Saturday 31 August 2024

मिच्छामि दुक्कडम्: प्राकृत और जैन साहित्य के संदर्भ में

 मिच्छामि दुक्कडम्: प्राकृत और जैन साहित्य के संदर्भ में

"मिच्छामि दुक्कडम्" एक प्राकृत भाषा में एक महत्वपूर्ण और प्राचीन अभिव्यक्ति है, जो जैन धर्म और उसके अनुयायियों के लिए अत्यंत विशिष्ट अर्थ रखती है। यह अभिव्यक्ति मुख्य रूप से पर्युषण पर्व के दौरान प्रयोग की जाती है, जब जैन अनुयायी अपने द्वारा अनजाने में किए गए अपराधों के लिए क्षमा याचना करते हैं। यह न केवल व्यक्तिगत शुद्धिकरण का प्रतीक है, बल्कि समाज के साथ सामंजस्य बनाए रखने की एक गहरी और आध्यात्मिक प्रक्रिया का हिस्सा भी है। यह लेख जैन धर्म और प्राकृत भाषा के संदर्भ में "मिच्छामि दुक्कडम्" की सांस्कृतिक, धार्मिक और दार्शनिक महत्व को विस्तार से समझाने का प्रयास करेगा। साथ ही, यह अभिव्यक्ति जैन धर्म के मूल्यों, सिद्धांतों और साहित्य में किस प्रकार से निहित है, इस पर भी विचार करेगा। 

