मानसिक विकास से मेरा तात्पर्य उन असाधारण शक्तियों से है जो कभी कभी
किसी मानव विशेष में उदय होकर उसके जीवन को विश्व के रंगमंच पर चमका दिया करती
हैं। लोग देखकर आश्चर्यचकित हो जाते हैं। उनकी समझ में भी नहीं आता कि उन्हीं से
समान योग्यता रखने वाला एक साधारण व्यक्ति कैसे इस स्थिति तक पहुँच गया? उदाहरण
के लिए हिटलर को ही ले लीजिये। एक साधारण स्थिति के निर्धन व्यक्ति का लड़का था।
परिस्थितियाँ भी कोई विशेष अनुकूल न थीं फिर भी उसने अपने पराक्रम के बल पर एक बार
संसार की ईंट-से-ईंट बजा दी । यूरोपीय ही क्यों प्रायः सभी छोटे बड़े देश इस हलचल
में डगमगाने लगे थे। किसी को स्वप्न में भी विश्वास न था कि पददलित जर्मन राष्ट्र
का एक व्यक्ति इस प्रकार एक भीषण ज्वालामुखी का रूप धारण कर विश्व के कोने कोने
में आग उगलने लगेगा।
स्वयं अपने देश के इतिहास में ऐसी अनेक घटनाएँ देखने को मिल सकती
हैं। महाभारत में एकलव्य का चरित्र उल्लेखनीय है। एक साधारण भील के घर में जन्म
लेकर उसने वाणविद्या में जो कौशल दिखलाया वह द्रोणाचार्य के हृदय को भी प्रभावित
किये बिना न रह सका।
अब उपर्युक्त उदाहरणों में एकलव्य और हिटलर की महत्ता का क्या कारण
हो सकता है। यदि कहा जाय “वंशपरम्परा” तो दोनों ही ऐसे साधारण परिवार में जन्मे थे
जिनमें उत्पन्न व्यक्ति से कभी ऐसी आशा ही नहीं की जा सकती थी। शूद्र तो सामाजिक
बन्धनों के अनुसार वाणविद्या के किसी प्रकार अधिकारी ही न थे। रहा वातावरण- वह भी
इस प्रकार की महान विभूतियों को जन्म देने के अनुकूल नहीं कहा जा सकता। कितने ही
उसी श्रेणी के व्यक्ति उसी वातावरण में पलकर भी उनका अंशमात्र भी न हो सके। तब
हमें मानना पड़ेगा कि इन दो के अतिरिक्त कोई और भी शक्ति है जो व्यक्ति के जीवन के
निर्माण में सहायक होकर उसे सफलता के मार्ग पर आगे बढ़ा सकती है।
इस पर अधिक प्रकाश डालने के लिए हम एकलव्य का ही जीवन लेते हैं।
व्यक्ति की महत् की ओर बढ़ने की इच्छा स्वाभाविक होती है। कुछ अनायास ही
स्वनिश्चित महत्तम लक्ष्य की ओर खिसके चले जाते हैं। कुछ अपने को असमर्थ मानकर उधर
देखते भी नहीं और कुछ मार्ग की कठिनाइयों से हार मानकर बैठ रहते हैं। इनमें से
प्रथम की सफलता तो अनिवार्य ही है और शेष सभी की यदि असम्भव कहा जाय तो कुछ अनुचित
न होगा। कुरु और पाण्डु के पुत्रों को वाणविद्या का अभ्यास करते हुए देखकर वह भी
उसी लालसा से प्रेरित हो उनके गुरु द्रोणाचार्य के पास जाता है शूद्रकुलोत्पन्न
होने के कारण वह इसका अधिकारी नहीं समझा जाता। द्रोणाचार्य के इस अभिप्राय को
जानकर वह अपना सा मुँह लेकर रह जाता है। पर उसकी वह लालसा इतनी तीव्र थी कि वह
उसका दमन न कर सका। गुरु द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाकर वह एकान्त में जा
वाणविद्या का अभ्यास करने लगा। उसका कौशल बढ़ते बढ़ते यहाँ तक जा पहुँचा कि
पाण्डुनन्दन उसके समाने अपने को तुच्छ समझने लगे। गुरु अध्यक्षता में निरन्तर
अभ्यास करते हुए भी वे अपने को इतना समर्थ न बना सके । इसका क्या कारण था
? एकलव्य
में कोई तो बात ऐसी अवश्य थी जो पाण्डुनन्दनों में न थी। इसे जानने के लिए हमें
कोई विशेष परिश्रम करने की आवश्यकता न पड़ेगी। थोड़ा ही ध्यान देते ही हम देखेंगे
कि एकलव्य जो चीज लेकर गुरु के पास गया था वह थी उसकी इच्छा । इच्छा के अतिरिक्त
कोई भी दूसरी सुविधा उसके पास न थी। ‘इच्छा’ भी कोई साधारण इच्छा नहीं, जो
जरा सी ठेस लगते ही अन्तरमुखी होकर सदा के लिए विलीन हो जाती, प्रत्युत
वह तो उसका वह दुर्दमनीय रूप लेकर गया जो अपने प्रभाव से व्यक्ति को उसके
स्वाभाविक पथ से हटाकर विशिष्ट की ओर ले जाती है। वह विवश हो जाता है। एकलव्य के
जीवन में यह उसकी इसी ‘इच्छा’ शक्ति का प्रभाव था जो वह उन्नति के उस उच्चस्तर तक
पहुँच सका। अपनी इसी शक्ति के बल पर उसने असम्भव को भी सम्भव कर दिखाया। यही बात
हम हिटलर के भी जीवन में पाते हैं। नेपोलियन के जीवन में भी यही बात थी और यदि कहा
जाय कि संसार के प्रत्येक महापुरुष के जीवन में यही बात पायी जाती है तो अनुचित न
होगा।
अब स्वाभाविक प्रश्न यह होता है कि यह शक्ति प्रत्येक व्यक्ति में
पाई जाती है या किसी किसी में? यदि प्रत्येक में पाई जाती है तो सभी
में उसका उदय क्यों नहीं होता और यदि किसी किसी में तो उन विशेष व्यक्तियों को ही
क्यों प्रकृति की यह सुविधा प्राप्त होती है?
