बड़े दुःख की बात है हम 21वी सदी में है और चांद पर पैर रखने वाले है। लेकिन जो भविष्य है, आज भी बेमौत मर रहे है किस वजह से वह भी एक मामूली सा बुखार से जिसकी रोकथाम में अहम योगदान जागरूकता का भी हो सकता है। हर वर्ष जब एक ही समय में सालों से यह दस्तक दे और सरकारों को यह भी पता हो कि इसकी जागरूकता से इसपर काबू किया जा सकता है फिर सरकारे ऐसा लगता है सोई रहती है इस तरह के किसी बड़ी घटना के घटने के इंतजार में।
हम सभी को पता है कि कुपोषित और कमज़ोर शरीर में बीमारियों का आक्रमण आसानी से होता है। दो भोजन के बीच 4 घंटे से अधिक के गैप से कमज़ोर शरीर और अधिक कमज़ोर हो जाता है। ऐसे में इस तरह के बुखार आने की सम्भावना बढ़ जाती है। "इसके आक्रमण से 4-6 घंटे में सर में एक द्रव्य जमा होने लगता है जिससे मस्तिष्क पर प्रेशर बढ़ता है और वहाँ से होने वाला सारे शरीर का कंट्रोल बंद होने लगता है।" यह किसी रिपोर्ट में पढ़ा था।
शरीर में बुखार से पहले सोडियम कम होता है। नमक में सोडीयम है और चीनी में शुगर जो घरेलू ओआरएस का घोल है जो वास्तव में यही घरेलू और प्राथमिक उपचार है। ऐसे में यदि किसी भी बुखार पीड़ित को प्रारम्भिक उपचार मिले तो वो या तो ठीक हो जाएगा या फिर अस्पताल ले जाने तक वह जीवन से लड़ता हुआ पायेगा।
यह समस्या क्या और कितनी बड़ी है, हम इसमें कितना योगदान दे सकते हैं यह सोचने के साथ साथ सहायता करने की भी जरूरत है। सवाल उठता है की हमें करना क्या चाहिए? सबसे पहले तो अभी चल रहे सारे प्रयास जारी रहना चाहिए चाहे वो सरकारी हो गैर सरकारी हो। हमें यह मानकर चलना चाहिए की हर घर सेवा पहुँचाना सम्भव नहीं है लेकिन सरकारी मदद की दरकार अवश्य है जिसके बिना यह संभव नही। ऐसे मामलों में जागरूकता बढ़ा रही संस्थाएँ सबसे अधिक कारगर होंगी जो ऐसे मामलों में सबसे बड़ी वजह भी होती है तो हमे लोगों में बीमारी और उससे बचने की सूचना पहुँचा कर जागरूकता बढ़ाना चाहिए। हम लोगों को बताएँ की नमक और चीनी नामक रामबाण इलाज उनके घर में ही है। वो बच्चों के खाने के बीच अधिक समय का गैप न दें। खुली और साफ़ हवा देकर या गिली पट्टी कर बुखार को बढ़ने से रोके। साफ़ सफ़ाई का ध्यान रखते हुए मरीज़ को जल्द से जल्द अस्पताल ले जाएँ। जगह जगह पर्चे बाँट कर या लगाकर भी ऐसा कर सकते है। छोटे माइक लेकर लोगों को जमा कर उन्हें रिकॉर्डिंग सुना सकते हैं या नुक्कड़ सभा कर जागरूकता फैला सकते हैं।
ऐसे में यह भी ध्यान रहे की हम कोई ग़लत सूचना न फैलाएँ। UNICEF की टीम वहाँ काम कर रही है और वे लोग 2012 से ही इस पर काम भी कर रहे हैं। तकनीकी बातें वे बेहतर समझते है।
शुरुआती दौर में सोने के बाद प्रशासन अब क्रियाशील हुए है इसकी कई वजहें हैं जैसे सवयंसेवी संस्थाओं, सरकार और मीडिया का दबाव। प्रशासन को सहयोग करना सभी स्वयंसेवी संस्थाओं का काम है और वो कर भी रहे हैं।
