माना जाता है की कांग्रेस ने आज़ादी से आज तक जब भी सत्ता में रही उन्होंने बहुत कुछ दिया देश को, इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता लेकिन हम अगर अपने समकक्ष आज़ाद हुए देशो की तुलना अपने देश से करे, अपने कुछ एक परोसी देश को छोड़ के, हम आम आदमी के विकाश में कही पीछे रह गए है। तो हमे उन देशो के साथ हमे ये देखना होगा ही हम ऐसे कैसे पीछे रह गए। क्या हमारे यहाँ इच्छाशक्ति की कमी है नहीं, हमारे यहाँ युवाओं की कमी है नहीं, क्या हमारे यहाँ स्किल्ड युवाओ की कमी है नहीं। फिर ऐसी क्या बात है जो हम पीछे रह गए सिर्फ और सिर्फ राजनितिक दूरदर्शिता जो देश के भविष्य को नहीं सोच के, वे सिर्फ अपने भविष्य को सोच रहे है।
तो प्रश्न उठता है किसने किया ये और किसकी गलती थी की हम पीछे रह गए?
सीधी सी बात है जिसने राज किया देश पे उनकी गलती थी फिर इस बात को सिद्ध करने के लिए हमे कुछ उदाहरण देने होंगे जो निम्नलिखित है:
१) राजनितिक सत्ता पाने के लिए हमने ऐसे अनावश्यक तत्वों को राजनीती में शामिल किया जो कही से भी समाज से बाहर रहने लायक है।
२) केंद्र की राजनीती का राज्य स्तर पर विकेंद्रीकरण होना।
३) राज्य स्तर की पार्टियों का केंद्र की राजनीति में शामिल होना।
४) राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों का राज्य स्तर पे भूमिका कम होना।
५) राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों का विश्वास कम हो जाना।
६) कुछ ऐसे निर्णय जिनके लागु होने में देरी।
७) कुछ ऐसे निर्णय जिनका सही तरह से पालन ना होना।
८) चाहे कोई कानून कितना ही महत्वपूर्ण क्यों ना हो देश के लिए, हमे खिलाफ में ही बोलना है जैसी सोच विपक्ष के सांसदों का।
९) देश की जांच एजेंसियों का राजनितिक विद्वेष के लिए उपयोग करना।
१०) राजनीतिज्ञों की भाषा की शालीनता का क्षय होना।
और भी कुछ लाइने जुड़ सकती है इसमें। उपरोक्त पंक्तियाँ गिनाने के लिए छोटी है लेकिन इनके आशय बड़े है हमे इनको समझने की कोशिश करनी होगी।
मुझे अब भी याद है की जब वी पी सिंह की सरकार बनी थी तो उस समय चुनावो में जनता पार्टी ने ये नारा दिया था "गली गली में शोर है, राजीव गांधी चोर है।" क्या यह नारा सही था? क्या यह नारा कही से राजीव गांधी जी को गलत नहीं लगा होगा? क्या राजीव गांधी जी को ये नहीं लगा होगा की ये मानहानि की बात है। बिना किसी पर्याप्त सबूतो के इस तरह का नारा देना कहा तक सही था? लेकिन अगर आज कोई इस तरह की बात करे तो दो बाते आएँगी:
१) ये राजनितिक साजिश है।
२) इनके पास बोलने के लिये कुछ नहीं है इसीलिए ऐसी अनर्गल बात कर रहे है।
३) हम इन्हें कोर्ट में चुनौती देंगे।
४) हम तत्काल इनका इस्तीफा मांगते है।
५) हमने कोई घोटाला नहीं किया ये अपना घोटाला छुपाने के लिए ऐसा कह रहे है।
६) हम आंदोलन करेंगे, हम इन्हें बेनकाब कर के रहेंगे इत्यादि।
क्या ये राजनितिक असहिष्णुता है, कही से नहीं। राजनितिक असहिष्णुता तो तब हो जब आपको ये समझ आये की ये राजनीती है इसीलिए ये बाते तो होती रहती है बेहतर हो इन राजनितिक आक्षेपो का राजनितिक जवाब दिया जाये ना की व्यक्तिगत आक्षेप लगाया जाये। कहने की बात सिर्फ ये है की अगर आप राजनीती में होते है तो इन छोटे बड़े आक्षेपो को राजनितिक जवाब देने आना चाहिए।