मिच्छामि दुक्कडम् का शाब्दिक और सांस्कृतिक महत्व
"मिच्छामि दुक्कडम्" का अर्थ है "मेरे द्वारा किए गए सभी दोष, गलतियाँ, और अपराध व्यर्थ हो जाएं।" इसमें 'मिच्छ' का अर्थ है 'अव्यर्थ' या 'निरर्थक', 'अम्मि' का अर्थ है 'हूँ', और 'दुक्कडम्' का अर्थ है 'पाप' या 'गलती'। इसे एक प्रकार से आत्मिक और मानसिक शुद्धिकरण का प्रतीक माना जाता है, जहां व्यक्ति अपने द्वारा किए गए दोषों को मान्यता देता है और उनके लिए क्षमा की याचना करता है।
यह अभिव्यक्ति जैन धर्म के क्षमा धर्म (क्षमावाणी) की एक अभिव्यक्ति है, जिसे विशेष रूप से पर्युषण पर्व के अंत में प्रयोग किया जाता है। पर्युषण पर्व जैन धर्म का एक महत्वपूर्ण धार्मिक अनुष्ठान है, जो आत्म-अनुशासन, तपस्या और क्षमा पर आधारित है। इस पर्व के दौरान, जैन अनुयायी अपनी आत्मा को शुद्ध करने के लिए व्रत, उपवास और ध्यान करते हैं, और पर्व के समापन पर अपने मित्रों, परिवार और समाज के अन्य सदस्यों से 'मिच्छामि दुक्कडम्' कहकर क्षमा मांगते हैं।
प्राकृत भाषा और जैन धर्म
प्राकृत भाषा भारतीय उपमहाद्वीप की प्राचीन भाषाओं में से एक है, जो मुख्य रूप से धार्मिक और साहित्यिक ग्रंथों में प्रयोग की जाती थी। जैन धर्म के अधिकांश धार्मिक ग्रंथ प्राकृत भाषा में ही लिखे गए थे, विशेष रूप से अर्धमागधी और शौरसेनी प्राकृत में। इस भाषा का प्रयोग जैन साधुओं और आचार्यों द्वारा किया जाता था ताकि धर्म के संदेश को आम जनता तक पहुँचाया जा सके।
प्राकृत साहित्य में "मिच्छामि दुक्कडम्" जैसे शब्द और अभिव्यक्तियाँ जैन धर्म के मूल्यों को सरल और सटीक रूप से व्यक्त करते हैं। प्राकृत भाषा की विशेषता यह है कि यह एक सरल और समझने योग्य भाषा थी, जिसे जनसामान्य आसानी से समझ सकते थे। जैन धर्म का अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य जैसे सिद्धांत प्राकृत साहित्य में विभिन्न ग्रंथों के माध्यम से व्यक्त किए गए हैं।
जैन साहित्य और मिच्छामि दुक्कडम्
जैन साहित्य में "मिच्छामि दुक्कडम्" की भावना कई स्थानों पर प्रकट होती है। विशेष रूप से, जैन आगमों और अन्य धार्मिक ग्रंथों में इस प्रकार की क्षमा याचना का वर्णन मिलता है। जैन आगम मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित हैं: श्वेतांबर आगम और दिगंबर आगम। दोनों परंपराओं में क्षमा याचना का महत्व समान रूप से समझा जाता है।
श्वेतांबर परंपरा में
श्वेतांबर जैन धर्म में, "मिच्छामि दुक्कडम्" की भावना को विशेष रूप से पर्युषण पर्व और संवत्सरी के दौरान महत्व दिया जाता है। संवत्सरी श्वेतांबर जैन धर्म का एक वार्षिक पर्व है, जिसमें अनुयायी अपने पिछले वर्ष के सभी पापों के लिए क्षमा याचना करते हैं। इस दौरान, "मिच्छामि दुक्कडम्" कहकर वे अपने द्वारा किए गए किसी भी प्रकार के मानसिक, शारीरिक, या वाचिक पापों के लिए क्षमा मांगते हैं।
दिगंबर परंपरा में
दिगंबर जैन धर्म में भी क्षमा का महत्व अत्यधिक होता है। क्षमापना पर्व के दौरान, दिगंबर अनुयायी भी "मिच्छामि दुक्कडम्" कहकर अपने द्वारा किए गए अपराधों और दोषों के लिए क्षमा याचना करते हैं। दिगंबर परंपरा में, क्षमा की यह भावना तपस्या और आत्मशुद्धि के महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में देखी जाती है।
क्षमा का दार्शनिक और आध्यात्मिक संदर्भ
"मिच्छामि दुक्कडम्" केवल एक औपचारिक क्षमा याचना नहीं है, बल्कि यह आत्म-परिवर्तन और आत्मशुद्धि का एक माध्यम है। जैन धर्म के अनुसार, हर जीवात्मा के भीतर अनंत शक्ति और ज्ञान निहित है, लेकिन कर्मों के कारण वह आत्मा बंधनों में फंस जाती है। क्षमा याचना इन कर्म बंधनों को काटने का एक साधन है। जब कोई व्यक्ति अपने द्वारा किए गए पापों के लिए क्षमा याचना करता है, तो वह उन कर्मों के प्रभाव से मुक्त होने की प्रक्रिया शुरू करता है।
जैन धर्म में क्षमा की महत्ता
जैन धर्म में क्षमा को सर्वोच्च गुणों में से एक माना गया है। इसे आत्मा की शुद्धि और मोक्ष प्राप्ति के मार्ग का एक अनिवार्य अंग माना जाता है। जैन धर्म में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य जैसे पाँच महाव्रतों का पालन किया जाता है, और क्षमा को इन महाव्रतों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना गया है। 
क्षमा और तपस्या
जैन धर्म में तपस्या का अत्यधिक महत्व है, और क्षमा याचना को तपस्या के एक महत्वपूर्ण भाग के रूप में देखा जाता है। जब कोई व्यक्ति अपने द्वारा किए गए पापों के लिए क्षमा मांगता है, तो वह अपनी आत्मा को उन दोषों से मुक्त करने का प्रयास करता है। इस प्रक्रिया में आत्मशुद्धि होती है, जो अंततः मोक्ष प्राप्ति की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होता है।
सामजिक और व्यक्तिगत जीवन में क्षमा
"मिच्छामि दुक्कडम्" की अवधारणा न केवल आत्मिक शुद्धि के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह समाज में सामंजस्य और शांति बनाए रखने के लिए भी आवश्यक है। जब कोई व्यक्ति समाज के अन्य सदस्यों से क्षमा मांगता है, तो वह समाज में आपसी प्रेम, विश्वास और सहिष्णुता का प्रसार करता है। जैन धर्म के अनुसार, क्षमा से व्यक्ति अपने भीतर के क्रोध, द्वेष और अहंकार को त्यागता है, जो उसे समाज के प्रति अधिक सहिष्णु और उदार बनाता है।
प्राकृत साहित्य में मिच्छामि दुक्कडम् की अभिव्यक्ति
प्राकृत साहित्य में "मिच्छामि दुक्कडम्" की भावना विभिन्न ग्रंथों और काव्यों में व्यक्त की गई है। जैन आचार्यों ने प्राकृत भाषा का प्रयोग करते हुए इस प्रकार की क्षमा याचना को सरल और सुंदर शब्दों में व्यक्त किया है।उदाहरण के लिए, आचार्य श्री हेमचंद्र का साहित्य इस संदर्भ में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। हेमचंद्र, जिन्होंने प्राकृत और संस्कृत दोनों भाषाओं में साहित्य रचा, ने क्षमा और आत्मशुद्धि की भावना को अपने काव्य और ग्रंथों में प्रमुखता से स्थान दिया है।
जैन दर्शन और क्षमा की अवधारणा
जैन दर्शन में कर्म सिद्धांत का महत्वपूर्ण स्थान है। प्रत्येक जीवात्मा अपने कर्मों के कारण संसार में बंधी होती है, और मोक्ष प्राप्ति का मार्ग तभी संभव होता है जब वह इन कर्म बंधनों से मुक्त हो। क्षमा याचना कर्मों के शुद्धिकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। जैन धर्म में यह माना जाता है कि किसी भी प्रकार का पाप या दोष आत्मा पर कर्मों के रूप में बंध जाता है, और यह कर्म बंधन आत्मा को जन्म-मरण के चक्र में फंसा देता है।

