Wednesday, 27 September 2023

हिंदी पखवाड़ा

हिंदी पखवाड़ा सरकारी तौर पर १५ दिन का कार्यक्रम होता है जो लगभग हर सरकारी संस्थानों में मनाया जाता है। इसमें हर संस्थान अपने-अपने यहाँ हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए साल भर के कामों का लेखा-जोखा रखता है या यूँ कहे कि वे यह कहते है कि हमने इतना काम हिंदी में किया जैसे कि साल भर में इतने लेख इतनी पत्रिकाओं में विज्ञापन या हमने संस्थान के मुख्य स्थानों पर इतने बैनर पोस्टर लगाये या कि यहाँ हिंदी में भी काम काम किया जाता है आदि-आदि। इसी बीच हिंदी दिवस भी आ जाती है तो लोग बड़ी उत्साह के साथ हिंदी दिवस मनाते नजर आते है और स्वाभाविक है भारत जैसे देश में जहाँ कहा जाता है कि उसकी भाषाई धड़कन हिंदी है वो इसीलिए भी क्योंकि हिंदी विश्व में तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है और उत्तर भारत में हिंदी बोलने वाले लोग तो बहुतायत में पाये जाते है ये अलग बात है कि सबकी हिंदी की अपनी-अपनी बोली कह ले उसमें लोग बोलते है। हिंदी दिवस मनाना कोई बड़ी बात नहीं होनी चाहिए लेकिन सवाल यह है कि भारत में ही अगर हिंदी दिवस मनाना पड़े तो सोचनीय हो जाती है। हिंदी हमारे अंग-अंग में रची बसी है फिर हम हिंदी दिवस क्यों मनाते है हमारी ५० करोड़ लोगों की भाषा जब हिंदी हो तो भी हमें हिंदी दिवस मनाने की आवश्यकता क्यों है? इस बात का उत्तर मुझे मिला “गाँधी और हिंदी” नाम के किताब में जहाँ गाँधी को उद्धरित करते हुए लेखक लिखते है कि “करोड़ों लोगो को अंग्रेजी की शिक्षा देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने एक शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह सचमुच गुलामी की बुनियाद थी। यह क्या कम जुल्म की बात है कि अपने देश में गर मुझे इन्साफ पाना हो तो मुझे अंग्रेजी भाषा का उपयोग करना पड़े। इसमें मैं अंग्रेजों का दोष निकालूँ या अपना? हिन्दुस्तान को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जाननेवाले लोग है। प्रजा की हाय अंग्रेजों पर नहीं पड़ेगी बल्कि हम लोगों पर पड़ेगी।” यह बातें महात्मा गाँधी जी ने १९०९ में हिंदी स्वराज्य में लिखा था।

