लुटियंस दिल्ली का नाम तो सुना ही होगा कभी ना कभी। यह शब्द 2014 के बाद से काफी प्रचलित हुआ है मीडिया और उससे जुड़ी गलियारों के बीच और उसी लुटियंस दिल्ली को लेकर कई मीडिया हाउस में डिबेट के नाम पर चीख चिल्लाहट भी शुरू हुई। उसी लुटियंस दिल्ली में एक जगह आता है रायसीना हिल्स क्षेत्र जिसपर आज का राष्ट्रपति भवन बसा है उसी राष्ट्रपति भवन के मुख्य द्वार जो इंडिया गेट की ओर खुलती है उसी लुटियंस दिल्ली में पुराने जो सदियों से रच बस गए जामुन के पेड़ थे वे अब उजाड़ दिए गए है या यूँ कहे उसे विस्थापित कर दिया गया। क्योंकि एक महान संरचना खड़ी होनी है उसी जगह।
लगभग दो दशक दिल्ली में गुजारने के बाद उस जगह से कई व्यक्तिगत यादें जुड़ी हुई है। उस लॉन से जुड़ी कई यादें करोड़ो लोगों के साथ इस प्रकार जुड़ी हुई है जिसका वर्णन शब्दों में तो मुश्किल है। कई यादें जो राजपथ को राजपथ बनाती थी उसके दोनों तरफ के खूबसूरत हरी भरी घासों से आच्छादित जमीन उसपर जामुन के पुराने पेड़ साथ में बोटिंग की सुविधा से युक्त मानव निर्मित छोटी से झील इन सबको मिलाकर इस पूरे जगह को अगर प्रकृति प्रेमी की नजर से देखे तो सबसे सुंदर कैनवास किसी भी फ़ोटो को लेने के लिए। रोज लाखों लोग आते है उस इंडिया गेट पर और सैकड़ो लोग वहाँ पर लोगों की सबसे सुंदर तस्वीर खींचकर अपना गुजर बसर करते है। लेकिन पिछले 1 साल से जब से यह मानव निर्मित वायरस दुनिया के छत पर धुंध की तरह छाया है तबसे उसी इंडिया गेट के गलियारे में लोगों की चहल पहल लगभग बंद सी हो गयी है। और अब उस कैनवास को नया रूप देने के लिए उसके खूबसूरत लैंप पोस्ट जो आपको अंग्रेजों के जमाने की याद दिलाते है साथ में खूबसूरत हरी भरी लॉन और उसके साथ जामुन के पुराने पेड़ की छाँव की शीतलता का एहसास आपको जेठ की दुपहरी में ही पता चल सकता है, सबको हटा दिया गया है।
मेरे लिए ऐसे चित्र को देखना काफी दुःखद तो होता है मानसिक तौर पर भी चोट पहुँचाने का काम करता है। लेकिन दर्द यह है कि कहे तो किससे और सुनेगा कौन। वैसे भी अगर आप किसी भी राजनैतिक पार्टी के अंध समर्थक नही होते है तबतक आपकी बातों का कोई मतलब नही रह जाता है कि आप क्या सोचते है। लेकिन मन में सवाल हो तो उसे सामने ना रखना भी जायज नही होता तो अपनी बात रखनी ही चाहिए। वैसे भी दिल्ली अब पत्थरों का जंगल सा दिखता है जिधर देखिए तरक्की की फ्लाईओवर दिखेगी। लेकिन 15 साल पहले किसी भी सड़क पर जितनी ट्रैफिक थी आज भी उतनी ही है उसमें कोई बदलाव नही हुआ। पहले जिस गली में 10 कारें दिखती थी आज वहाँ दोनों तरफ 100 दिख जाएंगी अगर आपको घर जाना हो तो बामुश्किल आप निकल पाएंगे। उसके साथ साथ मेट्रो की पार्किंग भी फुल रहने लग गयी, वो अलग ही कहानी है। हमने कारें ले ली रखने को जगह नही, सरकारों को दोष दे रहे कि सरकार प्रदूषण के बारे में सोच नही रही है लेकिन हम अपनी आदतों पर लगाम लगाने की बजाय उसे और बढ़ाये जा रहे है। हम अपने घरों में AC लगाने से बाज नही आ रहे और कह रहे है गर्मी बढ़ रही है। आज जो मानव निर्मित वायरस दुनिया पर छाया हुआ है यह भी कही ना कही प्रकृति के अंधाधुंध दोहन का ही नतीजा है जो हमारा शरीर कमजोर पड़ चुका है और हम इसको सहन नही कर पा रहे है।
पूरी बात का लब्बोलुआब यह है कि हम जिस तरह से प्रकृति का दोहन करने में लगे हुए है उससे हम अपने वजूद को सवालों के घेरे में डाल रहे है और हम अपने वजूद के साथ ही खेल रहे है। हम सबको प्रकृति को उसका हक लौटाने के बारे में सबको सोचना पड़ेगा। हर एक व्यक्ति की जिम्मेदारी बनती है सभी अपने अपने हिस्से की जिम्मेदारी पर्यावरण के प्रति निभाये। जिस तरीके से नदियाँ सुख रही है, वृक्ष काटे जा रहे है, सरकारे उनके बारे में सोच नही पा रही है कि भविष्य क्या होगा किसी को नही पता। और हम सरकार किसकी बनेगी उसपर चर्चा करने पर लगे हुए है। सरकारें और राजनेताओं को यह विषय out of context लगता है। हम सबको भूटान के बारे में इससे सीख लेने की आवश्यकता है दुनिया का सबसे छोटे देशों में उसकी गिनती होती है वहाँ का संविधान कहता है कि वहाँ पर कुछ भी हो जाये 70 प्रतिशत से हरियाली कम नही हो सकती है।
धन्यवाद।
शशि धर कुमार