Sunday, 27 December 2015

बिहार में शिक्षा की बदहाली

बिहार के शिक्षा की स्तिथि जो भी है पहले से तो बेहतर नहीं है ये सबको पता है लेकिन अगर इसकी नजदीक से समीक्षा की जाये तो इसके लिए जितने जिम्मेदार राजनेता है उतने ही जिम्मेदार हमारे शिक्षक भी है। और साथ में हमारा समाज भी उतना ही जिम्मेदार है। बिहार में इस बदहाल शिक्षा की स्तिथि आज की नहीं है ये तब से शुरू हुई जब से हमारे माननीय लालू प्रसाद जी बिहार के मुख्यमंत्री बने। उसके पहले के मुख्यमंत्रियों को मैं जिम्मेदार इसलिए नहीं मानता क्योंकि एक तो उस समय मुझे ज्ञान नहीं था की सही क्या है और गलत क्या है। लेकिन फिर भी उस समय जो भी मैंने देखा और समझा है उस समय के शिक्षक स्कूल आते थे और पढ़ाते भी थे। मैं ये नहीं कहता की आजकल के शिक्षक स्कूल आते नहीं और पढ़ाते नहीं, कुछ लोग आते भी है अच्छी तरह पढ़ाते भी है।


तो फिर चूक कहा हुई ये जानने की जरुरत है। शिक्षा का स्तर सैद्धान्तिक स्तर पर सही में अगर गिरा तो वो लालू प्रसाद जी के समय ही। क्योंकि उस समय जब लालू प्रसाद जी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे तो सिर्फ इस बात को लेकर की हम अति पिछड़ी जाती को वह सम्मान दिलाएंगे जिसके वे हक़दार है। क्योंकि उनकी राजनीती की शुरुआत ही हुई थी अगड़ो की मुखालफत से। और यही से शिक्षा संस्थानों में पिछड़ो की पकड़ बनाने की कोशिश गलत दिशा में चली गयी। ये सही है उस समय तक पिछड़ो की ना तो कोई सामाजिक पहचान थी ना ही अगड़ो के बीच उनकी बैठने की हैसियत। क्यों? क्योंकि ना तो वे शिक्षित ही थे ना ही आर्थिक रूप से इतने समृद्ध की वे अगड़ो के बीच अपनी बात रख सके। क्योंकि पूरी की पूरी जमात जो निर्णय लेने वाली जगह थी वो अगड़ो से भरी हुई थी। यही से शुरू हुआ बिहार में अगड़ो और पिछड़ो की राजनीती जिसने बी पी मंडल जैसे पिछड़े राजनेताओ को देश की राजनीती में राष्ट्रीय पटल पे ला खड़ा किया। खैर आते है मुख्य मुद्दे पर। हाँ इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता की उन्होंने पिछड़ो को आवाज दी। लेकिन साथ में शिक्षा संस्थानों में पिछड़ो का पकड़ बनाने के चक्कर में हम ये भूल गए जिस शिक्षा संस्थानों में पिछड़ो के पकड़ की बात करते है उन पदों पर बैठने के लिए भी हमे अच्छे और विद्वान लोगो के संख्या बल की जरुरत थी जो पिछड़ो में नहीं थी। और पिछड़ो का पकड़ बनाने की बहस ऐसे संस्थानों में कुछ अयोग्य व्यक्तियों की नियुक्ति से हमारे लिए अच्छी शिक्षा का ह्रास कर गया। हमारे उस समय का शासन हमे ये बताने में नाकाम रहा की सिर्फ डिग्री पाना ही नौकरी की गारन्टी नहीं होती, ऐसी शिक्षा से हम डिग्री और नौकरी पा भी ले लेकिन वो हमे उस वास्तविक जीवन को जीने में आने वाली कठनाइओ से पार पाने की हिम्मत कतई नहीं दिला सकता और हम समाज को अच्छी दिशा ले जाने में कामयाब कतई नहीं हो सकते। और ये हुआ भी उस समय के पढ़े लिखे नौजवान जब तक समझते तब तक काफी देर हो चुकी थी क्योंकि एक नस्ल तो निकल चुकी थी ऐसी डिग्रियां ले कर। लेकिन बाहर निकलते ही पता चला ऐसी डिग्री किसी काम की नहीं और उनके सामने जीवन का घोड़ अँधेरा दिख रहा था और ये पूरी की पूरी पौध यही से गलत रास्ते पर निकल गयी जिन्हें रास्ता दिखाने के लिए कोई नहीं था। उसके बाद के तीन शासनकाल लालू प्रसाद के खत्म होते ही माननीय नितीश जी का बिहार की राजनीती में प्रादुर्भाव हुआ क्योंकि लालू प्रसाद जी के हर एक शासनकाल के बाद अगले शासन में सैद्धान्तिक मूल्यों का ह्रास होता चला गया।