गाँधी और हिंदी की बातें निराली है वो इसीलिए कि वे खुद विदेश से बैरिस्टरी कर आये और दक्षिण अफ्रिका गए अपनी बैरिस्टरी का अभ्यास करने लेकिन जब वे भारत वापस आये तो उन्हें समझ आया कि हिंदी के बिना उनका काम नहीं चल सकता है और अगर आप उनको पढ़ते है तो पता चलता है कि वे दस भारतीय भाषाओं में अपना हस्ताक्षर कर सकते थे। गाँधी के अनुसार आप हिंदी अवश्य पढ़िए और उसका अपने जीवन में उपयोग बढ़ाइए और बाँकी भाषाएँ भी सीखिए ताकि अगर भारत के ही किसी और राज्य में आप जाए तो कम से कम वहाँ जिस भाषा का उपयोग होता हो आप उस भाषा में अपना काम चला सके। ५ फरवरी १९१६ को काशी प्रचारिणी सभा में भाषण देते हुए गांधी जी ने कहा था कि हम सब को अदालतों में हिंदी में काम करने पर तवज्जों देनी चाहिए और युवाओं से उन्होंने निवेदन किया कि वे कम से कम अपने हस्ताक्षर से शुरू करे फिर आपस में हम भारतीय चिठ्ठियों में हिंदी को बढ़ावा दे तभी हिंदी सम्मानित हो पायेगी। उनका कहना था कि तुलसीदास जी जैसे कवि ने जिस भाषा में अपनी कविता की हो वह भाषा अवश्य ही पवित्र होगी। वही ६ फरवरी १९१६ को काशी विश्वविद्यालय में भाषण देते हुए उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि इस सम्मलेन जो हिंदी भाषियों के लिए गढ़ माना जाता है वहाँ भी हमें अंग्रेजी में बोलना पड़ रहा है तो हमें शर्म आनी चाहिए कि जो भाषा हमारे दिल में दिल के अन्दर से निकलनी चाहिए उसके लिए हम कोई प्रयास नहीं कर रहे है। अंग्रेजीं में निकली बातें दिल तक नहीं जाती है उन्होंने इसका एक उदहारण देते हुए बताया कि बम्बई जैसे शहर में जो हिंदी भाषी नहीं है लेकिन वहां हिंदी में दिए गए भाषणों पर लोग ज्यादा तवज्जों देते है।  २९ दिसंबर १९१६ लखनऊ में वे कहते है मैं गुजरात से आता हूँ और मेरी हिंदी टूटी फूटी है फिर मुझे थोड़ी भी अंग्रेजी का प्रयोग पाप लगता है। सवाल यह है कि जब गाँधी जी हिंदी को लेकर इतने मुखर थे और आज़ादी के आन्दोलन में उन्होंने हमेशा प्रयास किया कि हिंदी को एक एक सशक्त भाषा के रूप में स्थान मिले और हिंदी एक विश्व भाषा के रूप में अपना स्थान बना सके लेकिन जैसा उन्होंने खुद कहा था कि मैकाले ने जो करना था उसने कर दिया और अपने लिए एक पौध बनानी थी उसने बनाई जिसका नतीजा आज भी हम भुगत रहे है।