हमें हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए की सीमित संसाधनों के रहते अचानक से आये महामारी को सम्भालना आसान नहीं। याद करिये जब अचानक से दिल्ली में डेंगू और चिकुनगुनिया के मामले बढ़ने लगते है तब यही विश्वस्तरीय दिल्ली उसको संभालने में नाकाम दिखने लगती है। सरकारों द्वारा संसाधन को जनसंख्या के अनुपात में नही बढ़ाने और कारगर तरीके से काम नही करने का दोषी अवश्य ठहराए जाने चाहिए। ये ग़लत समय और मौका होगा की डॉक्टर या अस्पताल पर सवाल उठाने का, क्योंकि उन्हें जो मिलता है उसी संसाधनों में काम करने होते है यह सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि एक ही समय हर वर्ष एक तरीके से आपदा एक ही क्षेत्र के आस पास दस्तक दे तो यह उनकी जिम्मेदारी बनती है कि इसके बारे में जनता के बीच जागरूकता फैलाये और अस्पताल में उसी तरीके से तैयारी किये जाय। मेरी समझ से डॉक्टरों को दोषी ठहराने से हम उनकी कार्यक्षमता को और कम करेंगे। हमें उन पत्रकारों की भी भर्त्सना करनी चाहिए जो बिना ICU में जाने की तैयारी किये बिना माइक लेकर डॉक्टरों से सवाल करते है। उन्हें डॉक्टरों से सवाल के विपरीत अस्पताल प्रशासन या सरकारी तंत्र से ये बाते पूछनी चाहिए। इसको पत्रकारिता तो नही ही कहेंगे यह कुछ लोगो के लिए साहसिक काम लग सकता है लेकिन यह उससे बड़ा मूर्खतापूर्ण कार्य भी है।
हम सरकारों से सवाल तभी पूछते है जब ऐसी घटनाएं होती है। चाहे मुजफ्फपुर में AES (Acute Encephalitis Syndrome) से हो रही मौते हो या गोरखपुर में हो रही मौते हो या दिल्ली जैसे शहर में डेंगू या चिकुनगुनिया से हो रही मौते हो। हम कुछ दिनों बाद सब कुछ भुल जाते है तो सरकारे भी भूल जाती है। जबकि यह सारे मुद्दे तबतक जीवित रहने चाहिए जबतक इसका पूर्णरूपेण समाधान ना हो जाये। यह सारे मुद्दे कही ना कही स्वास्थ्य, पर्यावरण और कुपोषण से जुड़े मुद्दे है जो हमारे चुनावो में ये मुद्दे नही होते है। अब समय आ गया है कि ऐसे मुद्दे उठाए जाएं और बार बार उठाये जाय।
हम सभी को पता है कि कुपोषित और कमज़ोर शरीर में बीमारियों का आक्रमण आसानी से होता है। दो भोजन के बीच 4 घंटे से अधिक के गैप से कमज़ोर शरीर और अधिक कमज़ोर हो जाता है। ऐसे में इस तरह के बुखार आने की सम्भावना बढ़ जाती है। "इसके आक्रमण से 4-6 घंटे में सर में एक द्रव्य जमा होने लगता है जिससे मस्तिष्क पर प्रेशर बढ़ता है और वहाँ से होने वाला सारे शरीर का कंट्रोल बंद होने लगता है।" यह किसी रिपोर्ट में पढ़ा था।
शरीर में बुखार से पहले सोडियम कम होता है। नमक में सोडीयम है और चीनी में शुगर जो घरेलू ओआरएस का घोल है जो वास्तव में यही घरेलू और प्राथमिक उपचार है। ऐसे में यदि किसी भी बुखार पीड़ित को प्रारम्भिक उपचार मिले तो वो या तो ठीक हो जाएगा या फिर अस्पताल ले जाने तक वह जीवन से लड़ता हुआ पायेगा।
यह समस्या क्या और कितनी बड़ी है, हम इसमें कितना योगदान दे सकते हैं यह सोचने के साथ साथ सहायता करने की भी जरूरत है। सवाल उठता है की हमें करना क्या चाहिए? सबसे पहले तो अभी चल रहे सारे प्रयास जारी रहना चाहिए चाहे वो सरकारी हो गैर सरकारी हो। हमें यह मानकर चलना चाहिए की हर घर सेवा पहुँचाना सम्भव नहीं है लेकिन सरकारी मदद की दरकार अवश्य है जिसके बिना यह संभव नही। ऐसे मामलों में जागरूकता बढ़ा रही संस्थाएँ सबसे अधिक