Saturday 7 December 2019

Delhi Unnao Hyderbad Ranchi Darbhanga

दिल्ली हो या हैदराबाद या उन्नाव या बक्सर हो या दरभंगा हो या सुपौल हो या राँची इस देश का कोई भी शहर/कस्बा/गांव बचा है क्या जहाँ से हम इस प्रकार की खबरें ना सुन पाए.... बलात्कारियों को फांसी कब?

एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते मैं न्यायिक प्रक्रिया से मिलने वाली सजा और इंसाफ का पक्षधर हूं। लेकिन दरिंदगी की ऐसी घटनाओं को देखकर सिर्फ एक बेटी का बाप रह जाता हूँ। तब यही लगता है कि दरिंदों में खौफ के लिए कभी कभी एनकाउंटर भी ज़रूरी है। मैं जानता हूँ कि ये भावावेश है....दिमाग सोच सकता है तार्किक बातें लेकिन एक बेटी के बाप का दिमाग नही। हम सबको पता है कि एनकाउंटर कोई समाधान नहीं लेकिन जिस सिस्टम ने आज तक निर्भया को इंसाफ नहीं दिया वो आंध्र प्रदेश की बेटी को क्या देता? उन्नाव की बेटी को इंसाफ मिलेगा या नही वह भविष्य के गर्भ में है। एक बार हम उस बच्ची की जगह खुद को रखकर देखे...रूह कांप जाएगी...इतना बुरा लग रहा है की शब्द भी कम पड़ जा रहे है।

हैदराबाद का पुलिस एनकाउंटर और आम जनता को इससे मिलने वाली ख़ुशी सिर्फ और सिर्फ इस देश की न्यायिक व्यवस्था की हार और उस हारी हुई लचर व्यवस्था पर से उठ चुके जनता के विश्वास को दर्शाता है। क्या उन परिवारों का सामाजिक बहिष्कार होगा जिन्होंने अपने बलात्कारी बेटों को दंडित करने की बजाय साथ खड़े होकर उन्नाव की बेटी को ज़िंदा जलाया? संसद में बैठे वोट के ठेकादारों ने ना ही तब क़ानून बनाया न अब बनाएँगे ऐसा लगता है और वे अपने अपने वोटों की जरूरतों के हिसाब से अपना अपना बयान दे रहे है तो हमारी-आपकी सामाजिक ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है।

उन न्यायाधीश महोदय से भी अवश्य प्रश्न पूछे जाने चाहिए की जब उन्नाव की बेटी ने आशंका जाहिर की थी अपनी सुरक्षा को लेकर उसके बाद भी जमानत मंजूर हुई। उन पुलिसकर्मियों पर कार्यवाही होनी चाहिए जिन्होंने इतने दिनों तक उस लड़की की शिकायत को एफआईआर तक नही लिखा। इस प्रकार की बातें सत्ता-व्यवस्था के प्रति जो अविश्वास दिखाता है वह हमारे न्यायपालिका के साथ साथ पूरे समाज के लिए भीषण अमंगलकारी है।

ज़िंदा जली उन्नाव की बेटी ने अकेले दम नहीं तोड़ा है, उसके साथ-साथ हमारी तथाकथित संवेदनशीलता, हमारे संस्कार, हमारी न्यायपालिका, हमारी व्यवस्था और हमारी राजनैतिक इच्छाशक्ति ने भी दम तोड़ा है ज़मीन के नीचे धधक रही असंतोष व बेचैनी की इस आग को राजनैतिक हुक्मरानों ने नही समझा तो वह दिन दूर नही जब जनता आपसे सवाल नही पूछेगी। इस गुस्से में धधकता एक ऐसी ज्वाला है जो सबकुछ जला कर खाक कर सकता है।

यह हमारे समाज का एक ऐसा घिनौना चेहरा है जिसके हम भी कही ना कही भागीदार है। हमारा समाज अपने बच्चों को वह संस्कार नही दे पा रहा है जिसकी उन्हें जरूरत है। मुझे लगता है हम समाज के तौर पर फेल है क्योंकि हमारी ज़िम्मेदारी अपने बच्चों तक ही सीमित करके हमने समाज के विचार को खत्म कर दिया है। हम अपने पड़ोस के लोगो को नही पहचान पा रहे है क्योंकि दूसरे से हाल चाल पूछना भी दूसरे की ज़िंदगी मे दखल देना हो गया, उसी की वजह से हमारा समाज उसका फल भुगत रहा है। 

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