मैंने पहले भी कहा है कि हिंदी को देवनागरी में लिखने से ज्यादा प्रचार हो सकता है लेकिन आजकल मोबाइल और लैपटॉप के आ जाने से लोग हिंदी को देवनागरी की जगह रोमन लिपि में लिखने लगे है और सबसे ज्यादा दिक्कत हिंदी भाषी क्षेत्र में रहने वाले लोगों के साथ है यही गांधी जी ने भी महसूस किया तभी उन्हें लखनऊ, बनारस, कानपुर, इंदौर, बम्बई आदि जगहों पर इसपर काफी बात करना पड़ा ताकि लोग हिंदी के प्रति अपने लगाव में बढ़ोतरी कर सके। हम मातृभाषी तो हिंदी में रहना चाहते है लेकिन बोलना हम अग्रेज़ी में चाहते है क्योंकि मैकाले के समय से अंग्रेजीं में बोलने वालों को जो अहमियत मिली कि वे एक अभिजात वर्ग से आते है और उन्हें हिंदी में बोलने में झिझक महसूस होने लगी और यही आज तक होता आ रहा है। कही भी आप हिंदी की जगह अंग्रेजी में बोल दिए तो आपको समझदार माना जाएगा और हिंदी में बोलने पर देशी या देहाती जैसे उपाधियों से नवाज़ा जाएगा। जिन सरकारी संस्थानों की बात मैंने पहले की है वहाँ भी आपको यह लिखा हुआ मिलेगा कि यहाँ पर हिंदी में भरे हुए फॉर्म या हिंदी में लिखे गए फॉर्म को भी स्वीकार किये जाते है क्या यह अपनी ही भाषा के लिए लज्जायुक्त होने वाली बात नहीं है यही तो महात्मा गाँधी ने कहा था कि हमें अपने ही अदालतों में न्याय पाने के लिए हमें अंग्रेजी में फ़रियाद करनी पड़ती है। तो सवाल यही है हिंदी ज्यादा सरल है या अंग्रेजी जिसकी वजह से कार्यालयों में हिंदी की जगह अंगरेजी ने अपना पहला स्थान पाया हुआ है। हिंदी हमारी अपनी भाषा है और हमें इसी में ही अपने ज्यादातर काम पुरे करने चाहिए। भाषा से हम अपने चरित्र को प्रतिबिंबित कर सकते है जैसे अगर आप अफ्रीका में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा अफ़्रीकांस को समझ पा रहे है बोल पा रहे है तो संभव है उनके लोगो द्वारा मनाये जाने वाली त्योहारों और उनके संस्कृतियों के बारे में भी समझ सकेंगे। कहा जाता है अगर भाषा में सच्चाई और दयालुता नहीं है तो उस भाषा को बोलने वाले लोगों में सच्चाई और दयालुता नहीं हो सकती है और हमारी हिंदी में यह कूट-कूट कर भरी हुई है। एक कहावत है “यथा भाषक तथा भाषा” – अर्थात जैसा बोलनेवाला वैसी भाषा। मैं बारम्बार यह कहता आया हूँ कि हम हिंदी भाषियों ने ही हिंदी का बेड़ा गर्क किया है क्योंकि सबसे ज्यादा हिंदी भाषियों ने ही हिंदी भाषा का अनादर किया है क्योंकि उन्हें लगता है वे हिंदी भाषी क्षेत्र में पैदा हुए है तो उन्हें हिंदी भाषा अच्छे से आती है और वे इस बात को लेकर कभी भी अपने अन्दर झाँकने का प्रयास नहीं करते है कि उनकी हिंदी में भी त्रुटियाँ है या हो सकती है। जिस राष्ट्र ने अपनी भाषा का अनादर किया है उन्होंने अपनी राष्ट्रीयता खोयी है। पुरे धरा पर भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ आज माता-पिता अपने बच्चो को माँ-बाबूजी की जगह मम्मी-डैडी बोलना सिखाते है कमरे की जगह रूम हो गया रसोईघर की जगह किचन हो गया ऐसी कई बाते कालांतर में हुई जिसकी वजह से हिंदी भाषा का क्षय हुआ धीरे धीरे ही सही यह लगातार होता चला गया पिछले कुछ सालों से मैकाले की शिक्षा पद्धति का विरोध हो रहा है लेकिन लोग उसके जड़ में झांकना नहीं चाहते है कि मैकाले की एक ही विरासत थी। वह हमें देकर चले गए और हम आज तक उनसे पीछा नहीं छुड़ा पाए वह  है अंग्रेजी भाषा के प्रति हमारा मोह। हिंदी को जीवन में अपनाए तभी हिंदी की सार्थकता साबित हो पायेगी सभी भाषाओ का सम्मान करना सीखे,  खासकर हिंदी अगर आपकी मातृभाषा है तो यह बहुत जरुरी हो जाता है। गाँधी जी भी कहते थे "अंग्रेजी हमारी जरूरत हो सकती है आवश्यकता नहीं।" लेकिन हमने उसे जरुरत बना दिया है यही वजह है संस्थानों में “यहाँ अंग्रेजी में भी फॉर्म या आवेदन स्वीकार किये जाते है” की जगह हमने “यहाँ हिंदी में भी फॉर्म या आवेदन स्वीकार किये जाते है” लिखा हुआ मिलने लगा। यह साबित करता है कि हम अपनी मातृभाषा के प्रति कितना लज्जित महसूस करते है।