कारगर होंगी जो ऐसे मामलों में सबसे बड़ी वजह भी होती है तो हमे लोगों में बीमारी और उससे बचने की सूचना पहुँचा कर जागरूकता बढ़ाना चाहिए। हम लोगों को बताएँ की नमक और चीनी नामक रामबाण इलाज उनके घर में ही है। वो बच्चों के खाने के बीच अधिक समय का गैप न दें। खुली और साफ़ हवा देकर या गिली पट्टी कर बुखार को बढ़ने से रोके। साफ़ सफ़ाई का ध्यान रखते हुए मरीज़ को जल्द से जल्द अस्पताल ले जाएँ। जगह जगह पर्चे बाँट कर या लगाकर भी ऐसा कर सकते है। छोटे माइक लेकर लोगों को जमा कर उन्हें रिकॉर्डिंग सुना सकते हैं या नुक्कड़ सभा कर जागरूकता फैला सकते हैं।
ऐसे में यह भी ध्यान रहे की हम कोई ग़लत सूचना न फैलाएँ। UNICEF की टीम वहाँ काम कर रही है और वे लोग 2012 से ही इस पर काम भी कर रहे हैं। तकनीकी बातें वे बेहतर समझते है।
शुरुआती दौर में सोने के बाद प्रशासन अब क्रियाशील हुए है इसकी कई वजहें हैं जैसे सवयंसेवी संस्थाओं, सरकार और मीडिया का दबाव। प्रशासन को सहयोग करना सभी स्वयंसेवी संस्थाओं का काम है और वो कर भी रहे हैं।
हमें हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए की सीमित संसाधनों के रहते अचानक से आये महामारी को सम्भालना आसान नहीं। याद करिये जब अचानक से दिल्ली में डेंगू और चिकुनगुनिया के मामले बढ़ने लगते है तब यही विश्वस्तरीय दिल्ली उसको संभालने में नाकाम दिखने लगती है। सरकारों द्वारा संसाधन को जनसंख्या के अनुपात में नही बढ़ाने और कारगर तरीके से काम नही करने का दोषी अवश्य ठहराए जाने चाहिए। ये ग़लत समय और मौका होगा की डॉक्टर या अस्पताल पर सवाल उठाने का, क्योंकि उन्हें जो मिलता है उसी संसाधनों में काम करने होते है यह सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि एक ही समय हर वर्ष एक तरीके से आपदा एक ही क्षेत्र के आस पास दस्तक दे तो यह उनकी जिम्मेदारी बनती है कि इसके बारे में जनता के बीच जागरूकता फैलाये और अस्पताल में उसी तरीके से तैयारी किये जाय। मेरी समझ से डॉक्टरों को दोषी ठहराने से हम उनकी कार्यक्षमता को और कम करेंगे। हमें उन पत्रकारों की भी भर्त्सना करनी चाहिए जो बिना ICU में जाने की तैयारी किये बिना माइक लेकर डॉक्टरों से सवाल करते है। उन्हें डॉक्टरों से सवाल के विपरीत अस्पताल प्रशासन या सरकारी तंत्र से ये बाते पूछनी चाहिए। इसको पत्रकारिता तो नही ही कहेंगे यह कुछ लोगो के लिए साहसिक काम लग सकता है लेकिन यह उससे बड़ा मूर्खतापूर्ण कार्य भी है।
हम सरकारों से सवाल तभी पूछते है जब ऐसी घटनाएं होती है। चाहे मुजफ्फपुर में AES (Acute Encephalitis Syndrome) से हो रही मौते हो या गोरखपुर में हो रही मौते हो या दिल्ली जैसे शहर में डेंगू या चिकुनगुनिया से हो रही मौते हो। हम कुछ दिनों बाद सब कुछ भुल जाते है तो सरकारे भी भूल जाती है। जबकि यह सारे मुद्दे तबतक जीवित रहने चाहिए जबतक इसका पूर्णरूपेण समाधान ना हो जाये। यह सारे मुद्दे कही ना कही स्वास्थ्य, पर्यावरण और कुपोषण से जुड़े मुद्दे है जो हमारे चुनावो में ये मुद्दे नही होते है। अब समय आ गया है कि ऐसे मुद्दे उठाए जाएं और बार बार उठाये जाय।