Tuesday, 23 February 2016

अभिव्यक्ति की आज़ादी या देशभक्ति या कुछ और

कुछ लोग कहते है की अगर आपने एक पार्टी के विरोध में कुछ बोला नहीं की आप देशद्रोही हो गए और दूसरी तरफ दूसरे लोग यही बात कहते है अगर आपने एक पार्टी के विरोध में बोला नहीं की आपको भक्त करार दिया जायेगा। जैसे अगर किसी ने आज की तारीख में यह बोल दिया की JNU में देशद्रोही नारे लगे तो बीजेपी वाले लोगो की नज़र में आप देशभक्त होते है या नहीं लेकिन दूसरी तरफ वाले आपको मोदी भक्त या आरएसएस का एजेंट या कट्टर हिंदूवादी या भक्त जरूर कहते नज़र आ जाएंगे। अब इसी का दूसरा पहलु देखते है अगर किसी ने यह कह दिया JNU में जो नारे लगे वह देशद्रोही तो है लेकिन....? तो आपको जो कल तक मोदी भक्त कहते हुए नज़र आ रहे थे आज आपको देश का सच्चा देशभक्त कहता हुआ नज़र आएगा और दूसरी तरफ वाला आपको देशद्रोही, पाकिस्तानी समर्थक, वामपंथी कहता हुआ नज़र आएगा। आखिर आम आदमी जाये तो जाये कहाँ। इसी वजह से बहुत सारे लोग खुल के यह बात कह नहीं पाते है उनके मन में क्या है। तो यही वजह है की कुछ लोग इन झमेलों से अपने आप को दूर रखने की यथासंभव कोशिश कर रहे है।

सबसे ज्यादा तो तरस आता है पढ़े लिखे नौजवानो पर जो की जीवन में किसी ना किसी तरह एक खास राजनितिक आइडियोलॉजी को सपोर्ट करते है, और किसी राजनैतिक आइडियोलॉजी का समर्थन करना गलत नहीं है।


तरस इसीलिए भी आता है क्योंकि उनकी वजह से ये राजनितिक पार्टी अपने आईटी सेल के द्वारा इन चीजो को देखती परखती है की उनके बारे में युवाओ की क्या सोच है और उसी के तहत आगे की रणनीति तय करते है। और युवाओं का जोश तो देखते बनता है कैसे कैसे शेयर और like होती रहती है सोशल मीडिया पर लेखो का, रिट्वीट और ट्रॉल्लिंग होती रहती है। दुःख तो तब होता है जब बिना कुछ जाँचे परखे शेयर और like करना शुरू कर देते है, वे ऐसा क्यों करते है क्योंकि यह उनकी आइडियोलॉजी जो किसी एक खास राजनीती से मिलती है इसीलिए ऐसा करते है। और बिना जाँचे परखे शेयर, like या ट्वीट करना सही नहीं है क्योंकि कभी कभी इससे गलत सन्देश पहुँच जाता है। और बुद्धिमत्ता का परिचय तो देखिये सिर्फ like या चुपचाप शेयर कर देंगे, ना ही कोई कमेंट ना ही अपना विचार, तो फिर शेयर करने का मतलब क्या हुआ। आप पढ़े लिखे है समझदार है, आपको यह भी पता है कोई भी राजनैतिक पार्टी परफेक्ट नहीं है फिर भी आप जैसे पढ़े लिखे लोग उनका इस तरह समर्थन करेंगे तो क्या होगा इस देश का, देशहित में सोचे क्या सही है क्या नहीं।

आजकल सोशल मीडिया पर दो ही बाते चलती है या तो आप विपक्ष के साथ खड़े नज़र आते है या सत्ता पक्ष के साथ। आपकी अपनी कोई आइडियोलॉजी नही है। आप निष्पक्ष बात नहीं रख सकते है, क्योंकि ऐसा लगता है जैसे आपको कोई हक़ नहीं है ऐसा करने का। सबसे बड़ी बात है विरोध करना है, करे लेकिन आप एक दूसरे के मौलिक अधिकारो का हनन करते हुए विरोध नहीं कर सकते है। अगर आप किसी के ऊपर उंगली उठाएंगे तो आपके ऊपर भी कोई उठाएगा।

