में प्रस्तुत किया गया, लेकिन अगर कोई उनके प्रोफाइल को चेक करेगा तो पता चलेगा जिस व्यक्ति को राष्ट्र निर्माता के रूप में पदस्थापित करना था वह एक संविधान निर्माता के रूप में या दलित राजनीतिज्ञ के रूप में रह गए।

पंडित जी ने जब अंतरिम सरकार बनाने के लिए 32 लोगो का चयन किया था तो उसमे अम्बेडकर साहेब नहीं थे लेकिन जैसे ही उस लिस्ट को लेकर गांधीजी के पास पहुंचे तो गांधीजी ने पूछा की अम्बेडकर का नाम क्यों नहीं है तो पंडित जी और पटेल जी बगले झाँकने लगे तो गांधीजी ने एक बात कही "नेहरु एक बात बताओ की अम्बेडकर से बढ़कर कोई आज की तारीख में कानून को जानता हो, तो बताओ"।

उन्होंने दलित बौद्ध आंदोलन को प्रेरित किया और दलितों के खिलाफ सामाजिक भेद भाव के विरुद्ध अभियान चलाया। श्रमिकों और महिलाओं के अधिकारों का समर्थन किया। वे स्वतंत्र भारत के प्रथम कानून मंत्री एवं भारतीय संविधान के प्रमुख वास्तुकार थे। उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स दोनों ही विश्वविद्यालयों से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने विधि, अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान के शोध कार्य में ख्याति प्राप्त की। जीवन के प्रारम्भिक करियर में वह अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे एवम वकालत की। बाद का जीवन राजनीतिक गतिविधियों में बीता। 1990 में, उन्हें भारत रत्न, भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से मरणोपरांत सम्मानित किया गया था।

शिक्षित बनो ! संगठित रहो! और संघर्ष करो!। यह सिर्फ एक नारा नहीं है अगर गौर करे तो यह एक ऐसी लाइन है जिसमे उपेक्षित समाज के जिंदगी को लिखा गया है लेकिन यहाँ ध्यान रखने वाली बात यह है की यह लाइन कही से से आगे पीछे ना होने पाए यह जैसे है वैसे ही अपनी जिंदगी में सार्थक करने का प्रयास करना चाहिए कहने का मतलब है की अगर पहली लाइन शिक्षित बनो लिखा है तो पहले शिक्षित बनिए दूसरी लाइन संगठित रहो है तो पहले आपको शिक्षित होना है फिर संगठित होना अगर शिक्षित होंगे तभी बिना किसी स्वार्थ के संगठित रह पायेंगे अगर शिक्षित ही नहीं बनेंगे तो संगठित होने का मतलब नहीं समझ पायेंगे। आखिर में तीसरी लाइन संघर्ष करो लिखा है तो पहले शिक्षित बनिए फिर संगठित रहिये फिर आप संघर्ष कर पाएंगे क्योंकी अगर आप शिक्षित नहीं होंगे तो संगठित नहीं हो पाएंगे और अगर बिना शिक्षित हुए संगठित होकर संघर्ष करेंगे तो आपको संघर्ष करने के बाद करना क्या है उसका मतलब नहीं समझ आएगा। तो लाइन में कही भी कोई बदलाव नहीं होना चाहिए अगर आप इसको उल्टा और अगर स्थान बदलने की कोशिश करेंगे तो भी उपेक्षित समाज का उत्थान संभव नहीं है जो लाइन है जैसे है वैसे ही अपने जीवन में ढालने का प्रयास करे तभी अगर आप उपेक्षित है या उस समाज से आता है तभी आप अपना या अपने समाज का भला कर पाएंगे।

शिक्षा ही एक मात्र उपाय है उत्थान का, उसके महत्त्व को समझिये और सबको समझाइए।

अंत में उनका एक वाक्य है जो सभी को पढ़ना चाहिए "मंदिर जाने से आपका कल्याण होगा ही, यह नही कहा जा सकता। लेकिन राजनीतिक अधिकारों का उपयोग जीवन में सुख-सुविधाओं की प्राप्ति के लिए करना चाहिए।" - डॉ अम्बेडकर, 28 सितंबर 1932 वर्ली, मुंबई 