"मिच्छामि दुक्कडम्" इस कर्म बंधन को काटने का एक साधन है, जिसके माध्यम से व्यक्ति अपने द्वारा किए गए सभी प्रकार के पापों के लिए क्षमा मांगता है। जब व्यक्ति किसी दूसरे से क्षमा याचना करता है, तो वह अपने अहंकार और क्रोध को त्यागता है, जो कि आत्मा के शुद्धिकरण के लिए आवश्यक है।
उपसंहार
"मिच्छामि दुक्कडम्" जैन धर्म और प्राकृत साहित्य के संदर्भ में एक गहन और महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है। यह न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व रखती है, बल्कि समाज के सामंजस्य और व्यक्तिगत शुद्धिकरण का भी प्रतीक है। जैन धर्म में क्षमा को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है, और यह धर्म के मूल सिद्धांतों का अभिन्न हिस्सा है।
प्राकृत साहित्य में "मिच्छामि दुक्कडम्" की भावना का विस्तार से वर्णन किया गया है, और यह जैन अनुयायियों के लिए आत्म-शुद्धिकरण और मोक्ष प्राप्ति का एक महत्वपूर्ण साधन है। इस अभिव्यक्ति के माध्यम से, व्यक्ति अपने द्वारा किए गए दोषों और पापों के लिए क्षमा मांगता है, और आत्मा को उन दोषों से मुक्त करता है।

"मिच्छामि दुक्कडम्" केवल एक साधारण क्षमा याचना नहीं है, बल्कि यह आत्म-परिवर्तन, आत्म-शुद्धि, और समाज में सामंजस्य बनाए रखने की एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है, जो     जैन धर्म और प्राकृत साहित्य दोनों में समान रूप से महत्वपूर्ण मानी गई है। "मिच्छामि दुक्कडम्" का प्रमुख उद्देश्य समाज में सामंजस्य और आपसी संबंधों को सुधारने में है। यह केवल व्यक्तिगत शुद्धि का मार्ग नहीं, बल्कि समाज में शांति और सहयोग को बढ़ावा देने का भी साधन है। 