उदाहरण के तौर पर NDTV, INDIA TODAY कहता है TIMESNOW और ZEENEWS एकतरफा न्यूज़ दिखाता है यही बात दूसरी पार्टी कह रही है। तो सवाल उठता है एकतरफा कैसे हो गया। आप कहते है आप एकतरफा है तो दूसरी पार्टी वही कह रही है। तो बात संतुलन की हुई नहीं ना। आप अपने स्टूडियो में एक्सपर्ट को बुलाते है कहते है वीडियो सही नहीं है है और वही दूसरी तरफ दूसरी पार्टी इसके उलट कह रही है। हद तो तब हो जाती है जब एक न्यूज़ चैनल किसी को देशद्रोही साबित करने पर लगा हुआ है तो दूसरे न्यूज़ चैनल देशद्रोही नही साबित करने पर तुले हुए है। और दोनों तरफ के लोग यह कहते हुए नज़र आते है की मीडिया ट्रायल बंद होना चाहिए। कैसे बंद हो दोनों तरफ तो एक ही बात चल रही है एक साबित करना चाहता है देशद्रोही है दूसरा करना चाहता है देशद्रोही नहीं है। बात निष्पक्ष कहाँ रह गयी। तो फैसला कैसे हो की सही कौन कह रहा है। फैसला तो न्यायालय में ही हो सकता है और जब न्यायालय तक बात पहुँचती है तो दोनों तरफ के लोग जल्दी फैसले के लिए धरने प्रदर्शन शुरू कर देते है, जल्दी फैसला दो, जल्दी फैसला दो। अगर जल्दी आ गयी तो जिनके पक्ष में फैसला नहीं आया वे कहेंगे फेयर ट्रायल नहीं था और अगर देरी से फैसला आया तो यह कहेंगे की सरकारी पक्ष के लोग दवाब बना रहे है अदालत पर। उसके बाद भी अगर फैसला पक्ष में नहीं आता है तो कहेंगे की अदालत का फैसला प्रभावित था। एक तरफ आप कहते है फैसला अदालत में होनी चाहिए ना की सड़क या स्टूडियो में बैठकर, आप करे तो ठीक हम करे तो गलत ये कैसा पक्ष है। दूसरी तरफ आप कहते है 3-4 जज मिलके यह फैसला नहीं कर सकते। आप खुद ही सोचिये आप कहना क्या चाहते है। अगर जज फैसला नहीं करेंगे तो कौन करेंगे, आम आदमी अगर आम आदमी करेंगे तो सोचिये क्या होगा देश का यह सभ्य समाज नहीं रह जायेगा, यह एक जंगल कहलायेगा जंगल। अनुशासन जरुरी है देश को, विचार को, अभिव्यक्ति की आज़ादी को आगे बढ़ाने के लिए, और अनुशासन के लिए कानून जरुरी है। एक तरफ आप कहते है ज्यूडिशियरी पर पूरा भरोषा है तो आपको उनका सम्मान करना सीखना होगा, एक तरफ आप कहते है आपको संविधान पर पूरा भरोषा है तो उसका सम्मान करना सीखना होगा, ना की अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर उसको कोसना। आपको अभिव्यक्ति की आज़ादी इसीलिए मिली है ताकि कुछ सिस्टम से गलत हो ना हो जाये, अगर कुछ गलत होता है तो उसके बारे में उसे बताया जाय ताकि सुधार हो सके। एक छोटी सी वीडियो क्लिप देख रहा था उसपर किसी ने लिखा था संघी और तथाकथित रक्षा विशेसज्ञ, और वे थे आर्मी के एक सेवानिवृत अधिकारी, जिस व्यक्ति के बारे में यह बोला गया कल तक यही व्यक्ति NDTV पर रक्षा विशेषज्ञ के तौर पर आता रहा है और आज संघी हो गया। तो सोचिये आप कहना क्या चाहते है।