अंग्रेजो को गालियाँ देने वाले उस समय भी अंग्रेज़ियत के शिकार थे और आज भी है उन्हें यह नहीं समझ आता है कि अंग्रेजी मात्र एक भाषा है उसे सीखने में आप जितना मेहनत करते है उससे कही कम समय में कई और भाषाएँ सीख सकते है। यहाँ पर लोगों को लगता है कि अगर वे अंग्रेज़ों या अमरीकियों की तरह अंग्रेजी बोलने में माहिर हो जाते है लगने लगता है कि वे बड़े बुद्धिजीवी हो गए ऐसा नहीं है। अगर आप अंग्रेज़ी जितना धाराप्रवाह बोल पाते है उसी धाराप्रवाह से अगर कोई स्पेनिश या मंदारिन या फ्रेंच या रूसी भाषा बोल सकता है तो क्या वह भी उतना ही बड़ा विद्वान दिखने का शौक पाल सकता है शायद नहीं। डॉ सुरेश पंत जी की किताब “शब्दों के साथ-साथ” जिसमें शब्दों के प्रयोग और उसकी व्याख्या को विस्तृत तरीके से पेश किया है। किताब में डॉ पंत लिखते है "हिंदी बहुत कठिनताओं के साथ अपना प्रवाह निरंतर और बहुमुखी रखा है और जीवन के विविध क्षेत्रों में सामाजिक आर्थिक विकास के साथ-साथ हिंदी का प्रयोग बढ़ रहा है। प्रचार प्रसार के इस दौर में हिंदी का स्वरुप में क्षेत्रीय प्रभाव अधिक पड़ रहा है। अब हिंदी में पूर्वी हिंदी या पश्चिमी हिंदी का ही अंतर नहीं रहा; हैदराबादी हिंदी, मुम्बइया हिंदी, कोलकाता वाली हिंदी जैसी क्षेत्रीय पहचाने स्पष्ट दिखाई पड़ता है जो हिंदी की भेद नहीं, हिंदी की विशेषताएं है।" यह साबित करता है हिंदी ने अपने आपको कभी बढ़ने से रोका उसे जहाँ जिसने प्यार दिया उसी के हो लिए यही बात डॉ पंत की इस बातों से महसूस किया जा सकता है। आज जो हिंदी लिखी या बोली जाती है। वह हर क्षेत्र में स्थानीय तौर पर बोली जानी वाली बोलियों का सम्मिश्रण है आप बिहार के सीमांचल में जायेंगे तो आपको हिंदी में ठेठी जो अंगिका का ही अप्रभंश बोला जाता है उसका मिश्रण मिलेगा अगर आप भागलपुर परिक्षेत्र में होंगे तो वहाँ अलग है अगर आप भोजपुर में है तो वहाँ अलग है अगर आप मिथिला में है तो वहाँ अलग है अगर आप नेपाल जाएँ तो वहाँ आपको अलग मिलेगी। उसी प्रकार मध्य प्रदेश में अलग अलग परिक्षेत्र के हिसाब से आपको सम्मिश्रित हिंदी ही मिलेगी। अगर आप उत्तर प्रदेश की बात करे तो आपको उसमे ब्रज भाखा, बुन्देली, चंदेली आदि का सम्मिश्रण मिलेगा। अगर आप हरियाणा जाएँ तो वहां की हिंदी अलग है अगर आप राजस्थान जाएँ तो वहां की हिंदी अलग है तो सवाल है हिंदी है क्या? हिंदी बोलने में और लिखने में अलग अलग हो जाती है क्योंकि बोलने में बोली का सम्मिश्रण होता है लेकिन लिखने में तो व्याकरण के प्रयोग के कारण एक ही रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि दिल्ली, राजस्थान, बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र या उत्तर पूर्व के राज्यों की हिन्दी भी गलत कही जा सकती है। जैसा कि कहा जाता है कि "गरीब के कान का सोना भी पीतल" कह दिया जाता है। बिहार के लोग जब हिंदी बोलते हैं तो वो दरअसल अपनी क्षेत्रीय (भोजपुरी, मगही, मैथिली, अंगिका, ठेठी आदि) के शब्दों को हिन्दी में मिश्रण के साथ बोलते हैं। डॉ पन्त के इन बातों को समझने के लिए उनकी इस किताब के साथ उनके आज तक के सहयोगी चैनल पर उनका इंटरव्यू "राजनीति की भाषा या भाषा की राजनीति!" नाम से अवश्य सुनने लायक है। ऐसी ही तीन अंक किताबों की सीरीज है “शब्दों का सफ़र” जिसे अजित वडनेरकर जी ने लिखा है शब्दों का संयोजन और उसकी व्याख्या से हिंदी के बारे में या उसके शब्दों के इस्तेमाल पर काफी बारीक नजर से व्याख्या किया है। जो हिंदी भाषा के विद्यार्थी या अध्येताओं के लिए काफी उपयोगी है।