Tuesday 20 August 2024

तीन ताल और पुष्पेश पंत


यह वीडियो आजतक के रेडियो पॉडकास्ट "तीन ताल" कार्यक्रम के तहत यूट्यूब पर प्रकाशित हुआ है। मुझे व्यक्तिगत तौर पर पुष्पेश जी को सुनना बहुत पसंद है इसीलिए नहीं की वे खाने पर बहुत अच्छी बातें बताते है बल्कि इसीलिए भी की वे खाने को इतिहास और विश्व के अलग अलग देशो के उनके रिश्तों के तौर पर कैसे देखते है तो मुझे जैसों को भी अंतराष्ट्रीय रिश्ते की बात आसानी से समझ आ जाती है। एक International Relation पढ़ाने वाला व्यक्ति खाने की बारे में इतनी सारी जानकारी और इतने प्यार से परोस रहा हो तो कौन इसे सुनना पसंद नहीं करेगा। पुष्पेश जी के साथ कई एपिसोड अलग अलग जगहों पर सुने है हमेशा ही लंबा होता है अगर आपके पास धैर्य हो तो अवश्य सूना जा सकता है क्योंकि इतने हल्के अंदाज़ में खाने की बारीकियां आप उनसे बेहतर जगह से नहीं सुन सकते है, इसी तरह का एक एपिसोड मैंने लल्लनटॉप पर भी देखा था। आप इस एपिसोड में निम्न बातों से रूबरू होंगे:
- बुरांश की वाइन वाइन नहीं है 
- मछली पर बात करना राजनेताओं के लिए क्यों आसान है 
- मछली एक जल का फल है
- पानी की किल्लत के लिए मटकाफोड़ने की परम्परा ही क्यों
- भोजन और औपनिवेशिक साम्राज्यवाद का रिश्ता क्या है 
- भोजन के साथ इतिहास का क्या ताल्लुक है
- मुगलिया खाने का फर्जीवाड़ा और इसका इतिहास
- करी तथा कढ़ी का फ़र्क़ और इसके नाम के पीछे की बात 
- गर्मी से राहत पाने के देशी पेय पदार्थ 
- चटनी, राहत जान, शरबत-ए-शिकंजवी
- छौंक, तड़का और बघार का रहस्य इसके मायने 
- मसालों को इस्तेमाल करने की अदब
- पहाड़ का बेड़ा गर्क करने वाले तीन लोग 
- नाश्ता हम करते नहीं थे तो यह आया कहाँ से
- बिरयानी का पुलाव के साथ मुक़ाबला
- भाषा की जगह स्वाद और भोजन में मुख्यतः क्या लेते है उसके आधार पर राज्यों के बटवारें होने चाहिए
- हर 10 किलोमीटर पर समोसे का स्वाद बदल जाता है 
- लोगों में समोसे खाने की तमीज नहीं रही
- पान खाने के रिवाज और सांस्कृतिक पहलू 

Monday 19 August 2024

संस्कृत भाषा के प्रमुख साहित्यिक ग्रंथ

"सर्वेभ्यः संस्कृत-दिवसस्य हार्दिकाः शुभाशयाः! संस्कृत-भाषा अस्माकं प्राचीन-धरोहरः अस्ति, या अस्मान् ज्ञानं, संस्कृतिं च संस्कारैः संयुङ्क्ति। एतस्मिन् अवसर उपलक्ष्ये संस्कृतस्य अध्ययनं संरक्षणं च संकल्पं कुर्मः।"

संस्कृत भाषा

संस्कृत भाषा को विश्व की सबसे प्राचीन और समृद्ध भाषाओं में से एक माना जाता है। इस भाषा में लिखा गया साहित्य न केवल भारतीय संस्कृति और धर्म का अभिन्न अंग है, बल्कि विश्व साहित्य की धरोहर भी है। संस्कृत के साहित्यिक ग्रंथों ने विभिन्न विधाओं में अमूल्य योगदान दिया है। आइए, कुछ प्रमुख संस्कृत साहित्यिक ग्रंथों और उनके लेखकों पर एक नज़र डालते हैं।

1. रामायण - महर्षि वाल्मीकि
रामायण संस्कृत भाषा का एक महत्वपूर्ण महाकाव्य है, जिसे महर्षि वाल्मीकि ने रचा था। यह ग्रंथ भगवान राम के जीवन, उनके आदर्शों, संघर्षों और विजय की कथा को विस्तार से प्रस्तुत करता है। इसमें सात कांड (बालकांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किंधाकांड, सुंदरकांड, युद्धकांड, और उत्तरकांड) हैं, जो भगवान राम के जीवन के विभिन्न चरणों का वर्णन करते हैं।