मेरा सिर्फ यह कहना है की बात द्विपक्षीय होनी चाहिए, युवाओ को संविधान और कानून को सम्मान करना सीखना होगा। आपको पता है हर कार्यालय में एक समय निर्धारित होता है की आप समय पर आये और अपना काम समय पर करे। और हम सब इसका पालन करते है। आप स्कूल में हो या कॉलेज में हो या यूनिवर्सिटी में हो हर जगह एक समय निर्धारित होता है की उस वर्ग में जितने बच्चे है सबको एक सामान शिक्षा मिल सके, अगर ऐसा नही होगा तो सोचिये क्या होगा। तो अनुशासन जरुरी है अपने से बड़ो का सम्मान जैसे जरुरी है वैसे ही देश का संविधान और न्याय व्यवस्था का सम्मान भी जरुरी है। अभिव्यक्ति की आज़ादी भी द्विपक्षीय होनी चाहिए ना की एकपक्षीय, क्योंकि अभिव्यक्ति की आज़ादी का मतलब भी यही होता है अगर आप अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर सिर्फ अपनी ही बात कहते चले जायेंगे तो यह सही मायने में अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं है।

अंत में अपने सभी युवा साथियों से अनुरोध करूँगा की वे सोचे देश के लिए, इतनी सारी समस्याएं है जो ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही है। दुनिया सिर्फ सोशल मीडिया या आपके इर्द गिर्द घूमने वाली चीजो के साथ नहीं है, गाँव जाये असली भारत वही बसता है, जहाँ आज़ादी के 65 साल बाद भी लोग एक अदद रोड, एक अदद हैंडपंप, एक अदद बिजली के खम्भे के लिए तरसते है, शिक्षा तो दूर की बात है। आपके अंदर अपार ऊर्जा है जिसका संचालन आप ही कर सकते है सही दिशा में करे, हम कामयाब होंगे, और जरूर होंगे।
धन्यवाद!

Saturday, 20 February 2016

JNU के माननीय सदस्यों से अपील

StandWithJNU कुछ लोग इस शब्द को लगता है फैशन स्टेटमेंट की तरह लेने लगे है, वैसे ही जैसे कुछ पत्रकार यह कहने लगे है मैं देशद्रोही हूँ। ऐसे शब्दों का चुनाव करने वालो को देखकर ऐसा लगता है जैसे एक ऐसे मुद्दे को भटकाने की कोशिश में लगे है जो वाकई में एक सभ्य समाज के लिए खतरनाक है। अंग्रेजी में पढ़ने और लिखने वाले अपने को छोड़कर किसी और की बुद्धिमत्ता को कमतर आंकते है या उन्हें किसी खास एक पार्टी के विचारधारा से मिलाकर देखते है।

JNU को भारत में सर्वश्रेष्ठ भारत के विद्यार्थियों ने बनाया और इसमें किसी एक व्यक्ति का योगदान नहीं माना जा सकता है और यह एक दिन की मेंहनत नहीं है।

JNU एक विश्वविद्यालय ही नही है, यह एक जज्बा है, यह एक परंपरा है, यह एक शान है, जो कभी भी एक झटके में खत्म नहीं हो सकता है। यह जैसे आपकी शान है हमारी भी शान है और हम भी गर्व से कहते है, JNU हमारे देश में है। लेकिन जो अभद्र भाषा का उपयोग किया गया देश के लिए क्या वह सही है।


मेरे कुछ व्यक्तिगत सवाल है जो मेरे मन में उमड़ घुमड़ रहे है। कृपया कर सीधा उत्तर दे, ना की किसने किया क्या, क्या नहीं किया। कोई पोलिटिकल करेक्ट जवाब नही चाहिए। अगर आप जवाब देते है तो ठीक है नहीं देते है तो भी ठीक है चुनाव आपका है:
1) क्या भारत की बर्बादी का नारा लगाना सही है?
2) क्या कश्मीर लड़ के लेंगे का नारा लगाना सही है?
3) क्या इंडिया गो बैक का नारा लगाना सही है?
4) क्या संविधान के प्रति सम्मान व्यक्त करके सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ बोलना सही है?
5) क्या भारत में पाकिस्तान ज़िंदाबाद का नारा लगाना सही है?
6) क्या भारत के संविधान को गाली देना सही है?
7) क्या भारत के संविधान के खिलाफ बोलना सही है?
8) क्या भारत की सेना के खिलाफ बोलना सही है?
9) क्या विचार का विरोध करते-करते व्यक्ति विशेष् का विरोध करना सही है?
10) क्या भारत सरकार की खिलाफत करते-करते उसी भारत सरकार के सब्सिडी पर विश्वविद्यालय में पढ़ना सही है?