#भीमरावअम्बेडकर #BhimraoAmbedkar #AmbedkarJayanti

धन्यवाद
शशि धर कुमार 

Wednesday 24 March 2021

बिहारियों की हिंदी

हिंदी एक भाषा है परंतु बिहारी कोई भाषा नही। बिहारियों की हिन्दी बोलने के तरीके हमेशा से सवालों के घेरे में रहे है और उसके ख़ूब मज़े भी लिए जाते रहे  हैं कि उनमें हर शब्द पुल्लिंग ही होता है मतलब उनके शब्दों में स्त्रीलिंग का उच्चारण नही होता। इसीलिए उसके शब्दो मे 'स' ही है, 'ड़' नहीं है, 'ण' का उच्चारण नहीं आता। लोग जिस बिहारी भाषा को हिन्दी समझते हैं उनसे पूछे कि आखिर हिन्दी भाषा क्या है? सभी क्षेत्रीय भाषाओं के साथ बोली जाने वाली भाषा या क्या आज शुद्ध हिंदी बोली जाती है या कुछ और।

क्या बंगाली के 'स' को 'श' कहने पर भी हिन्दी का उच्चारण उपयुक्त हिंदी का उच्चारण होता है या उसमें भी दोष होता है? या बंगाली में वही उच्चारण है? या फिर बंगाली भाषा में वही उच्चारण होता है? या बंगाली में ऐसा कोई दोष नहीं होता है। 

ये बिहार की अपनी हिंदी है जिसका अपना व्याकरण है जो कही लिखा तो नही या जिसमें लिंग का लोप हो। क्या अंग्रेज़ी वालों को किसी ने पूछा कि 'आप' और 'तुम, दोनों के लिए ही सिर्फ 'यू' ही क्यों होता है? स्पेनिश सुनकर कभी किसी ने कहा कि ये सही फ़्रेंच नहीं है या फ्रेंच सुनकर कहा हो कि यह सही स्पेनिश नही।

बिहार के लोग जिस भाषा का प्रयोग बिहार में करते हैं उसमें 'श' और 'ष' के उच्चारण की जगह 'स' बोलते हैं, ड़ को र, ण को न बोलते हैं और जिसमें लिंग का अभाव होता है। ऐसा लोग बहुतायत में बोलते है इसी वजह से ऐसा लगता है की बिहारियों को हिंदी बोलनी नहीं आती है। 

लेखनी में अगर किसी प्रकार के संवाद लिखे जाएँगे तो उसे परिष्कृत करके सुधारने से आप पात्र की मौलिकता के साथ खेल रहे होंगे। अगर पात्र बिहार का है तो उसकी भाषा से वो बिहारी लगना चाहिए वरना वो तो किसी दूर ग्रह का प्राणी मात्र लगेगा जबकि कथानक आपका बिहार की पृष्ठभूमि है। जैसे रेणु जी कथानक के पात्रों का संवाद आप सीमांचल से बाहर भी नही ले जा पाएंगे अगर ले गए तो कथा की खूशबू ही समाप्त होती हुई दिखेगी।

कहने को तो फिर दिल्ली, राजस्थान, बंगाल गुजरात, महाराष्ट्र या उत्तर पूर्व के राज्यों की हिन्दी भी गलत कही जा सकती है। जैसा कि कहा जाता है कि गरीब के कान का सोना भी पीतल कह दिया जाता है। बिहार के लोग जब 'हिन्दी' (जिसको ज्यादातर लोग हिंदी मानते है) भाषा बोलते हैं तो वो दरअसल अपनी क्षेत्रीय (भोजपुरी, मगही, मैथिली, अंगिका, ठेठी आदि) के शब्दों को हिन्दी में मिश्रण के साथ बोलते हैं।

ये एक अलग भाषा है, इसकी सुंदरता इसकी तथाकथित अशुद्धता में ही है जिससे आपको तुरंत यह ज्ञान हो जाता है कि एक बिहारी अपनी बात कह रहा है। कल्पना कीजिये अगर बिहारियों ने भी अक्षरशः वही बोलना शुरू कर दिया तो क्या आप पहचान पाएंगे कि कौन बोल रहा है। मुझे लगता है इसे अशुद्ध हिन्दी कहना मूर्खता है।

धन्यवाद।

Monday 8 March 2021

महिला सशक्तिकरण-महिला दिवस पर विशेष

महिला सशक्तिकरण का मतलब है वह सब अधिकार सामान रूप से महिलाओं के लिए भी है जो समाज में पुरुषों को मिला है। अब सवाल उठता है इसका मतलब यह हुआ की समाज में पुरुष जो कर सकते है उसका सामान अधिकारी महिला को भी माना गया है संविधान में। यहाँ तक की पुराणों और ग्रंथो में भी महिलाओं का स्थान ऊपर है पुरुषों से। 

लेकिन समाज की क्या परिभाषा है महिलाओं के बारे में यह जानना आवश्यक है और उसको समझना जरूरी है। हमारे समाज या किसी भी समाज में भारत के सन्दर्भ में महिलाओं की स्थिति काफी दयनीय है जिसको आप कह सकते है वे सिर्फ घर सँभालने तक सिमित रह गयी है। ऐसा नहीं है घर संभालना आसान काम है इसको समझने के लिए मैं समाज के पुरुषों से आग्रह करता हूँ की एक दिन अपने घर की महिलाओं को छुट्टी देकर देखे फिर आपको पता चलेगा कितना मेहनत का काम है। यह उतना ही दुरूह काम है जितना एक मर्द द्वारा बच्चे पैदा करने का समान है। 