मनोविज्ञान हमें बतलाता है कि हमारी सभी प्रवृत्तियाँ जन्म जात होती
हैं। अनुकूल वातावरण पाकर कोई भी प्रवृत्ति जाग्रत हो सकती है। इस सिद्धान्त के
अनुसार कोई नवीन प्रवृत्ति भले ही न उदय हो सके पर जाग्रत प्रवृत्ति को
‘इच्छाशक्ति’ के आधार पर किसी ओर भी मोड़ा जा सकता है। यह हम पहले ही कह आये हैं
कि व्यक्ति की महत् की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति स्वाभाविक होती है, इसी
को यदि प्रबल इच्छा शक्ति का सहारा मिल जाय तो व्यक्ति किसी भी कार्य को करने में
समर्थ हो सकता है। धीरे-2 परिवर्तित होते हुए उसकी प्रवृत्ति
दूसरा ही रूप धारण कर लेती है। अब प्रश्न इस क्रमिक परिवर्तन के साथ-साथ
प्रत्यावर्तन का है। किस प्रकार व्यक्ति इस शक्ति को अर्जित कर अपने लक्ष्यभेद तक
पहुँच सकता है? इसका उत्तर पाने के लिए हमें ‘इच्छा’ का विश्लेषण करते हुए आगे बढ़ना
होगा।
किसी भी दूसरी ओर अपनी शक्ति का अपव्यय करने का अर्थ होगा लक्ष्य से
उतनी ही दूर पड़ जाना। उतनी वह शक्ति भी यदि इसी ओर लगा दी जाती तो सम्भवतः उस
मार्ग में और अधिक आगे बढ़ा जा सकता था। अतः लक्ष्य को स्थिर कर लेने की अनन्तर
आवश्यकता है एकाग्र निष्ठा और अध्यवसाय की। इतने में ही सब कुछ नहीं समझ लेना
चाहिये। इनके अतिरिक्त सबसे बड़ी आवश्यकता है आत्मविश्वास की। जब तक आपको स्वयं
अपनी शक्तियों पर विश्वास नहीं आप सभी कुछ भी करने में सफल नहीं हो सकते। इसके
बिना ‘इच्छाशक्ति’ की वृद्धि असंभव ही समझिये। आप निश्चित समझिये कि जिस कार्य को
आपने हाथ में लिया है आप उसे करने में पूर्ण समर्थ हैं। कोई भी बाधा, कोई
भी कठिनाई आपको रोक न सकेगी। उसके विपरीत यदि आप प्रारम्भ में ही भयान्वित हों
आत्मविश्वास को खो बैठे तो ‘हार’ निश्चित समझिये। कोई भी शक्ति आपको सफल होने में
सहायता नहीं दे सकती। इतना जान लेने के बाद हम इस परिणाम पर पहुँचते है कि हम उक्त
मानवीय गुणों का सहारा लेकर अपनी इच्छाशक्ति के द्वारा बड़े से बड़ा कार्य करने
में समर्थ हो सकते हैं।
अतः हम अन्त में इस निश्चय पर पहुँचते हैं कि व्यक्तित्व के पूर्ण
विकास में ‘इच्छाशक्ति’ का भी बहुत बड़ा हाथ है। इसके आधार पर बड़े बड़े असंभव
कार्यों को भी संभव कर दिखलाया जा सकता है और दिखलाया जा रहा है। इसी की न्यूनता
और अधिकता पर जीवन की सफलता की न्यूनता और अधिकता अवलम्बित है। वंशानुक्रम और
वातावरण की सारी कमियों को व्यक्ति ‘इच्छाशक्ति’ के द्वारा प्राप्त कर लक्ष्य भेद
की ओर अग्रसर हो सकता है।