आप भले सरकार की खिलाफत करे आपको हक़ है लेकिन आप सोचियेगा आप ऐसी हरकते कर भारत की जनता तक क्या सन्देश पहुँचाना चाहते है।

आप कहते है कुछ एक लोगो की गलत हरकतों की सजा एक संस्थान नहीं भुगत सकता। आप कहते है कुछ एक लोगो की वजह से पुरे संस्थान को गलत नहीं ठहराया जा सकता है। एकदम सही बात है। लेकिन कुछ ऐसे लोग पनपे कैसे आप जैसे बुद्दिजीवियों के बीच, आपको ही सोचना होगा। और इस गंदगी को साफ़ भी आप सबको मिल के करना होगा, क्योंकि अगर एक दुश्मन हो तो उसे सजा देकर ख़त्म किया जा सकता है लेकिन ऐसा लगता है यह शारीरिक दुश्मन नहीं है यह वैचारिक दुश्मन है। और वैचारिक दुश्मनी विचार से ही ख़त्म हो सकता है। और आप माने या माने लेकिन यह एक दिन की बात नहीं है क्योंकि विचार कभी एक दिन में तैयार नहीं होता है इसमें बरसों लगता है।

अगर आपलोग सही में JNU को बचाना चाहते है तो अंदर हो रही ऐसी हरकतों पर लगाम लगाये। क्योंकि यह आपका कर्त्तव्य भी है और साथ में आपका धर्म भी है।

JNURow - खोखली बुद्धिमत्ता या अतिदेशभक्ति

ये कहाँ थे जब मालदा और पूर्णिया में लोकतंत्र का मखौल उड़ाया गया। तब इनकी बुद्धिजीविता विदेश भ्रमण को गयी थी। अगर सरकार और उसके खिलाफ कुछ बोलना है बोले आपको पूरा हक़ है लेकिन देश के टुकड़े हज़ार करके के आप क्या साबित करना चाहते है। सरकार के खिलाफ आपको बोलने में डर लगता है। हम बड़ी जल्दी भूल जाते है मुम्बई एक लड़के को कार्टून बनाने के चक्कर में देशद्रोह का मुकदमा लगाया गया था तब किसी ने नहीं बोला क्यों क्योंकी वह आम आदमी था। क्या मुझे यही नारे लगाने की आज़ादी मिलेगी सड़को पर शायद नही। मेरा सिर्फ एक ही कहना है अगर एक बात कहने की आज़ादी लेखक, बुद्धिजीवी, नेताओ, विद्यार्थियों को है तो आम आदमी को क्यों नहीं। मतलब साफ़ है सरकार कोई भी हो वह सिर्फ दमन कर सकती है आवाज़ों को जो आम जनता से उठती है क्यों क्योंकि वहाँ उसके सपोर्ट में कोई खड़ा नहीं होना चाहता है। मुझे तरस आता है अपने आप पर लोग जो लोग राजनीती भविस्य की आड़ में देश की जनता की भावनाओ से खिलवाड़ करते है। अपने हिसाब से चीजो को इन्टरप्रेट करता है। हर व्यक्ति को है आपको भी है मुझे भी है लेकिन देश के टुकड़े हज़ार होंगे, हमे चाहिए आज़ादी। कौन सी आज़ादी की बात कर रहे है। JNU में पढ़ने वाले 30-40% विद्यार्थी स्नातक के क्या किसी ने उन्हें देखा किसी प्रोटेस्ट नहीं क्योंकि यही बड़े भाई बनते है उनको बोलते है अपने रूम में जाओ तुम्हारा पढ़ने का टाइम है। 10 बजे के बाद कोई भी स्नातक का विद्यार्थी ढाबे पर नहीं दीखता है क्या यह आज़ादी है।