लेकिन लग नहीं रहा है आज के राजनेताओ को ये कला सही से आती है क्योंकि वे बड़ी जल्दी होश खो देते है क्या ये राजनितिक सहिष्णुता का परिचय है यहाँ पे कुछ उदाहरण देना आवश्यक है
१) राकेश कुमार जी के सीबीआई जाँच पे अरविन्द केजरीवाल जी का माहात्म्य।
२) नेशनल हेराल्ड वाले केस में राहुल गांधी जी का ये कहना की इस केस के बारे में सबको पता है किसका हाथ है और राजनितिक बदले की साजिश बोलना।
३) नितीश कुमार जी का डीएनए वाली बात को पुरे बिहार वासियो का डीएनए से तुलना करना और कुछ लोगो का डीएनए रिपोर्ट प्रधानमंत्री कार्यालय भेजना।
४) बार बार बीजेपी के प्रवक्ताओ का ये कहना की कांग्रेस को जनता ने नकार दिया है, ये सही है नकार दिया है आप भी इस मुगालते में ना रहे ५ साल बाद आपकी भी छुट्टी हो सकती है थोड़ा अहं कम कर ले और जनता के लिए काम करे।
क्या ये राजनितिक असहिष्णुता नहीं है? जब हम राजीव गांधी जी के ज़माने का आज से तुलना करते है तो इसका मतलब है आप अपनी राजनितिक असहिष्णुता की तुलना करे की तब क्या थी आज क्या है।
संसद के शीतकालीन सत्र को देख कर तो ऐसा ही लगता है क्योंकि एक राजनितिक पार्टी के ऊपर केस में कोर्ट में पेशी को लेकर इतना हाय तौबा मचा की सत्र का १० दिन पूरी तरह धूल गया। क्या यह राजनितिक अदूरदर्शिता या राजनितिक असहिष्णुता है? आप कुछ भी मान सकते है ये आपकी सोच पे निर्भर करता है। क्या हम कभी जागेंगे की हमने इन्हें इसी तरह से संसद में व्यवहार करने के लिए चुना है। ५४५ सांसद में से कुछ एक ४५-५० सांसदों ने पूरी तरह संसद को चलने नहीं दिया। एक और उदाहरण हम ले सकते है एक सांसद महोदय ने एक पत्रिका के लेख के आधार पे संसद में ये कह देना की देश कुछ एक सौ सालो बाद हिन्दू कट्टरपंथी शासक आया है और उसके कुछ घंटे बाद उस पत्रिका ने अपने उस खेद जताया लेकिन हमारे सांसद महोदय ने कुछ नहीं कहा, क्या सांसद महोदय को भी माफ़ी नहीं मांगनी चाहिए थी। आपको जनता ने जिम्मेदारी पूर्वक बात करने के लिए संसद में भेजा है।
इसी सत्र में संसद में असहिष्णुता को लेकर बहस होना तय हुआ क्योंकि देश के कुछ राजनितिक पार्टियां ऐसा चाहती थी। क्योंकि उन्हें चेन्नई जैसे शहर का १०० सालो में सबसे बुरा हाल रहा दिखाई नहीं दिया, उन्हें देश में मर रहे किसानो का हाल दिखाई नहीं दिया। और जब संसद में असहिष्णुता पर बहस शुरू हुई तो कई सांसद संसद से नदारद नजर आये। कुछ ने तो अपने भाषणों में ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया जो कही से आम बोलचाल की भाषा में उपयुक्त नहीं ठहराई जा सकती, ये सुन के सिर्फ ये कहा जा सकता है की ये सिर्फ राजनितिक विद्वेष के लिए कही गई बाते है और ऐसे शब्दों का इस्तेमाल कुछ माननीय कहे जाने वाले सांसदों ने उठाया। संसद में किसी बात पे बहस क्यों होती है और क्यों होनी चाहिए, अगर आसान शब्दों में समझा जाये तो ये कहा जायेगा की किसी भी मुद्दे पे सांसदों की राय जानना लेकिन यहाँ पे लगता है आपको अपने पार्टी की तरफ से बोलना होता है चाहे वो मुद्दा उस सांसद और उसके क्षेत्र के लिये कितना ही महत्वपूर्ण क्यों ना हो।
तो प्रश्न उठता है किसने किया ये और किसकी गलती थी की हम पीछे रह गए?
