Saturday, 19 June 2021

We miss you Milkha Singh!!!!!

मिलखा सिंह (उड़न सिख़) का जन्म २० नवंबर १९२९ को गोविंदपुर जो अब पाकिस्तान में है जन्मे एक भारतीय धावक जिन्होंने रोम के १९६० ग्रीष्म ओलंपिक और टोक्यो के १९६४ ग्रीष्म ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। वे भारत के सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ एथलीट्स में से एक थे। भारत के विभाजन के बाद की अफ़रा तफ़री में मिलखा सिंह ने अपने माँ-बाप को खो दिया। अंततः वे शरणार्थी बन के ट्रेन से पाकिस्तान से भारत आए। और लगातार वे अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते रहे जबतक उन्हें पहचान नहीं मिल गयी।  


यूं तो मिल्खा सिंह जी ने भारत के लिए कई पदक जीते, लेकिन रोम ओलंपिक में उनके पदक से चूकने की कहानी लोगों को आज भी याद है।


कार्डिफ़, वेल्स में १९५८ के कॉमनवेल्थ खेलों में स्वर्ण जीतने के बाद उन्हें लोग जानने लगे। इसी समय जब उन्हें पाकिस्तान में दौड़ने का न्यौता मिला, लेकिन दौड़ में मिलखा सिंह ने अपने प्रतिद्वन्द्वियों को ध्वस्त कर दिया। अधिकांश दर्शक इतने प्रभावित हुए कि पूरी तरह बुर्कानशीन औरतों ने भी इस महान धावक को गुज़रते देखने के लिए अपने नक़ाब उतार लिए थे। इस जीत के बाद पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति फील्ड मार्शल अयूब खान ने उन्हें 'फ्लाइंग सिख' की उपाधि से नवाजा।


भारत सरकार ने १९५९ में उन्हें पद्म श्री की उपाधि से भी सम्मानित किया। उनका पद्य श्री के आगे का भारतीय नागरिक सम्मान नहीं मिलना यह दर्शाता है की आज भी सरकार हमारे एकल खेल के लिए कितनी गंभीर है। 


कभी जब उनसे ८० दौड़ों में से ७७ में मिले अंतरराष्ट्रीय पदकों के बारे में पूछा जाता था तो वे कहते थे, "ये सब दिखाने की चीजें नहीं हैं, मैं जिन अनुभवों से गुजरा हूँ उन्हें देखते हुए वे मुझे अब भारत रत्न भी दे दें तो मेरे लिए उसका कोई महत्व नहीं है।"


आप हमेशा हमारे दिल में रहेंगे  चाहे आप कही भी रहे पूरा भारत और भारतीय आपके साथ हमेशा अपने दिल में रखेगा। मिल्खा सिंह एक ऐसी शख्सियत थे जिनके बारे में शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता है वे एक संस्थान है और आगे भी भारतीय धावक समुदाय में उनकी पहचान एक पितामह की ही रहेगी। हमने अच्छे अच्छे एथलीट पैदा किये लेकिन बहुत कम उस श्रेणी में आते है जिस श्रेणी के मिल्खा सिंह जी रहे। 


उनकी आखिरी ख्वाहिश है कि जो गोल्ड मेडल उनसे रोम ओलंपिक में गिर गया था, वह मेडल कोई भारतीय जीते। वे दुनिया छोड़ने से पहले भारत को ओलंपिक में एथलेटिक्स में गोल्ड मेडल जीतते देखना चाहते थे। लेकिन आज भी हम या हमारी सरकार कितनी गंभीर है इसी से पता चलता है की आज भी टोकियो ओलंपिक्स जाने वालो के लिस्ट में व्यक्तिगत खेलों के धावक ग्रुप में हमारे खिलाड़ी २० किमी और ३००० मीटर में ही भाग ले पाएंगे।  


धन्यवाद आपका! 

भारत और भारतीय सदैव आपके आभारी रहेंगे। 

Saturday, 12 June 2021

महारानी या बिहार के 90 के दशक की सियासत

मैं स्वाभाविक तौर पर किसी फिल्म या वेब सीरीज के बारे में कोई भी टिपण्णी करना पसंद नहीं करता हूँ लेकिन इस वेब सीरीज (महारानी) को देखने के बाद आप चुप भी नहीं बैठ सकते है। 

अगर आप 90 के दशक के है और बिहार में पैदा हुए है तो काफी दिलचस्प हो जाता है की आप उससे पीछा छुड़ा पाए। अगर आपके मन में उस दशक के बारे में किसी भी प्रकार का प्रश्न है तो यह सीरीज आपको अवश्य देखनी चाहिए यह आपके दिमाग में चल रहे कई प्रश्नों का उत्तर दे सकती है बशर्ते आपने उस दशक के बारे में पहले से अपनी कोई राय ना बना ली हो। शुरुआत के दो एपिसोड में ही आपको पता चल जाता है बिहार में जो आज की राजनैतिक पृष्ठभूमि है वो ऐसा क्यों है। इसमें आपको सत्ता के लिए एक वर्ग का संघर्ष और दूसरे वर्ग का सत्ता का अपने हाथों से फिसलने ना देने की कवायद। आखिरी एपिसोड में भी आपको कई ऐसे खुलासे देखने को मिलेंगे जो आपने शायद ही सुना हो। कई भारतीय मीडिया ने इसे 3.5/5 स्टार दिए है लेकिन IMDB ने 7.5/10 स्टार दिए है लेकिन मेरे हिसाब से 4.5/5 स्टार पाने के लायक है क्योंकि सीरीज देखने के बाद आपको लगेगा की बिहार की पृष्ठभूमि और किरदार के डायलॉग पर कितनी मेहनत की गयी है। एक एक डायलॉग आपको उस समय के करीब ले जायेगा। निर्देशक ने जिस तरह से घटनाओ को जोड़ने की कोशिश की है वो बिहार की पूरी पृष्ठभूमि कहता है। 