लेकिन हमारे समाज के पुरुषों की यह सोच महिलाये सिर्फ घरेलु कामों के लिए है तो यह सोच को बदलने की आवश्यकता है जिसके बिना हमारा समाज आगे नहीं बढ़ सकता है। समाज में स्त्री और पुरुष गाड़ी के दो पहियों की तरह है अगर एक भी इधर से उधर या छोटा बड़ा हुआ गाड़ी डगमगा जायेगी। स्त्री और पुरुष दोनों नदी के दोनों छोड़ो की तरह है जहाँ एक बिना नदी का अस्तित्व खतरे में है। उसी तरह कही ऐसा ना हो हमारा समाज खतरे में ना पड़ जाए। तो वास्तव में जागना होगा हमें और यही सही समय है। 

कैसे महिला सशक्तिकरण हो यह बड़ा सवाल है। जिसके लिए मैं अपनी तरफ से निम्नलिखित बातो पर अपने अपने तौर पर व्यक्तिगत जीवन में छोटी छोटी चीजो के ऊपर काम करे तो एक बेहतर समाज बनकर उभर सकते है:
1) अपने घर में महिलाओं का सम्मान करना सीखें चाहे वह छोटी हो या बड़ी।
2) अपने घर की महिलाओं को किसी भी बड़े निर्णय में उनकी राय जरूर मांगे। जैसे हम किसी भी बड़े पूजा पर अपनी पत्नी को अपनी दाहिनी तरफ बिठाते है। यह बड़ी बात है आपके दाहिनी ओर आपकी पत्नी बैठती है। इसको यही तक सिमित ना रखे।
3) अपने बच्चियों के शिक्षा पर ध्यान दे चाहे बेटा हो या बेटी दोनों को समान शिक्षा का अधिकार दे।
4) आस पास की महिलाओं चाहे वे आपके घर आते हो या नहीं उनको सम्मान दे अगर आप ऐसा करेंगे तो आपके बच्चे भी वही सीखेंगे।
5) अपने समाज में सम्मानित महिलाओं का सम्मान करने से ना चुके चाहे कोई भी मौका हो। जब हमारी बेटी हमसे बड़ा काम करती है तो ढिंढोरा पीटने से बाज़ नहीं आते है तो अगर हमारी पत्नी कुछ बड़ा काम करे तो शर्म कैसी ढिंढोरा पीटने में।
6) अपनी बेटियों को बताये जितना हक़ आपके ऊपर आपके बेटे का है उतना ही हक़ आपकी बेटी का भी। बेटी जब बड़ी होने लगती है तो यह जताना शुरू कर देते है कि तू तो बेटी है शादी होते ही हमें छोड़ चली जायेगी। ऐसा कहना बंद करे इससे वह मानसिक संतप्त में रहती है।
7) बेटियां जो भी करना चाहे उसे करने की आज़ादी दे ना की बंधन में बांधे। अगर उसे बांधना ही है तो अपने संस्कारो की पोटली से बांधे। आप देखेंगे कि वह आपके बेटे से ज्यादा आपके संस्कारो को आगे तक ले जाने में सक्षम है।
8) बेटियों को सर का ताज समझे ना की बोझ, आप जितना जल्दी यह समझेंगे उतनी जल्दी आपको पता चलेगा कि बेटी आपके सब दुखो का निवारण करने में सक्षम है।
9) बेटियों को अपने भविष्य के बारे में सोचने का पूरा हक दे। उन्हें सलाह अवश्य दे, अवश्य अच्छा बुरा बताये लेकिन एक दायरे तक। मैं तो कहूंगा कि यह हमारे बिहारियों में कूट कूट कर भरी हुई है कि हम अपने बच्चों को हम जो चाहते है वही करवाना चाहते है वह नहीं होना चाहिए उन्हें भी अपने बारे में सोचने का मौका दे।
10) हमारी संस्कृति है कि 16 के होते ही बेटी की शादियों की चिंता करने लग जाते है। चिंता करना लाजिमी है करे लेकिन उन्हें कुछ करने का मौका तो दे पहले। 

यह अपने अनुभव के आधार पर जो सामाजिक परिदृश्य देखा है वही बयां किया गया है किन्ही को कुछ लग रहा हो की सुधार की आवश्यकता है तो मैं उनसे अवश्य अपेक्षा करूँगा। #internationalwomensday2021

धन्यवाद।

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