Sunday, 15 January 2023

जोशीमठ - त्राशदी या मानवीय भूल

जोशीमठ सिर्फ एक ऐतिहासिक नगरी नहीं है धार्मिक नगरी भी है जो बदरीनाथ का द्वार भी है। यहाँ से लोग  केदारनाथ, बदरीनाथ और हेमकुंड साहिब जाते है इसको आप बेसकैम्प भी मान सकते है। गैज़ेटीयर ऑफ उत्तराखंड की माने तो 1881 की जनगणना के हिसाब से यहाँ 500 से भी कम लोग रहते थे और आज 17 हजार के करीब है।


प्रकृति अपने हिसाब से अपने हर चीज में सुधार या संतुलन लाने का का हर संभव प्रयास करती है आज जो जोशीमठ की हालत है इसके लिए प्रकृति कम जिम्मेदार है जितना मानवीय कारण। चमोली जिले में बसा यह शहर काफी पुराना है इसका अस्तित्व एक सराय की रूप में संसार के सामने तब आया जब जगद्गुरु आदि शंकराचार्य जी ने वहाँ पर तपस्या कर ज्ञान प्राप्त की और ज्ञान प्राप्त करने के बाद दर्शन की पूरी परिभाषा लिखी। आज अगर भारतीय दर्शन पढ़ना हो तो उसके बिना दर्शन पूर्ण नही माना जा सकता है। इस शहर का बहुत पुराना इतिहास रहा है लेकिन विकास के नाम पर जिस तरीके से आँख मूँदकर इस सजीव पहाड़ के साथ खिलवाड़ किया गया है यह त्रासदी उसी का नतीजा है। आज से 50 साल पहले तक जिस प्रकार पहाड़ो पर घर बनाये जाते थे आज उसकी स्थिति भी काफी बदली है जिसकी वजह से भी इन कच्चे पहाड़ो पर अतिरिक्त दवाब बढ़ा है। जहाँ सामान्तया दो मंजिला मकान बना होता था वहाँ लोगों ने चार मंजिला से लेकर दस मंजिला होटल खड़ा कर दिया। जो पहाड़ आज भी जीवित पहाड़ो में गिना जाता है और जो मलबे पर बना पहाड़ हो उसके लिए ऐसी क्षमता को सहन करने की शक्ति धीरे धीरे जाती रही। आज की स्थिति सिर्फ पिछले 50 सालों की नही है जब मिश्रा समिति की 1976 में रिपोर्ट आई थी उस रिपोर्ट में जो-जो कहा गया था अक्षरशः वही हो रहा है तो क्या अब सरकारों को भी सचेत नही हो जाना चाहिए कि पहाड़ो या प्रकृति से किस हद तक छेड़छाड़ संभव है इसको जाने बिना देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है।

आजकल सुषमा स्वराज जब विपक्ष की नेता थी तब की एक वीडियो वायरल हो रही है उन्होंने जो बातें संसद में कही थी आज दशक बीत जाने के बाद भी उसपर कोई भी केंद्र की सरकार हो या उत्तराखंड की सरकार हो किसी भी प्रकार से विचार करना तक उचित नही समझा। इसी संदर्भ में उमा भारती जी के भी बयान को देखा जाना चाहिए जब उन्होंने कहा था कि गंगा की अविरलता को रोकने के प्रयास पर रोक लगनी चाहिए गंगा सिर्फ एक नदी नही है यह करोड़ो लोगों के लिए कई प्रकार से जीवनदायिनी साबित हुई है अगर हम इसकी अविरलता को बांधने का प्रयास करेंगे तो कही ना कही हमें इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। शायद इसी वजह से केदारनाथ जैसा प्रलय आता रहा है और उत्तराखंड के पहाड़ो को बार बार हिलाकर मानो यह कहता रहा है कि हम अभी जीवित है हमें मरा हुआ समझने की भूल ना करो नही तो हम यूँ ही दरकते रहेंगे और आप विस्थापित होते रहेंगे। पहले टिहरी विस्थापित हुआ अब जोशीमठ विस्थापित होने की कगार पर है। हाल ही में इसरो द्वारा जारी रिपोर्ट आँख खोलने वाला साबित हो सकता है जिसमें कहा गया है कि जोशीमठ का पहाड़ धीरे धीरे धँस रहा है। क्या यह हमारे लिए चेतावनी नही है?