२३ सितम्बर को राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की जयंती हो और आप हिंदी पर बात कर रहे हो और उनका उल्लेख ना हो मुश्किल लगता है तो मैं यहाँ २० जून १९६२ दिल्ली में राज्यसभा में राष्ट्रकवि दिनकर जी ने जो बातें कही उसके बारे में उल्लेख करना चाहूँगा। उन्होंने कहा था – "देश में जब भी हिंदी को लेकर कोई बात होती है, तो देश के नेतागण ही नहीं बल्कि कथित बुद्धिजीवी भी हिंदी वालों को अपशब्द कहे बिना आगे नहीं बढ़ते। पता नहीं इस परिपाटी का आरम्भ किसने किया है, लेकिन मेरा ख्याल है कि इस परिपाटी को प्रेरणा प्रधानमंत्री से मिली है। पता नहीं, तेरह भाषाओं की क्या किस्मत है कि प्रधानमंत्री ने उनके बारे में कभी कुछ नहीं कहा, किन्तु हिंदी के बारे में उन्होंने आज तक कोई अच्छी बात नहीं कही। मैं और मेरा देश पूछना चाहते हैं कि क्या आपने हिंदी को राष्ट्रभाषा इसलिए बनाया था ताकि सोलह करोड़ हिंदी भाषियों को रोज अपशब्द सुनाएं? क्या आपको पता भी है कि इसका दुष्परिणाम कितना भयावह होगा?" यह सुनकर पूरी सभा सन्न रह गई। चुप्पी तोड़ते हुए दिनकर जी ने फिर कहा- 'मैं इस सभा और खासकर प्रधानमंत्री नेहरू से कहना चाहता हूं कि हिंदी की निंदा करना बंद किया जाए। हिंदी की निंदा से इस देश की आत्मा को गहरी चोट पहुँचती है।' यह वक्तव्य आप राज्यसभा की वेबसाइट पर भी पढ़ सकते है। उस दिन और भी कई बातें उन्होंने हिंदी को लेकर कही। हिंदी के लिए लिए प्यार सबके दिलों में हमेशा से रही है लेकिन कई बार यह ज्यादा दुखदायी दिखता है कि हिंदी भाषियों ने ही हिंदी का बेड़ा गर्क करने का भार उठाया हुआ है।

आखिर में मैं हिंदी के बारे में कुछ महत्वपूर्ण व्यक्तियों को उनका हिंदी के प्रति प्यार को उन्हीं के शब्दों में:
“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल,
बिनु निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।
अँग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन,
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।”

~भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

“पुरस्कारों के नाम हिन्दी में हैं
हथियारों के अंग्रेज़ी में
युद्ध की भाषा अंग्रेज़ी है
विजय की हिन्दी।”

~रघुवीर सहाय

“लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है।”