2. महाभारत - महर्षि वेदव्यास
महाभारत संस्कृत का एक अन्य महान महाकाव्य है, जिसकी रचना महर्षि वेदव्यास ने की थी। यह ग्रंथ कौरवों और पांडवों के बीच हुए कुरुक्षेत्र के महायुद्ध का वर्णन करता है। इसके 18 पर्वों में लगभग 100,000 श्लोक हैं, जो इसे विश्व का सबसे बड़ा महाकाव्य बनाते हैं। महाभारत में भगवद्गीता भी सम्मिलित है, जो भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए उपदेशों का संग्रह है।

3. भगवद्गीता - श्रीकृष्ण (कथानक में)
भगवद्गीता महाभारत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और इसे स्वतंत्र रूप में भी पढ़ा जाता है। यह ग्रंथ धर्म, कर्म, योग और भक्ति के सिद्धांतों का प्रतिपादन करता है। भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जीवन के गूढ़ रहस्यों का ज्ञान दिया और धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी।

4. काव्य प्रकाश - आचार्य मम्मट
काव्य प्रकाश संस्कृत काव्यशास्त्र का एक प्रसिद्ध ग्रंथ है, जिसे आचार्य मम्मट ने लिखा था। यह ग्रंथ संस्कृत काव्य की विभिन्न विधाओं, अलंकारों और रसों का वर्णन करता है। काव्य प्रकाश संस्कृत साहित्य के विद्यार्थियों और शोधकर्ताओं के लिए एक महत्वपूर्ण पाठ्यपुस्तक है।

5. अभिज्ञान शाकुंतलम - महाकवि कालिदास
महाकवि कालिदास संस्कृत साहित्य के सबसे प्रमुख कवियों में से एक हैं। उनका नाटक "अभिज्ञान शाकुंतलम" विश्व प्रसिद्ध है, जिसमें राजा दुष्यंत और शकुंतला की प्रेम कहानी को प्रस्तुत किया गया है। कालिदास की अन्य महत्वपूर्ण कृतियों में "मेघदूत", "रघुवंशम", और "कुमारसंभवम" शामिल हैं।

6. अष्टाध्यायी - महर्षि पाणिनि
महर्षि पाणिनि का "अष्टाध्यायी" संस्कृत व्याकरण का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें संस्कृत भाषा के व्याकरणिक नियमों का व्यापक और संगठित विवरण मिलता है। यह ग्रंथ संस्कृत भाषा के अध्ययन और शिक्षण के लिए मूलभूत स्रोत है।

7. योगसूत्र - महर्षि पतंजलि
महर्षि पतंजलि का "योगसूत्र" योग के सिद्धांतों का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें महर्षि पतंजलि ने योग के आठ अंगों (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, और समाधि) का विस्तार से वर्णन किया है। योगसूत्र योग दर्शन का आधारभूत ग्रंथ माना जाता है।

8. स्मृतियां - मनु, याज्ञवल्क्य, पराशर
स्मृतियां धर्म, समाज, और नीति के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालने वाले ग्रंथ हैं। इनमें "मनुस्मृति", "याज्ञवल्क्य स्मृति", और "पराशर स्मृति" प्रमुख हैं। ये ग्रंथ भारतीय समाज और धर्म के लिए नैतिक और विधिक मानदंड स्थापित करते हैं।

नीचे  कुछ श्लोक और उनके अर्थ  रख रहा हूँ,  जो मनुष्य जीवन के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं और जीवन को सही दिशा में चलाने के लिए मार्गदर्शन करते हैं:
श्लोक:  
सत्यम् ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्।  
प्रियं च नानृतम् ब्रूयात्, एष धर्मः सनातनः॥
अर्थ: मनुष्य को हमेशा सत्य बोलना चाहिए, लेकिन वह सत्य बोलना चाहिए जो प्रिय हो, अर्थात् जिससे दूसरों को दुख न पहुंचे। यदि सत्य अप्रिय हो, तो उसे बोलने से बचना चाहिए। इसके विपरीत, प्रिय बोलने के चक्कर में कभी असत्य नहीं बोलना चाहिए। यह सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण नियम है।