बिहार को राजनीति की पाठशाला कहा जाता है। जातीय समीकरण समझने हो, राजनीतिक पैंतरे सीखने हों, या देश के असल मुद्दों पर ज्ञान चाहिए हो, तो बस बिहार चले जाइए, आपके ज्ञानचक्षु ना खुल जाए तो बेकार है। वैसे भी बिहार की राजनीति के कई अध्याय हैं जिन्होंने ना सिर्फ बिहार को बदल कर रख दिया बल्कि देश की राजनीति पर भी अपना गहरा असर छोड़ा। 

“महारानी” 1990 के दशक के बिहार में स्थापित एक राजनीती और राजनैतिक घटनाक्रम को लेकर बुनी गयी है ऐसी कहानी है जो अपने जातिगत गणित, पारंपरिक क्षत्रपों और उभरती आवाज के साथ शुरू होती है। भले निर्देशक ने डिस्क्लेमर में यह कहा हो की यह एक काल्पनिक कथा है लेकिन पहले एपिसोड से आपको पता चल जाता है की कहानी किसके बारे में है। 

कई सालों बाद बिहार में पिछड़ी जाति का कोई मुख्यमंत्री बना है। नाम है भीमा भारती और काम-पिछड़ों को बिहार की राजनीति में सबसे ऊपर ले आना, उन्हें ऊंची जाति वालों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना सिखाना। लेकिन राजनीति का ही खेल है कि सत्ता संभालते ही भीमा भारती पर जानलेवा हमला हो जाता है। गोली मारी जाती है, किसने मारी पता नहीं चलता। संकट काफी बड़ा है, सरकार अभी-अभी बनी है, राजा ही घायल हो गया है, ऐसे में बिहार जैसे बड़े राज्य की जिम्मेदारी कौन संभालेगा। पार्टी में नेता कई हैं, सीएम बनने के सपने भी भुनाए जा रहे हैं, लेकिन भीमा भारती का दिमाग घोड़े से भी तेज चलता है। अपनी ही पार्टी के बड़े नेताओं को छोड़ पत्नी रानी भारती को सीएम बनवा देते हैं। फंडा सिंपल है, कागज पर मुख्यमंत्री रानी रहेंगी, लेकिन सत्ता भीमा ही चलाएंगे। क्या एक अशिक्षित महिला रानी भारती जो एक गृहिणी हैं और बिहार के मुख्यमंत्री भीमा की पत्नी हैं इन सब राजनैतिक दावपेंच से अपने आपको बचा पाती है। 

भीमा भारती इतना बड़ा दांव तो चल दिया, लेकिन पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को ही नाराज कर गए। पार्टी के अंदर ही फूट पड़ गई और कई नेता अपने ही राजा को सबक सिखाने के चक्कर में पड़ गए। लेकिन बिहार की पहली महिला सीएम बनीं रानी भारती ने भी तेवर दिखाने शुरू किए। अपने ही 'साहेब' (बिहार में कई पत्नियां अपने पति को साहेब कहती हैं) के खिलाफ जाने की हिम्मत दिखाने लगीं। कभी मंत्रियों का मंत्रालय बदल दिया, किसी को बर्खास्त कर दिया, इनक्वायरी बैठा दी। सबकुछ होता रहा और भीमा भारती एक घायल राजा की तरह बस देखते रहे। यही है महारानी की कहानी जिसमें राजनीति है, राजनीतिक दांव-पेंच हैं और सत्ता में बने रहने की हर मुमकिन कोशिश।

डायलॉग जो पसंद आ सकते है 
  • हुमा कुरैशी का एक डायलॉग है- "हमसे 50 लीटर दूध दूहा लो, 500 गोबर का गोइठा बना लो पर एक दिन में इतना फाइल पर अंगूठा लगाना, ना.. हमसे ना हो पाएगा।" 
  • जूनियर पुलिस अफ़सर पिछड़ी जाति के अपने सीनियर पुलिस अधिकारी से कहता है- सरकार भले आप लोगों का है, सिस्टम हमारे हाथ में है। 
  • सीएम आवास में घुसते हुए नेता कहता है- यह सीएम हाउस है या तबेला? 
  • भीमा का सहयोगी मिश्रा उनके प्रतिद्वंद्वियों को 'आपदा में अवसर' तलाशने का ताना मारता है। 
कहां है कमी 
‘महारानी’ देखने के बाद कई जगह ऐसा महसूस होता है कि इसके लेखन में कमी रह गई। रानी की जिंदगी में अचानक तेजी से उतार-चढ़ाव आते हैं जो काफी तेज लगते है। एपिसोड 4 में अचानक से एक 'घोटाला' दिखाया जाता है। पांचवें एपिसोड में एक 'बाबा' आ जा जाता है। हर एपिसोड अपने आप में एक अलग थलग दीखता है।

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