सीधी सी बात है जिसने राज किया देश पे उनकी गलती थी फिर इस बात को सिद्ध करने के लिए हमे कुछ उदाहरण देने होंगे जो निम्नलिखित है:
१) राजनितिक सत्ता पाने के लिए हमने ऐसे अनावश्यक तत्वों को राजनीती में शामिल किया जो कही से भी समाज से बाहर रहने लायक है।
२) केंद्र की राजनीती का राज्य स्तर पर विकेंद्रीकरण होना।
३) राज्य स्तर की पार्टियों का केंद्र की राजनीति में शामिल होना।
४) राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों का राज्य स्तर पे भूमिका कम होना।
५) राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों का विश्वास कम हो जाना।
६) कुछ ऐसे निर्णय जिनके लागु होने में देरी।
७) कुछ ऐसे निर्णय जिनका सही तरह से पालन ना होना।
८) चाहे कोई कानून कितना ही महत्वपूर्ण क्यों ना हो देश के लिए, हमे खिलाफ में ही बोलना है जैसी सोच विपक्ष के सांसदों का।
९) देश की जांच एजेंसियों का राजनितिक विद्वेष के लिए उपयोग करना।
१०) राजनीतिज्ञों की भाषा की शालीनता का क्षय होना।
और भी कुछ लाइने जुड़ सकती है इसमें। उपरोक्त पंक्तियाँ गिनाने के लिए छोटी है लेकिन इनके आशय बड़े है हमे इनको समझने की कोशिश करनी होगी।
मुझे अब भी याद है की जब वी पी सिंह की सरकार बनी थी तो उस समय चुनावो में जनता पार्टी ने ये नारा दिया था "गली गली में शोर है, राजीव गांधी चोर है।" क्या यह नारा सही था? क्या यह नारा कही से राजीव गांधी जी को गलत नहीं लगा होगा? क्या राजीव गांधी जी को ये नहीं लगा होगा की ये मानहानि की बात है। बिना किसी पर्याप्त सबूतो के इस तरह का नारा देना कहा तक सही था? लेकिन अगर आज कोई इस तरह की बात करे तो दो बाते आएँगी:
१) ये राजनितिक साजिश है।
२) इनके पास बोलने के लिये कुछ नहीं है इसीलिए ऐसी अनर्गल बात कर रहे है।
३) हम इन्हें कोर्ट में चुनौती देंगे।
४) हम तत्काल इनका इस्तीफा मांगते है।
५) हमने कोई घोटाला नहीं किया ये अपना घोटाला छुपाने के लिए ऐसा कह रहे है।
६) हम आंदोलन करेंगे, हम इन्हें बेनकाब कर के रहेंगे इत्यादि।
क्या ये राजनितिक असहिष्णुता है, कही से नहीं। राजनितिक असहिष्णुता तो तब हो जब आपको ये समझ आये की ये राजनीती है इसीलिए ये बाते तो होती रहती है बेहतर हो इन राजनितिक आक्षेपो का राजनितिक जवाब दिया जाये ना की व्यक्तिगत आक्षेप लगाया जाये। कहने की बात सिर्फ ये है की अगर आप राजनीती में होते है तो इन छोटे बड़े आक्षेपो को राजनितिक जवाब देने आना चाहिए।
लेकिन लग नहीं रहा है आज के राजनेताओ को ये कला सही से आती है क्योंकि वे बड़ी जल्दी होश खो देते है क्या ये राजनितिक सहिष्णुता का परिचय है यहाँ पे कुछ उदाहरण देना आवश्यक है
१) राकेश कुमार जी के सीबीआई जाँच पे अरविन्द केजरीवाल जी का माहात्म्य।