श्लोक:  
आहार निद्रा भय मैथुनं च, समान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।  
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो, धर्मेण हीना: पशुभिः समाना:॥
अर्थ: भोजन, नींद, भय और संतानोत्पत्ति यह सभी गुण मनुष्य और पशु में समान होते हैं। मनुष्य और पशु के बीच का अंतर केवल धर्म का होता है। यदि मनुष्य धर्म का पालन नहीं करता, तो वह भी पशुओं के समान ही हो जाता है।

श्लोक:  
शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्। 
अर्थ: शरीर ही धर्म का साधन है। अर्थात् जीवन में धर्म पालन करने के लिए सबसे पहले स्वस्थ शरीर का होना आवश्यक है। यदि शरीर स्वस्थ नहीं होगा तो मनुष्य अपने कर्तव्यों का पालन ठीक से नहीं कर सकेगा।

निष्कर्ष
संस्कृत साहित्य अपने विविध और गहन ग्रंथों के माध्यम से न केवल भारतीय संस्कृति को समृद्ध बनाता है, बल्कि संपूर्ण मानवता को भी मूल्यवान ज्ञान और दिशा प्रदान करता है। इन ग्रंथों का अध्ययन और अनुसंधान आज भी प्रासंगिक है और यह हमें हमारी प्राचीन धरोहर से जोड़ने का काम करता है।

Saturday 17 August 2024

महिलाओं पर हिंसा: जिम्मेदार कौन?

 जिस तरीके से महिलाओं पर वीभत्स घटनाओं की संख्या बढ़ रही है ऐसा लगता है मेरी कलम लिखना तो चाहती है लेकिन कई बार उसके कदम रुक जाते है उसे लगता है लिख कर भी क्या फायदा लोग इसको अपने घर से संस्कारों की बात को लेकर जो बात होनी चाहिए वो करते नहीं ना ही उसके ऊपर किसी प्रकार की कोई भी अमल दिखाई पड़ती है और मुझे लगता है ऐसी घटनाओं के लिए हम खुद एक समाजिक प्राणी होने की वजह से भी इसके जिम्मेदार है कई लोगो को इस बात का बुरा लग सकता है क्योंकि सभी इस तरीके की घटनाओं में शामिल नहीं होते है लेकिन जो भी ऐसी घटनाओं को अंजाम देता है वह भी कही ना कही इसी समाज का हिस्सा है तो सवाल उठता है ऐसा वहशीपन कहाँ से आता है क्या इसे हम मानसिक बिमारी के रूप में देख सकते है तो अगर यह किसी भी प्रकार की मानसिक बिमारी से सम्बंधित है तो क्यों इसे हम बिमारी के तौर पर नहीं देखते है सरकार का पूरा अमला क्यों इस बात को मानने को तैयार नहीं होता है कि कही ना कही उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत इस समस्या के जड़ में है पिछले दिनों बिहार के एक सरकारी विद्यालय में एक बच्चे का देशी पिस्तौल के साथ पहुंचना क्या दर्शाता है क्या हमें समाज के रूप में इसपर सोचने की आवश्यकता महसूस नहीं होती है। 