जोशीमठ का दरकना हमारे लिए प्रकृति की चेतावनी है कि हम किस हद तक प्रकृति का दोहन कर सकते है। सरकारों से निवेदन है कि वे चेत जाए नही तो एक दिन ऐसा आएगा जब पूरी सभ्यता नष्ट हो जाएगी और हम मूक दर्शक बने रहने के सिवा कुछ नही कर पाएंगे। जोशीमठ को बचाने का एक ही तरीका है कि उसे कही और बसाया जाय और जोशीमठ शहर को प्रकृति के साथ बांधकर रखने का प्रयास किया जाय ताकि वह शहर भी जिंदा रह सके।
धन्यवाद

शशि धर कुमार। 

Tuesday, 10 January 2023

Hindi - हिंदी

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल,

बिनु निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।

अँग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन,

पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।

~ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

पुरस्कारों के नाम हिन्दी में हैं

हथियारों के अंग्रेज़ी में

युद्ध की भाषा अंग्रेज़ी है

विजय की हिन्दी।

~ रघुवीर सहाय

लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है

मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है।

~ मुनव्वर राना

ऊपर तीन अलग अलग समय के लोगों द्वारा हिंदी को परिभाषित करने की कोशिश है उसे समझने की आवश्यकता है। तभी आप हिंदी की महत्ता को समझ पायेंगे।

१४ वे शब्द जो मेरे लिए है ख़ास 

१) मां

२) जीवन

३) दुलार

४) बचपन

५) स्नेह

६) जवानी

७) प्यार

८) अभिलाषा

९) स्पर्श

१०) क्रोध

११) अपमान

१२) अलगाव

१३) मौत

१४) मिट्टी

अगर हर रोज आप खुद से और अपने लोगों से करीब दस हिंदी शब्दों का प्रयोग करके भी बात कर लें तो हमारा हिंदी के प्रति प्यार दिख जायेगा और हिंदी भाषा के साथ थोड़ा इंसाफ हो जायेगा।

मुझे पता है मैं बिहारी हूँ मेरी हिंदी के व्याकरण के हिसाब से कुछ कमजोरियां भी है और मैं उसे मानता भी हूँ क्या आप मानते है? आप नहीं मानेंगे क्योंकि आपको लगता है आपकी ही हिंदी शुद्ध है, समस्या है और मुझे लगता है आज जो हिंदी लिखी या बोली जाती है। वह हर क्षेत्र में स्थानीय तौर पर बोली जानी वाली बोलियों का सम्मिश्रण है आप बिहार के सीमांचल में जायेंगे तो आपको हिंदी में ठेठी जो अंगिका का ही अप्रभंश बोलते है उसका मिश्रण मिलेगा अगर आप भागलपुर परिक्षेत्र में होंगे तो वहां अलग है अगर आप भोजपुर में है तो वहां अलग है अगर आप मिथिला में है तो वहां अलग है अगर आप नेपाल जाएँ तो आपको अलग मिलेगी। उसी प्रकार मध्य प्रदेश में अलग अलग परिक्षेत्र के हिसाब से आपको सम्मिश्रित ही मिलेगी। अगर आप उत्तर प्रदेश की बात करे तो आपको उसमे ब्रज भाखा, बुन्देली, चंदेली आदि का भी सम्मिश्रण मिलेगा। अगर आप हरियाण जाएँ तो वहां की अलग ही हिंदी है अगर आप राजस्थान जाएँ तो वहां की हिंदी अलग है तो सवाल है हिंदी है क्या? हिंदी बोलने में और लिखने में अलग अलग हो जाती है क्योंकि बोलने में बोली का सम्मिश्रण होता है लेकिन लिखने में तो व्याकरण के प्रयोग के कारण एक ही रहता है तो इसीलिए किसी के हिंदी बोलने का मखौल उड़ाने से पहले यह सोचियेगा की क्या आप सही और शुद्ध हिंदी बोल पाते है? मेरे जैसे बिहारी जो मैं को आज भी दिल्ली में इतने साल रहने के बाद भी हम ही बोलता है मुझे पता है व्याकरण के तौर पर मैं गलत हूँ लेकिन हम का मतलब सिर्फ मेरी बात नहीं होती है पुरे कुटुंब की बात होती है।