अगर आप इतने बुद्धिजीवी है तो थोड़ा बुद्धिजीविता का परिचय दीजिये और मुखर हो के बोले की JNU में यह देश विरोधी नारे लगे। आप ऐसा कैसे कह सकते है तथाकथित देश विरोधी नारे। शब्दों का हेर फेर मुझे भलीभाँति समझ आता है भले कुछ लोग ना समझ पाये।

तो मेरा सवाल साफ़ है की अगर देशद्रोह है तो देशद्रोह है इसमें किंतु और परंतु कहाँ से आता है। क्या एक आम आदमी यही नारे लगाएगा तब क्या आप यही कहेंगे। अगर कोई राजनेता, विद्यार्थी, लेखक पर देशद्रोह का आरोप नहीं लगेगा तो किस पर लगेगा, आम आदमी पर। क्या आम आदमी की यह औकात है की ऐसा वह बोल पाये। तो सोचना आपको और हमको है की इन चंद वोट के लुटेरो से देश को बचाना है या यु ही घूंट घूंट कर जीने देना है देश को जहाँ एक तरफ हमारे जवान सीमाओं की सुरक्षा के लिए जीते और मरते है दूसरी तरफ ये चंद लोग इस देश की सहिष्णुता और एकता को खंडित करने की कोशिश कर रहे है।

कोई नहीं आया एक आम आदमी ही था मुम्बई का असीम त्रिवेदी, अख़लाक़ का क्या हुआ आम आदमी ही था, मालदा में क्या हुआ आम आदमी ही थे, पूर्णिया में क्या हुआ आम आदमी ही थे। जनाब आम आदमी के साथ कोई खड़ा नहीं होता और ना होगा क्योंकी वह आम आदमी जो ठहरा। ये सिर्फ बुद्दिजीवियों के लिए है, लेखको के लिए है, ये सिर्फ राजनेताओ के लिए है, ये सिर्फ पत्रकारो के लिए है। आम आदमी के लिए कुछ नहीं है कोई नहीं लड़ता। एक आम आदमी ही है जिसने तमिलनाडु सरकार के खिलाफ एक लोकगीत गाया और जेल में है।

सोचना आपको है क्योंकि आप किसी ना किसी तरह से इन संस्थानों में आपकी गाढ़ी कमाई का पैसा जरूर जाता है। और आपकी कमाई के पैसो से हमारे देश के कुछ अच्छे दिमाग को चुना जाता है इन संस्थानों में पढाई के लिए चुना जाता है ताकि आगे चल कर यही दिमाग भविष्य को तैयार करने में सहायक हो।

Monday, 15 February 2016

बोलने की आज़ादी या राजनीती

ऐसा लगता है जैसे हमारे यहाँ बोलने की आज़ादी का मतलब होता है अगर आप सरकार में है विरोध सहना और विपक्ष में है तो सरकार को पानी पी पी के कोसना। वही हाल कुछ घटनाओ को लेकर भी राजनितिक पार्टियां ऐसे रियेक्ट करती है जैसे ऐसा पहले कभी हुआ ही नहीं। यहाँ पर राजनितिक पार्टियां किसी भी घटने को हमेशा अपने नफे नुक्सान के लिए देखती है चाहे उसमे जनता का कितना नुक्सान ही क्यों ना हुआ हो।

ऐसा लगता है अगर आप स्कॉलर हो तो भारत में आपको कुछ भी बोलने का अधिकार हो जाता है और आम आदमी को एक शब्द भी बोलना भारी परता है सिस्टम या न्यायालय के खिलाफ़। क्योंकि हाल के दिनों जगजाहिर स्कॉलर ने उच्चतम न्यायलय के फैसलो के विरुद्ध भी बाते कही है। क्या वे न्यायालय की अवमानना नहीं थी? मुझे नहीं लगता कोई आम आदमी ऐसी हिमाकत कर सकता है। क्या कोई उन्हें समझायेगा की अगर आपको बोलने की आज़ादी है तो इसका मतलब ये नहीं की आप देश के विरुद्ध बोलते रहे और देश को शर्मशार करते रहे।