~ मुनव्वर राना
धन्यवाद  
©️शशि धर कुमार 

Friday, 15 September 2023

हिंदी दिवस

आजकल (१४ - २८ सितंबर) सरकारी तौर पर हर सरकारी संस्थान में हिंदी विभाग हिंदी पखवाड़ा मनाता है। इसी क्रम में १४ सितंबर हिंदी दिवस के अवसर पर एक सरकारी कार्यक्रम में पश्चिम दिल्ली जाना हुआ और इस कार्यक्रम का संचालन करने वाली संस्था जिनमें ज्यादातर हिंदी भाषी लोग है और हिंदी भाषी क्षेत्र से आते है। कार्यक्रम में शामिल होकर अच्छा प्रतीत हुआ और लगा कि कुछ लोग है जो दिल से हिंदी दिवस या हिंदी के प्रति समर्पित है और हिंदी को आगे बढ़ते देखना चाहते है। मैं भी देखना चाहता हूँ, सिर्फ हिंदी को ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं को भी आगे बढ़ते और फलते-फूलते देखना चाहता हूँ। मैं पिछले कुछ सालों से इसी कोशिश में लगा रहता हूँ की चाहे कोई भी भाषा या बोली क्यों ना हो सभी को फैलने-फूलने का अधिकार है। यही वजह है कि मैंने खुद कैथी में लिखना शुरू किया और अंगिका में भी जो मेरी बचपन की बोली है और पुरे अंग क्षेत्र में बोली जाती है, उसमे भी कुछ कुछ लिखता रहता हूँ। कल जब कार्यक्रम स्थल पर जा रहा था तो एक बंधू मिले गाज़ीपुर के मुझसे पूछा की आप कहाँ से हो तो आदतन मैंने कटिहार, बिहार बोला तो उसने कहा की कटिहार में जो बोली, बोली जाती है उन्हें बड़ी अच्छी लगती है मैंने पूछा ऐसा क्यों तो उन्होंने कहा हमारे आस पास में कई लोग कटिहार के रहते है और मैं कई सालों से सुनता आ रहा हूँ, और इसमें काफी मुलायमपन महसूस होता है, जबकि वे अपनी भोजपुरी जो गाज़ीपुर और उसके आस पास बोली जाती है उनके अनुसार खड़ी बोली जाती है जो उन्हें सही नहीं लगता है उनका कहना था की उनके बरेली की भोजपुरी अच्छी लगती है। तो समझ आया की दुनिया कितनी छोटी है एक व्यक्ति गाज़ीपुर का रहता है गौतम बुद्ध नगर में और उसे कटिहार की बोली पसंद है तो हिंदी को बचाने की कवायद तभी सफल होगी जब हम मिटटी से जुडी कई बोलियों को बचा कर रख पाएंगे। क्योंकि हिंदी इतनी समृद्ध ऐसे ही नहीं हो गयी है जिसके अंदर ८ लाख से ज्यादा शब्द हो वो भाषा तो कमजोर हो नहीं सकती उसको बचाने की कवायद में आमूल चल परिवर्तन की आवश्यकता है। 


मुंशी प्रेमचंद के शब्दों में "लिखते तो वह लोग हैं, जिनके अंदर कुछ दर्द है, अनुराग है, लगन है, विचार है। जिन्होंने धन और भोग विलास को जीवन का लक्ष्य बना लिया, वो क्या लिखेंगे?" शायद वही दर्द है मेरे अन्दर मेरे हिंदी भाषा के प्रति और मेरी अपनी बोली अंगिका के प्रति भी है, जो कभी कभी किसी लेख या कविता के माध्यम से निकल जाती है । कल कार्यक्रम में सबने लगभग यही बात कही की आप जहाँ भी हो जैसे भी अपना योगदान अवश्य देने की कोशिश करिए चाहे जितना समय मिलता हो उसी में और एक भाषाविद जो हिंदी में काफी अच्छा लिखते है उनसे भी यही सुनने को मिला हिंदी कभी हिंगलिश से समृद्ध नहीं होगी और ना ही अंग्रेजी को अपनाने से, अंग्रेजी की अपनी अहमियत है लेकिन अपनी स्वभाषा जिसे हिंदी के रूप में हम गलती से राष्ट्रभाषा कहते है वह राजभाषा है। हम हिंदी भाषियों की यही दिक्कत है की हमें लगता है की हम हिंदी भाषी है तो हमें हिंदी आती ही है और यही सबसे बड़ी भूल है। आजकल तो हिंदी को रोमन लिपि में लिखा जाता है और वे भी संभ्रांत कहलाने लगे है। क्योंकि वे रोमन में हिंदी लिखते है जबकि किसी भी स्मार्टफोन या लैपटॉप या कंप्यूटर में आसानी से हिंदी या कोई भी अन्य भारतीय भाषा लिखी जा सकती है। समस्या हमारे अपने अन्दर घर कर गयी है जो काफी जटिल है, जटिल इसीलिए है क्योंकि हम अपने बच्चों को हिंदी में शिक्षा देने के बजाय उसे अंग्रेजी में दिलाने लगे है तथा उनका लगाव भी अपनी बोली के प्रति नहीं जगा पाते है तो हिंदी तो बहुत दूर की बात है। और जो हिंदी के पैरोकार है वे भी खुद अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम विद्यालय में पढ़ाने लगे है सवाल है की वे कब अपने बच्चो के अंदर हिंदी या किसी अन्य भारतीय भाषा के प्रति लगाव पैदा करेंगे। 