सवाल सिर्फ अपने आप से पूछने पर ही जवाब मिल सकता है बांकी सब तो छलावा है क्योंकि अगर कोई कहता है कि आप गलत हिंदी बोल रहे है तो मानना पड़ेगा की मैं गलत बोल रहा हूँ तभी सुधार संभव है लेकिन हिंदी हार्टलैंड के नाम से मशहूर उत्तर भारत के हिंदी भाषी लोग सिर्फ अपने आपको को ही शुद्ध हिंदी बोलने वाला मानते हो तो सुधार की गुंजाईश कम रह जाती है।

हिंदी को जीवन में अपनाए तभी हिंदी की सार्थकता साबित हो पायेगी सभी भाषाओ का सम्मान करना सीखे,  खासकर हिंदी अगर आपकी मातृभाषा है तो यह बहुत जरुरी हो जाता है। ✍

धन्यवाद
शशि धर कुमार

Friday, 6 January 2023

कोशी के वटवृक्ष

यह किताब मैंने 2022 के पूर्वाध में मंगाई थी लेकिन एक चैप्टर बाद यह रह गयी थी तो मैने सोचा कि साल के शुरुआत में ही इसको पढ़ लिया जाय। यह कहानी सुपौल जिले के उन बुजुर्गों की है जिनका 2008 के कोशी के बाढ़ में सब कुछ छीन गया। पुष्यमित्र जी लिखित यह किताब काफी रिसर्च और आँकड़ो पर आधारित है। 

2008 के बाढ़ के बाद सुपौल जिले के इन बुजुर्गों का घर बार सब कुछ छीन गया यहाँ तक कि रिश्तों की गर्माहट को भी कोशी के बाढ़ में बहकर आये रेतों ने पूरी तरह ढँक दिया था। जब चारों ओर अँधेरा हो तो चाहे उम्र कोई भी हो लोग उजाला ढूँढने का प्रयास ही करते है यही मानव जीवन है भले कोशी ने 1954 के बाद 2008 में कोशी डायन का रूप लेकर सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, पूर्णिया, अररिया में जिस तरह की विभीषिका देखी वह दशकों में एक बार देखने को मिलती है। 

यह विभीषिका इतनी बड़ी थी कि तत्कालीन केंद्र की सरकार को इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित करना पड़ा। राष्ट्रीय आपदा घोषित करने से ऐसी विभीषिकाओं में सब कुछ खो चुके लोगों को कितना फायदा पहुँचता है यह तो समय ही बताता है लेकिन ऐसी आपदाओं से लोग खुद ही किसी तरह निकलते है चाहे तमिलनाडु का सुनामी झेल चुके लोग या उत्तराखंड की त्रासदी झेल चुके लोग हो आखिरकार उन्हें खुद ही अपने लिए रास्ता निकालना होता है ऐसी त्रासदियों से बाहर निकलने का। सरकारी योजना कुछ जगह पहुंचती तो है लेकिन अधिकतर जगह यह भ्रस्टाचार की भेंट चढ़ती हुई दिखाई पड़ती है। सुपौल में लोगों ने हेल्पेज इंडिया की मदद से बुजुर्गो ने न सिर्फ अपने आप को खड़ा किया बल्कि ऐसे कई सामाजिक बुराइयों से बाहर निकलकर समाज में एक उदाहरण पेश किया जो यह साबित करता है कि बुजुर्ग चाहे किसी उम्र के हो उन्हें अगर थोड़ी सी भी सहायता मिले तो वे पहाड़ भी चढ़ सकते है। यही सुपौल जिले के इन बुजुर्गो ने कर दिखाया। जब आदमी के पास खोने को कुछ नही रहता है तब वे ज्यादा जोश के साथ अपनी ही गलतियों के साथ सीखते हुए आगे बढ़ते है यही इन बुजुर्गो ने किया। जब इन्हें लगा कि अब इनका साथ सबने छोड़ दिया है यहाँ तक कि उनके परिवार वाले भी इन्हें बोझ समझने लगे तो इसी अंधेरे में हेल्पेज इंडिया इनको एक तरह से रोशनी दिखाने की कोशिश करती है। लेकिन जब आप ऐसे सामाजिक कार्य को हाथ मे लेते है यह हमेशा से होता आया है कि समाज के वे लोग जिनके स्वार्थो पर ऐसे कामों से कुठाराघात होता है वे आपका हर संभव विरोध करते है। भले ही लेखक इस किताब के माध्यम से कुछ चीजों पर पर्देदारी की हो लेकिन मैं भी संयोगवश उसी कोशी की विभीषिका देखने वालों में से हूँ जो हर साल इस मंजर को देखता है चाहे कम स्तर पर हो या बृहद स्तर पर। 