२) नेशनल हेराल्ड वाले केस में राहुल गांधी जी का ये कहना की इस केस के बारे में सबको पता है किसका हाथ है और राजनितिक बदले की साजिश बोलना।
३) नितीश कुमार जी का डीएनए वाली बात को पुरे बिहार वासियो का डीएनए से तुलना करना और कुछ लोगो का डीएनए रिपोर्ट प्रधानमंत्री कार्यालय भेजना।
४) बार बार बीजेपी के प्रवक्ताओ का ये कहना की कांग्रेस को जनता ने नकार दिया है, ये सही है नकार दिया है आप भी इस मुगालते में ना रहे ५ साल बाद आपकी भी छुट्टी हो सकती है थोड़ा अहं कम कर ले और जनता के लिए काम करे।
क्या ये राजनितिक असहिष्णुता नहीं है? जब हम राजीव गांधी जी के ज़माने का आज से तुलना करते है तो इसका मतलब है आप अपनी राजनितिक असहिष्णुता की तुलना करे की तब क्या थी आज क्या है।
संसद के शीतकालीन सत्र को देख कर तो ऐसा ही लगता है क्योंकि एक राजनितिक पार्टी के ऊपर केस में कोर्ट में पेशी को लेकर इतना हाय तौबा मचा की सत्र का १० दिन पूरी तरह धूल गया। क्या यह राजनितिक अदूरदर्शिता या राजनितिक असहिष्णुता है? आप कुछ भी मान सकते है ये आपकी सोच पे निर्भर करता है। क्या हम कभी जागेंगे की हमने इन्हें इसी तरह से संसद में व्यवहार करने के लिए चुना है। ५४५ सांसद में से कुछ एक ४५-५० सांसदों ने पूरी तरह संसद को चलने नहीं दिया। एक और उदाहरण हम ले सकते है एक सांसद महोदय ने एक पत्रिका के लेख के आधार पे संसद में ये कह देना की देश कुछ एक सौ सालो बाद हिन्दू कट्टरपंथी शासक आया है और उसके कुछ घंटे बाद उस पत्रिका ने अपने उस खेद जताया लेकिन हमारे सांसद महोदय ने कुछ नहीं कहा, क्या सांसद महोदय को भी माफ़ी नहीं मांगनी चाहिए थी। आपको जनता ने जिम्मेदारी पूर्वक बात करने के लिए संसद में भेजा है।
इसी सत्र में संसद में असहिष्णुता को लेकर बहस होना तय हुआ क्योंकि देश के कुछ राजनितिक पार्टियां ऐसा चाहती थी। क्योंकि उन्हें चेन्नई जैसे शहर का १०० सालो में सबसे बुरा हाल रहा दिखाई नहीं दिया, उन्हें देश में मर रहे किसानो का हाल दिखाई नहीं दिया। और जब संसद में असहिष्णुता पर बहस शुरू हुई तो कई सांसद संसद से नदारद नजर आये। कुछ ने तो अपने भाषणों में ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया जो कही से आम बोलचाल की भाषा में उपयुक्त नहीं ठहराई जा सकती, ये सुन के सिर्फ ये कहा जा सकता है की ये सिर्फ राजनितिक विद्वेष के लिए कही गई बाते है और ऐसे शब्दों का इस्तेमाल कुछ माननीय कहे जाने वाले सांसदों ने उठाया। संसद में किसी बात पे बहस क्यों होती है और क्यों होनी चाहिए, अगर आसान शब्दों में समझा जाये तो ये कहा जायेगा की किसी भी मुद्दे पे सांसदों की राय जानना लेकिन यहाँ पे लगता है आपको अपने पार्टी की तरफ से बोलना होता है चाहे वो मुद्दा उस सांसद और उसके क्षेत्र के लिये कितना ही महत्वपूर्ण क्यों ना हो।