जिंदगी कितनी खुबसूरत होती है, जब आप किसी राजनैतिक पार्टी की ना तो तरफदारी करते है, ना ही विरोध करते है। खासकर तब जब आप ना तो कोई टीवी डिबेट देखते है और ना ही सोशल मीडिया पर दोस्तों का टाइमलाइन देखते है। और तो और किसी भी पेपर को पढने के बाद उसकी किसी बात को दिल पे ना लेते हुए उसको एक जानकारी का साधन समझते हुए पढ़ जाते है। किसी नेता को फॉलो करने के बाद भी उसके किसी बात पर कोई टिपण्णी नहीं करते है तो वाकई में लगता है जिंदगी कितनी खुबसूरत है। अपने में मग्न, क्या करना है और क्यों करना है ऐसी बातो पर बहस। जब ना तो सरकारे बदलती है ना सरकारों के काम करने का तरिका तो क्यों ना चुपचाप अपनी जिंदगी को बेहतर तरीके से जीने की कोशिश की जाए।
क्यों ना किसी गरीब की किसी प्रकार से सहायता के बारे में सोचना चाहिए। सरकारे आती जाती रहती है उसके काम करने का तरीका नहीं बदलता है, क्योंकि उनके रिसोर्स तो वही रहते है तो कैसे कोई सरकार बदल जाए कोई घोटाले करने में मस्त है फिर भी हम बुद्धिजीवी बने अपने शब्दों के जाल में एक आम आदमी को भटकाए रहते है। उसने तुम्हारे लिए क्या किया था/है हमने तो तुम्हारे लिए ये किया था/है सरकारे बदलती है सोच तो बदलती नहीं क्योंकि सोच तो वही है जिसको हम नौकरशाह कहते है। बुद्धिजीवी वही है जो कल भी वही थे आज भी वही है बस उनके शब्दों का जाल थोडा सीधा/उल्टा हो गया है।
यही एक भ्रमजाल है जिसके अन्दर हमें एक ऐसे चक्रव्यूह में डाल दिया जाता है। जिसके अन्दर हम अभिमन्यु की तरह लड़ते लड़ते आखिर में अपना दम तोड़ देते है और डालने वाले कौन होते है यही चंद राजनेता, यही चंद बुद्धिजीवी तथा यही चंद नौकरशाह नामक दुर्योधन, कृपाचार्य और कर्ण नाम के योधाओ के मध्य अभिमन्यु की तरह मारे जाते है। जिसे यह भान/खुशफहमी होता है की वह यह जाल तो तोड़ ही देगा और इसी भ्रम में इनके चक्रव्यूह में एक बार घुस गए तो हम भी उसी अभिमन्यु की तरह आखिरकार वीरगति को प्राप्त हो जाते है। और हमारी वीरगति के बाद हमें ऐसे दफनाया/जलाया जाता है जैसे हमने कोई ऐसा काम किया है जिसको आजतक किसी ने नहीं किया है। लेकिन वही जब यह युद्ध ख़त्म होता है तो हमारे बारे में किसी को पता तक नहीं होता है। आखिरकार कौन बचता है वही नौकरशाह नमक कृपाचार्य, नेता नमक दुर्योधन तथा बुद्धिजीवी नामक कर्ण के पुतले लगते है और इन्ही की किताब छपती है जिससे ये पैसे भी कमाते है और बाद में शौर्य पुरष्कार या कोई नागरिक पुरस्कार देकर इनको इतिहास में नाम दे दिया जाता है।
बेहतर है अपने में खुश रहिये अपने आस पास देखिये सबको खुश तो नहीं किया जा सकता है लेकिन सबके साथ खुश जरुर रहा जा सकता है।
धन्यवाद
क्यों ना किसी गरीब की किसी प्रकार से सहायता के बारे में सोचना चाहिए। सरकारे आती जाती रहती है उसके काम करने का तरीका नहीं बदलता है, क्योंकि उनके रिसोर्स तो वही रहते है तो कैसे कोई सरकार बदल जाए कोई घोटाले करने में मस्त है फिर भी हम बुद्धिजीवी बने अपने शब्दों के जाल में एक आम आदमी को भटकाए रहते है। उसने तुम्हारे लिए क्या किया था/है हमने तो तुम्हारे लिए ये किया था/है सरकारे बदलती है सोच तो बदलती नहीं क्योंकि सोच तो वही है जिसको हम नौकरशाह कहते है। बुद्धिजीवी वही है जो कल भी वही थे आज भी वही है बस उनके शब्दों का जाल थोडा सीधा/उल्टा हो गया है।
यही एक भ्रमजाल है जिसके अन्दर हमें एक ऐसे चक्रव्यूह में डाल दिया जाता है। जिसके अन्दर हम अभिमन्यु की तरह लड़ते लड़ते आखिर में अपना दम तोड़ देते है और डालने वाले कौन होते है यही चंद राजनेता, यही चंद बुद्धिजीवी तथा यही चंद नौकरशाह नामक दुर्योधन, कृपाचार्य और कर्ण नाम के योधाओ के मध्य अभिमन्यु की तरह मारे जाते है। जिसे यह भान/खुशफहमी होता है की वह यह जाल तो तोड़ ही देगा और इसी भ्रम में इनके चक्रव्यूह में एक बार घुस गए तो हम भी उसी अभिमन्यु की तरह आखिरकार वीरगति को प्राप्त हो जाते है। और हमारी वीरगति के बाद हमें ऐसे दफनाया/जलाया जाता है जैसे हमने कोई ऐसा काम किया है जिसको आजतक किसी ने नहीं किया है। लेकिन वही जब यह युद्ध ख़त्म होता है तो हमारे बारे में किसी को पता तक नहीं होता है। आखिरकार कौन बचता है वही नौकरशाह नमक कृपाचार्य, नेता नमक दुर्योधन तथा बुद्धिजीवी नामक कर्ण के पुतले लगते है और इन्ही की किताब छपती है जिससे ये पैसे भी कमाते है और बाद में शौर्य पुरष्कार या कोई नागरिक पुरस्कार देकर इनको इतिहास में नाम दे दिया जाता है।
बेहतर है अपने में खुश रहिये अपने आस पास देखिये सबको खुश तो नहीं किया जा सकता है लेकिन सबके साथ खुश जरुर रहा जा सकता है।
धन्यवाद