पश्चिम बंगाल की घटना का राष्ट्रीय मानचित्र पर आना और उसके बाद एक से एक कई वीभत्स घटनाओं का अलग अलग राज्यों से बाहर आना यह दर्शाता है कि हम भारतीय एक समाज के रूप में असफल होते चले जा रहे है। हम पहले जमाने के लोगों को "पुराने जमाने के लोग है" कहकर मुँह चिढ़ाते है लेकिन कभी ऐसा सोचा है इस प्रकार की वीभत्स घटनाओं का उस समय, समाज के तौर पर जगह नहीं हुआ करती थी। क्योंकि ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वालों के लिए सिर्फ और सिर्फ एक सोच हुआ करती थी की ऐसे प्रवृति के लोग इस समाज में रहने लायक नहीं है। ऐसी घटनाओ में राजनीती भी एक महत्वपूर्ण हिंसा बनकर उभरा है समाज इसको माने या ना माने लोग आज अपने-अपने विचारधारा के राजनैतिक पार्टियों से समबन्धित राज्यों में होने वाली घटनाओं को कमतर करके आंकते है या तो अनदेखा करते है या वे कुछ बोलते ही नहीं है जबकि उसी तीव्रता में हुई दुसरी राज्यों में हुई घटनाओं पर वे मुखर होकर अपनी बातों को रखते है। जबकि एक आम जनमानस के तौर पर सिर्फ और सिर्फ ऐसी घटनाओ को मानवता पर हुआ हमला समझा जाना चाहिए। और इसकी जितनी भर्त्सना की जाए कम ही होगी, हम व्यक्तिगत तौर पर अगर ऐसी घटनाओं पर राजनैतिक विचारधारा के अनुकूल अपने रोष को प्रकट करेंगे तो वह दिन दूर नहीं किसी दिन यह हमारे अपने द्वार पर खड़ा होगा, हो सकता है हममें से किसी के अपने ऐसी घटनाओं के शिकार हो जाए तो तब भी क्या हम राजनैतिक विचारधारा के अनुकूल भर्त्सना करेंगे या चुप रहेंगे। 

सरकार कोई भी हो हमेशा हमारी और आपकी या यूं कह ले आम जनमानस की विचारधारा को प्रतिविम्बित करती है अगर इसके प्रति किसी भी राज्य की कोई भी सरकार ऐसा करने में विफल रहती है तो स्वाभाविक है वह हमारे ही चरित्र को उजागर करती है। इसका मतलब साफ़ है कि हमारी मानसिकता क्या है, हमारी सोच क्या है , हमारा समाज क्या चाहता है? मैं शुरू से ऐसी घटनाओं पर लिखता रहा हूँ जब भी मौक़ा मिलता है मैंने अपने कलम को रोक नहीं पाता हूँ एक बेटी के माता-पिता की इस विषम परिस्थिति को समझ सकता हूँ और मेरी संवेदना उन सभी परिवारों के साथ है जिन्होंने ऐसी वीभत्स घटनाओं को झेला है। मैं उनके दुःख तो नहीं बाँट सकता हूँ लेकिन ऐसे मौकों पर मैं अपनी कलम को रोक भी नहीं सकता हूँ। उन सभी बच्चीयों को अश्रुपूरित विनम्र श्रद्धांजलि जिन्होंने यह झेला है और सरकारों के कानो में खौलते तेल का काम किया है। सरकारें अपना काम करती रहेंगी उनके काम करने का अपना तरिका है वे अपने ही गति में चलती है लेकिन आज एक समाज के तौर पर उठ खड़े होने का समय आ गया है जिससे समाज में होने वाली ऐसी घटनाओं पर एक जिम्मेदार नागरिक के तौर पर आवाज़ उठाने की जिम्मेदार कोशिश होनी चाहिए। 

कैंडल मार्च या सरकारों को कोसने से हल नहीं निकलेगा, समय है हम सबको अपने बच्चों को एक ऐसा संस्कार परोसने कि जहाँ से वे किसी भी प्रकार के भेदभाव के बिना जीवन जीने का प्रयास करें। आज समाज में रंग, भाषा, प्रदेश, धर्म या जाति आधारित हो रही घटनाओं को समेटने के लिए भी कोई आगे नहीं आएगा हमें ही एक समाज के तौर पर इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी, हमें अपने बेटों और बेटियों में फर्क अपने ही घर में सिखाना छोड़ना होगा, हम रंग भेद, भाषाई या जातिगत टिपण्णी को घर के अंदर इस कदर ले आये है कि यह हमारे लिए एक बड़ी चुनौती है जिससे हमें खुद ही निपटना होगा। मैं इन बातों को विस्तार से यहाँ नहीं बोलूंगा वरना यह विषय से भटकाव की तरह हो जाएगा लेकिन सोचियेगा जरूर की आखिर ऐसा क्या है जो भी व्यक्ति ऐसी घटनाओं का जिम्मेदार होता है वह कहाँ से आता है, किस समाज से आता है?

ऐसी घटनाओं पर मेरे द्वारा लिखे गए विचारों को यहाँ पढ़ सकते है। 



©️✍️शशि धर कुमार 

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