आम आदमी बेचारा सिर्फ देखने और सुननेे के अलावा कुछ नहीं कर सकता है। क्योंकि आम आदमी को तो रोजी रोटी से ही फुरसत नहीं है, वह सिर्फ अपने घर में बैठ की सिस्टम को गाली दे सकता है वह भी चुपके चुपके ताकि कोई सुन ना ले।

शिक्षा का भगवाकरण हो रहा है, शिक्षण संस्थानों में राजनीती का हस्तक्षेप हो रहा है, अगर शिक्षण संस्थानों में छात्र संगठन होगा तो थोड़ी बहुत राजनीती तो होगी ही। लेकिन अगर कोई देशद्रोह की बात करता है तो क्या उसके आगे या पीछे ये राजनेता लेकिन, किन्तु, परंतु लगाते है, क्या यह सही है? सोचना आपको है क्योंकि आप किसी ना किसी तरह से इन संस्थानों में आपकी गाढ़ी कमाई का पैसा जरूर जाता है। और आपकी कमाई के पैसो से हमारे देश के कुछ अच्छे दिमाग को चुना जाता है इन संस्थानों में पढाई के लिए। ताकि आगे चल कर यही दिमाग भविष्य को तैयार करने में सहायक हो। लेकिन कुछ लोग कहते है की किसी को फाँसी हो गयी वह सही ट्रायल नहीं था तो आप न्यायालय में जाये फिर से री-पेटिशन डाले और बहस करे की, जो उन जजों ने किया है गलत किया है। जहाँ तक मेरी जानकारी है हमेशा भारत में कोई भी केस निचली अदालत से आगे बढ़कर ऊपरी अदालत तक जाती है और सर्वोच्च न्यायालय तक जाता उसके बाद भी आप रिव्यु पेटिशन डाल सकते है, उसके बाद भी आप राष्ट्रपति के पास जा सकते है। जिस केस की यह लोग बात कर रहे है उसका सारा ट्रायल 2007 में ख़त्म हो गया था और 2007 से ही दया याचिका राष्ट्रपतिजी के पास थी और अभी निवर्तमान राष्ट्रपतिजी ने माफीनामा क़बूल नहीं की तो उसके बाद भी आप कहते है फेयर ट्रायल नहीं था। 3 जज मिल के किसी के बारे यह फैसला नहीं ले सकते है की कौन आतंकवादी है कौन नहीं तो क्या इस देश की 125 करोड़ जनता करेगी। अगर ऐसा होता है तो यह काफी शर्मनाक सवाल है एक PhD के स्टूडेंट का। अगर 125 करोड़ जनता करेगी, तो आप भी अपने आरोपो को लेकर 125 करोड़ जनता के बीच में जाए ना की उन्ही 3 जजों की खंडपीठ में, फिर शायद आपको पता चल जायेगा, लेकिन नही जब अपने पर बात आती है तो लोग उसी कानून का दरवाजा खटखटाते है जिसकी वे भर्त्सना करते दीखते है । कानून क्या संवेदनाओ पर फैसला सुनाती है या साक्ष्यों के आधार पर। तो क्या देश की पूरी जनता यह फैसला करेगी की कौन आतंकवादी है कौन नहीं। अगर ऐसा है तो आपका फैसला भी वही जनता करेगी बस एक बार आप बाहर तो निकले। अगर आपका फैसला जनता नही वही 3 जज करेंगे तो आप अपने वक्तव्य में झांक के देखिये की आप क्या कह रहे है। मतलब साफ़ है आप एक राजनितिक महत्वाकांक्षा के तहत यह सारा हथकंडा अपना रहे है। लेकिन मुझे आश्चर्य होता है अपने कुछ राजनेताओ पर वे कहते है इससे उन्हें इमरजेंसी की याद आ रही है, कुछ कह रहे है बिना शर्त उन्हें सारे आरोप वापस लेने चाहिए, वे कहते है निर्दोषो को बंद नही करना चाहिए, वे कहते है विद्यार्थी है उन्हें बंद नहीं करना चाहिए। माफ़ कीजियेगा की अगर यही व्यक्ति कल को आपकी बेटी के साथ बलात्कार के जुर्म में पकड़ा जाता है तब भी क्या आप यही कहेंगे। अगर यही व्यक्ति पार्लियामेंट में घुसकर किसी राजनेता को मार देता है क्या तब भी आप यही कहेंगे। अगर यही व्यक्ति किसी राजनेता पर पथ्थर मारता है तब भी आप यही कहेंगे, क्योंकि जो व्यक्ति सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का विरोध फांसी के 2 साल बाद करता है तो वह कुछ भी कर सकता है। आपको यह कहते हुए नहीं लगता है आप दोहरापन भरी बाते करते है। एक PhD का स्टूडेंट इस तरह के नारे लगाएगा तो आम आदमी से क्या अपेक्षा कर सकते है। यह तो वही बात हो गयी की अगर आपने किसी का बलात्कार किया और वह गर्भवती हो गयी तो भी आप बच्चे है क्योंकि आपकी उम्र 16 साल से कम है, अरे एक बच्चे को इस दुनिया में लाने का सहभागी बच्चा कैसे हो गया। हमारे यहाँ PhD आखिरी योग्यता मानी जाती है शैक्षणिक स्तर पर, आप कहते है विद्यार्थी है, अगर विद्यार्थी है तो विद्यार्थी शब्द को साबित करे पहले। लेकिन जो व्यक्ति शैक्षणिक स्तर पर आखिरी पायदान पर पढाई कर रहा हो वह ऐसी बाते करेगा समझ से परे है। कुछ लोग कहते है इंडिया गो बैक क्या मतलब, क्या इंडिया ने जबरदस्ती कब्ज़ा किया हुआ है JNU पर, अगर नहीं तो इस नारे का क्या मतलब है।