आपकी अपनी भाषा या बोली क्षेत्रीय है लेकिन हम उसमें बोलने से हिचकिचाते है जैसा मैंने ऊपर लिखा की एक गाजीपुर का व्यक्ति जब मुझसे मिला तो मैंने उसे बताया की अंगिका जो हमारी बोली है वह आज से नहीं सदियों से अंग की मिटटी में पली बढ़ी लेकिन हमारे अपने क्षेत्र से निकलते ही हमारी बोली समाप्त होती चली गयी और हमारी अगली पीढी को तो उसके बारे में जानकारी ही नहीं है। तो हम कैसे कहेंगे की हमारी अगली पीढी हमारे साहित्य या भाषा या बोली को बचाने में हमारी सहायक होगी। हमें अपनी बोली के प्रति जो लज्जा आती है पहले वह मिटाना ही सबसे पहली सीढ़ी होगी, किसी भी बोली और भाषा के प्रति उसमे सहायक बनने का वरना बस ऐसे ही हिंदी दिवस या ऐसे किसी मौके पर किसी की कोई भी दो लाइन प्रतिलिपि कर अपना नाम डाल इतिश्री कर लेंगे इससे किसी भी भाषा और बोली को हम समृद्ध नहीं करेंगे वरन उसे क्षय के रास्ते पर लेकर जायेंगे। 


कुछ लोग कहते है मेरी कविताओं में अशुद्धियाँ होती है जिसे मैं स्वीकारता हूँ और उसका तत्काल निष्पादन करने की कोशिश करता हूँ जबतक अशुद्धियाँ नहीं होंगी तो मैं या कोई भी सीखेंगे कैसे? क्या जो हिंदी में या अंग्रेजी में या संस्कृत या प्राकृत में या कैथी में उच्च शिक्षित है वे गलती नहीं करते है अवश्य करते होंगे और करते भी है और ऐसा मैंने बड़े-बड़े विद्वानों को मंचों से स्वीकारते सूना है गलती होने स्वाभाविक है लेकिन क्या आप उस गलती से सीख पाते है यह बड़ी बात होती है। बदलाव मनुष्य के प्रकृति का नियम है इसीलिए हम मनुष्य है और हमें इसके साथ जीने आना चाहिए। क्या वे इस बात को स्वीकारते है की उनसे भी कई त्रुटियाँ होती है शायद नहीं क्योंकि उनका उच्च शिक्षित होना उन्हें ऐसा करने से रोकता है। हिंदी या किसी भी स्थानीय बोली की समृद्धि हम जैसे नौसीखिए से ही होनी है किसी प्रकांड शिक्षित व्यक्ति से भाषा या साहित्य में समृद्धि संभव है उसे जन-जन तक ले जाना मुश्किल है क्योंकि उनकी बातें या उनकी कवितायें समझने के लिए भी उनके इस्तेमाल किये शब्दों का ज्ञान होना माँगता है। हम जैसे नौसीखिए लोगों की कविताये बिना पैसे खर्च किये लोग पढ़ते है आपकी कविताएं और लेख पढ़ने और सुनने के लिए पैसे खर्च करने पड़ते है जो सामान्य जन के बस की बात नहीं है। मुझे पता है जैसे लिखता हूँ सही-गलत लोग पकड़ते है की मैं कहना क्या चाहता हूँ मेरी बातों को समझने के लिए शब्दकोष की जरुरत नहीं पड़ती है। आखिर में मैं डॉ बिरेन्द्र कुमार 'चन्द्रसखी' जी को उद्धृत करना चाहूँगा।  उनके शब्दों में "इस देश की मिटटी से अवश्य जुड़िये हिंदी अपने आप आ जायेगी। चन्दन की बिंदी लगाइए या ना लगाइए लेकिन इस देश की मिटटी की बिंदी अवश्य लगाइए"। 

धन्यवाद

©️✍️शशि धर कुमार

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