नितीश जी का प्रादुर्भाव हुआ बीजेपी जैसे पार्टियों के साथ मिलकर जो हमेशा से अगड़ो की राजनीती करती आई है और उसे एक मौका नजर आया वापस से सत्ता में आने का और ये हुआ भी लेकिन पिछड़ो की राजनीती इतनी जल्दी इतनी कमजोर होने वाली नहीं थी तो नितीश कुमार जी पिछड़ो के सबसे बड़े नेता बन के उभरे और उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली। नितीश कुमार ने आते ही कुछ अच्छे कदम उठाये जो जन कल्याणकारी थे और रहे भी अगले कुछ वर्षो तक। उन्ही मे से एक था शिक्षामित्रो की बहाली प्रार्थमिक स्कूलों में। बाद मे यह धीरे-धीरे माध्यमिक उसके बाद उच्च विद्यालयों में भी लागु हुआ।और यही से हमारी शिक्षा का ह्रास-दर बढ़ता गया। ये सच है की यह राजनितिक फैसला स्कूलों के लिये विद्यार्थी तो खीच लाये लेकिन जो हमारी पौध ख़राब शिक्षा के माध्यम से अच्छे नंबरो की डिग्रियां रखे हुई थी उनकी ये डिग्रियां यहाँ काम कर गयी और वे शिक्षामित्र बन गए। वे शिक्षामित्र बन तो गए लेकिन जब उनका वास्तविकता से सामना हुआ उनके हाथ पैर फूलने लगे। और वे अपने कर्तव्यों से जी चुराने लगे। तो जाहिर है ऐसे शिक्षको से हम इससे ज्यादा की उम्मीद भी नहीं कर सकते थे। यही से जो हमारी प्रार्थमिक शिक्षा का ह्रास हुआ वो बदस्तूर आज तक जारी है। मैं ये नहीं कहता उसमे सारे शिक्षक ऐसे ही है उनमे से कुछ बहुत अच्छे है और अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह समझते भी है। तो कहते है ना जब हमारा नींव ही सही नहीं होगी तो हम कहा से ऊपर की मजबूती को सोच सकते है। लेकिन एक बात है जो हमेशा हम बिहारियों को बांकी देश वासियों से अलग करती है वह है हमारे डीएनए में पढ़ने की ललक जो हमेशा हमे विकट परिस्थितियों में भी आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है और हम बढ़ते भी है। आज की तारीख में नयी पौध की बेसिक शिक्षा में मजबूती नहीं होना उनका भविष्य ख़राब कर सकता है इसका मतलब हम क्या दे रहे है समाज को हम गलती पर गलती करे जा रहे है इस मामले में किसी को कोई फिक्र नहीं है ना तो सरकार को ना ही उन स्कूलों में पदस्थापित शिक्षको को। सरकारी स्कूलों में स्थापित शिक्षक भी अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ा रहे है। क्योंकि उन्हें पता है जब वो ही नहीं पढ़ा रहे है तो उसके बच्चे कहा से पढ़ेंगे। एक तरफ तो हम अपने कर्तव्यों से मुकर रहे है और हम चाहते की हमारे बच्चों का भविष्य कोई और सुधारे, ये कैसे हो सकता है आप किसी के बच्चों का भविष्य ना पढ़ा के ख़राब करे और आपके बच्चों का भविष्य कोई और सुधारे।

बेहतर है सरकार इस मामले में कुछ कदम उठाये और हमारे शिक्षक भी अपने स्तर को सुधारे और अपने आप को अपने कर्तव्यों से जोड़े और जो उन्होंने कर्तव्यपरायणता की शपथ ली है उसे आगे बढ़ाने के लिए सोचे। वे ये भी सोचे जब हमारा समाज ही नहीं आगे बढ़ेगा तब तक हम भी आगे नहीं बढ़ पाएंगे। क्या सिर्फ अपने बच्चों को आगे बढ़ाने से क्या हमारा समाज आगे बढ़ पायेगा कतई नहीं। हमे अपने बच्चों के साथ साथ बांकी बच्चों को भी आगे बढ़ाने के लिए तभी समाज आगे बढ़ेगा। हम अगर हर एक मसले को सरकार के साथ जोड़ के देखने लगेंगे तो समाज आगे कभी नहीं बढ़ पायेगा।
तो जरुरत है हमे अपने आप में बदलाव लाने की ना की हरेक मसले को सरकार के सिर मढ़ने की।
जय हिन्द जय भारत!

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