Saturday, 4 March 2023

विश्व पुस्तक मेला, दिल्ली

पुस्तक मेला और प्रगति मैदान हमेशा आश्चर्यचकित करता रहा है। जब भी जाता हूँ मन को असीम शांति मिलती है। इतने सारे किताब प्रेमी अभी भी है, और आज भी खरीदते है किताबें.....मेरे लिए नई नई किताबों की लिस्ट... नए नए इनोवेटिव तरीके से पढ़ने पढ़ाने के लिए भी काफी कुछ देखने को मिलता है। वाकई में अद्भुत नजारा होता है लेकिन जब दिल्ली हो तो खाने वाले के क्या कहने, वे खाते भी बड़े दिल से और भीड़ आप खाने के स्टाल भी देख पाएंगे। 

इस बार हिंदी को लेकर काफी प्रचार प्रसार किया गया था और वो सच भी था काफी ऐसी किताबों को देखा जो हिंदी और हिंदी के बारे में बड़े बड़े लेखकों की भी किताबें उसी में से एक किताब जो मुझे पसंद आई वह है गांधीजी और हिंदी, मैं तो कहूँगा की हिंदी प्रेमियों को यह किताब अवशय पढ़नी चाहिए (वैसे मैं इसपर अलग से टिपण्णी अवश्य लिखना चाहूँगा)। NBT ने इसबार हिंदी और उसके आस पास काफी किताबों को तवज्जो दिया था जिसको आप उसके स्टाल पर देख सकते है। हिंदी के प्रकाशनों के स्टाल पर भीड़ जो थी उसका अंदाजा लगाना मुश्किल था। हिंदी को लेकर कई प्रकाशन ने अलग तरह का माहौल बनाया हुआ था ऐसा लग रहा था जैसे उत्सव का माहौल हो। लेखकों से बातचीत, पाठकों के साथ हिंदी के बैनर के साथ फ़ोटो और भी बहुत कुछ था, मतलब गज़ब का माहौल था। पाठकों ने भी अपनी तरफ से भरपूर कोशिश की प्रकाशन के लोगों को भी अच्छा लगे। लोगों ने किताब ख़रीदे, लेखको के साथ सेल्फी, काउंटर पर केशियर को धन्यवाद मतलब अतुलनीय माहौल था। 

लेकिन जहाँ इतनी बड़ा आयोजन हो वहाँ कुछ ना कुछ तो अव्यवस्था होगी और मुझे जो सबसे ज्यादा अखरा वह था मोबाइल नेटवर्क की बड़ी समस्या जिसकी वजह से मुझे तीन स्टाल पर किताब नही मिल पाया क्योंकि आप UPI से पेमेंट नही कर पाएंगे अलबत्ता अगर आपके पास जिओ का नेटवर्क हो तो अलग बात है। एक तो कॉमिक्स का स्टाल था...😉 इसके लिए National Book Trust, India को सोचना चाहिए था लेकिन इनका सिस्टम बड़े अच्छे से चल रहा था। 

धन्यवाद।

रुकतापुर...

रूकतापुर मतलब रुकने वाली जगह लेखक ने बड़ा अच्छा नाम सोचा बिहार के सन्दर्भ में यह किताब काफी तथ्यों के साथ एक ऐसा विवरण है जो एक पत्रकार के लिए अपने घुमन्तु जीवन में कई बार आ सकती है और यह किताब उसी का परिणाम है वैसे बिहार से कई बड़े पत्रकार हुए जिन्होंने राष्ट्रीय पटल पर अपना नाम अंकित किया है लेकिन अगर उन्हें ध्यान से देखे तो उन सभी का अपना एक ईको सिस्टम रहा जिसके अंदर वे पूरी तरह फले फुले, ऐसा नहीं कह सकते है की उनमे योग्यता नहीं होगी अवश्य होगी तभी इतना दूर तक आ पाए लेकिन अगर आप उस ईको सिस्टम के बाहर वाले पत्रकारों के बारे में ढूंढने का प्रयास करेंगे तो आपको नहीं के बराबर मिलेगा। 