इस कहानी में हर किरदार अलग है अलग पृष्ठभूमि से आता है अलग अलग जाति समुदाय या अलग अलग धर्मो के लोग एक मंच पर आकर इन बुजुर्गो ने न सिर्फ अपनी जमीन तैयार की बल्कि इस इलाके के युवाओं में जो दिल्ली पंजाब जाकर काम करने की रफ्तार थी उसपर भी रोक लगाया। इससे मजदूरों का पलायन रुका, साथ में परिवार के लोगों ने इन बुजुर्गों को एक एसेट की तरह देखना शुरू किया। और बुजुर्गों ने भी इतना होने के बाद भी अपने बच्चों को वापस मुख्यधारा में लाने का हर संभव प्रयास किया चाहे वह बुजुर्गों का मान सम्मान करना हो या बुजुर्गों द्वारा अपने बच्चों के लिए रोजगार के द्वार खोलना, दोनों तरफ से एक दूसरे को समझने की भरपूर कोशिश हुई और आज इस ग्राम सहायता समूह ने अपना एक रजिस्टर्ड संस्था बनाया है जिसमें सुपौल, मधुबनी और दरभंगा जिले के लगभग 6000 बुजुर्ग इससे जुड़कर 6000 परिवारों की जिंदगी में बदलाव लाने का हरसंभव प्रयास हो रहा है। आज यह ग्रुप इतना सक्षम है कि किसी भी तरह की प्राकृतिक विपत्ति आने पर ये लोग अपना कर्ज चुकाने के नाम पर अनाज , पैसा और पशुओं के लिए भी चारे का इंतजाम करते है। क्योंकि इन्हें लगता है जब इनपर विपत्ति आयी थी तो देशभर के लोगों ने इनकी मदद की थी और यह इनपर एक कर्ज है जो उतार तो नही सकते है लेकिन उसके हिस्से को कम अवश्य करते है यही वजह है जब उत्तराखंड में त्रासदी आयी थी तो इस ग्रुप ने 5 लाख 40 हजार रुपैया यह कहकर दिया कि इसे दान ना समझा जाए यह उनपर कर्ज है जो वे इस मदद के साथ इसको कम करना चाहते है। ऐसा ही जब 2019 में मधुबनी में बाढ़ आई थी तो इस ग्रुप ने 2500 परिवारों के लिए सूखा राशन और 25 क्विंटल पशुओं के लिए चारा भी भेजा था। आप कल्पना कीजिये यह ग्रुप ऐसे उम्र के लोगों की है जिसे उम्र के इस पड़ाव में रिटायर्ड मान लिया जाता है और वे आज 6000 परिवारों के लिए एक मिसाल बन रहे है जो उम्र के आखिरी पड़ाव में जीवन जीने के तरीके को समझने का प्रयास कर रहे है साथ में कई लोगों के जीवन मे बदलाव भी ला रहे है। लेखक Pushya Mitra जी का धन्यवाद इतनी बढ़िया और प्रेरणादायक कहानी समाज के बीच में लाने के लिए। 

धन्यवाद।

शशि धर कुमार

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