खैर आते है किताब पर रुकतापुर काफी अच्छा नाम लगा जो हटकर भी है और संकेतात्मक भी है जो बिहार जैसे राज्य के लिए ऐसा लगता है पूर्णतः सत्य है जैसे मैं पहले भी कहता रहा हूँ की कोई भी लेखक बामुश्किल ही बिना पक्षपात के कोई किताब या लेख लिख पायेगा। यह किताब वाकई में अगर आप तथ्यात्मक रूप से देखे तो बिहार के सन्दर्भ में कई अच्छी बाते और कई ऐसी बातों के बारे में भी बात करता है जिससे लगता है की यहाँ पक्षपात हो गया। किताब की शुरुआत सुपौल जिले से शुरू होती है जिसमे कई ऐसी बाते दर्शाई गयी है जिससे लगता है बेकारे बिहार में रहते है काहे नहीं बिहार छोड़कर कही और बस जाते है लेकिन अपने जमीन से उखड़कर दूसरे जगह बसना आसान नहीं होता है। जिस सुपौल की किताब में बात की गयी है आज भी बड़ी लाइन बनने के बाद इस जगह की स्थिति में आमूल चल परिवर्तन हुआ हो ऐसा नहीं लगता है हाँ बस इतना जरुर हुआ है की किताब में लेखक को जितना समय यात्रा में लगा अब वो नहीं लगता है "क्या कीजियेगा, बैकवर्ड इलाका है न...."। पटना में अगर कोई एक महीना रह ले और सुपौल या सहरसा या मधेपुरा या अररिया या फॉरबिसगंज या कटिहार कोई घूम ले तो लगेगा कौन बियांबान में आ गए है यही हकीकत भी है आज के बिहार की। लेखक के अनुसार ही अगर बातों को आगे बढाए तो पीएनएम मॉल, म्यूजियम, सभ्यता द्वार या ज्ञान भवन घूम आइये तो लगता है पेरिस पहुँच गए लेकिन कोसी कछार, गया और मुजफ्फरपुर शिवहर, सीतामढ़ी के गाँवों में जाइएगा तो आज भी बलराज साहनी की "दो बीघा जमीन" की याद आएगी। 

बिहार की स्थिति ऐसी है की एक तरफ यूपीएससी, आईआईटी, मेडिकल और आईटी में यहाँ के छात्र झंडा फहरा रहे है वही आज भी मुजफ्फरपुर में जब चमकी बुखार का प्रकोप आता है तो बच्चे किस प्रकार मरते है किसी को पता ही नहीं चलता कि क्या हो रहा है। बिहार के सभी पिछड़े जिलों से देश के बड़े बड़े शहरों को जाती ट्रेने बिहार की बदहाली की दशा बताती है लगभग इस किताब में यही कहते मिलेंगे लेखक महोदय, जो लगता है की सही भी है। यह सिर्फ ट्रैन की बात नहीं है बसों की हालात भी लेखक के शब्दों में कहे तो यहाँ भी कम रुकतापुर नहीं है लेखक महोदय को पूर्णिया से पटना आने के दौरान दोपहर दो बजे पूर्णिया से चलने वाली बस मुजफ्फरपुर शाम के ८ बजे पहुँच गयी और वहां से पटना ८० क़ीमी तय करने में साढ़े छह घंटे लग गए हालाँकि लेखक महोदय ने इसके भी भरसक लगने वाले कारण तो जरूर बताये है लेकिन सरकार को लपेटे में लेना नहीं भूले की सरकार बिहार के हर जिले से अधिकतम ५ घंटे में पहुँचने की सरकार के दावे की पोल खोल दिए। लेखक महोदय को सहरसा, समस्तीपुर,मधुबनी, जयनगर, दरभंगा,सीतामढ़ी, कटिहार और मुजफ्फरपुर से मजदूरों के पलायन की संख्या को हजारो में लिखा है और सही भी लगता है क्योंकि इन क्षेत्रो से दिल्ली और पंजाब की तरफ जाने वाली गाड़ियों में आपको जगह मुश्किल से मिलती है इसी क्रम में लेखक को एक युवक मिलता है जिसके दादा कभी पंजाब मजदूरी करने जाते थे फिर उसके पिताजी गए और अब वह जा रहा है। कोरोना में जब बिहार ट्रैन आ रही थी तो सरकारी आंकड़े के हिसाब से ३० लाख मजदुर वापस आये थे यही संख्या काफी कुछ कहता है लेकिन सरकार अपने अपने आंकड़े से बिहार को अग्रणी राज्यों में बताना नहीं भूलती है। 

किताब के दूसरे भाग के "घो-घो रानी, कितना पानी" से शुरुआत करते है तो यह बताना नहीं भूलते है की २८ सितम्बर २०१९ को पटना जो बिहार की राजधानी है किस प्रकार जलमग्न हो गयी और चारो तरफ त्राहिमाम मची हुयी थी और तत्कालीन उप मुख्यमंत्री के घर तक में पानी घुस गया था और ऐसी कई हस्तियां थी जिन्हे उस समय काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा था प्रख्यात गायिका शारदा सिन्हा जी की फोटो हम सबने सोशल मीडिया पर देखा ही होगा। उस भयावहता को देखने के बाद विश्व विख्यात लेखक रेणु जी का १९७५ में लिखा गया पटना के बाढ़ पर ही रिपोर्ताज पढ़ने पर अक्षरश वही नजर आने लगा था। लेखक सिर्फ रुकतापुर को आगे बढ़ाने के लिए यही नहीं रुकते है वे कोशी के बारे में भी बात करते है अगर आपने कोशी डायन नाम से रेणु की रिपोर्ताज पढ़ी होंगी तो इन लेखक महोदय के अनुभव भी कम नहीं है कोशी की विभीषिका को लेखक जी ने कोशी के वटवृक्ष नाम से भी एक किताब लिखी है उसको पढ़कर अंदाजा लगाया जा सकता है इस किताब में कोशी की विभीषिका पर थोड़ा संक्षेप में बातें कही गयी है लेकिन कही गयी है और अगर आप कोशी या सीमांचल क्षेत्र से आते है तो आपको यह आपकी अपनी कहानी लगेगी जो यहाँ के लोग हर साल झेलते है। दरभंगा के सूखते तालाब और बिगहा क्षेत्र में पानी में आर्सेनिक और फ्लोराइड की अधिक मात्रा में मिलना और उस दूषित पानी के पीने से होने वाली मानवीय क्षति से तो बिना संवेदना वाला व्यक्ति भी काँप जाए। 

भुखमरी, कुपोषण, चमकी जैसी ऐसी कई समस्याओं के बारे में लेखक महोदय में बड़ी अच्छी विवेचना की है। मखाना फोड़ने की विधि से लेकर इन मजदूरों के साथ आने वाली दिक्कतों का भी काफी बारीकी से जिक्र किया है। किताब के अनुसार बिहार के जनगणना २०११ के अनुसार ६५ फीसदी ग्रामीण आबादी भूमिहीन और इसके सबसे ज्यादा संख्या पिछडो और दलितों की है, इसी क्रम में सरकार भूमिहीनों के लिए जो कार्यक्रम चलाती है उन्हें कागज भी मिल जाते है लेकिन उनको वास्तविक अधिकार नहीं मिल पाता है। बेरोजगारी भी एक बड़ी समस्या है जिसकी वजह से यहाँ के युवा अपने लिए रोजगार की तलाश में थक हारकर बाहर की राह पकड़ते है। 

अगर आप बिहार से है तो आपको यह किताब अवश्य पढ़नी चाहिए ताकि आपको अंदाजा हो की बिहार के कितने रुकतापुर है जो बिहार के वास्तविक विकास की गति पर रोक लगाए हुए है। लेखक महोदय का धन्यवाद। 

धन्यवाद 
शशि धर कुमार 

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