आप जिस सिस्टम को इतना गाली देते है उसी सिस्टम ने आपको JNU जैसे संस्थानों में कुछ एक सौ रुपैये में विश्व स्तरीय पढाई का मौका देती है। आप अपने अंदर जज्बा पैदा करे सिस्टम के खिलाफ आवाज उठाने की, बहुत सारे तरीके है लेकिन नही। अगर कोई आतंकवादियों के पक्ष में नही है तो नारे क्यों लगे, अगर लगे तो क्यों लगे, किसने लगाये जिसने भी लगाये, उसके खिलाफ बांकी स्टूडेंट का क्या कर्त्तव्य होता है उसके खिलाफ कंप्लेंट नहीं करनी चाहिए थी। दिक्कत यह है की ज्यादातर लोग वहाँ पढ़ने जाते है और कुछ लोग इसका उपयोग करने जाते है, जो पढ़ने जाते है वे यह कहके चुप रह जाते है छोड़ो पुलिस तो आती नही कैंपस के अंदर तो शिकायत करके क्या फायदा। यही वजह है ऐसे कुछ लोग इसका फायदा उठाते है। अगर किसी की सहमति नही थी तो क्या किसी के फांसी को शहीद बोलना कानून का उल्लंघन नहीं है अगर है तो आपको सजा मिलनी चाहिए या नही। सोचना आपको है किसी एक विचारो का विरोध करने के लिए आप अगर एक फांसी, सजायाफ्ता मुजरिम को आगे रखेंगे तो कोई आम जनता माफ़ नहीं करेगी भले ही आप न्यायालय से बरी क्यों ना हो जाये।

तो मेरा सवाल साफ़ है की अगर देशद्रोह है तो देशद्रोह है इसमें किंतु और परंतु कहाँ से आता है। क्या एक आम आदमी यही नारे लगाएगा तब क्या आप यही कहेंगे। मैं मानता हूँ की हमारे यहाँ एक स्तर सिद्ध है JNU जैसे संस्थानों का, आग्रह करता हूँ की उसकी गरीमा ना गिराये। अगर कोई राजनेता, विद्यार्थी, लेखक पर देशद्रोह का आरोप नहीं लगेगा तो किस पर लगेगा, आम आदमी पर। क्या आम आदमी की यह औकात है की ऐसा वह बोल पाये। और अगर बोल भी दिया तो क्या होगा इसका जीता जगता उदाहरण है मुम्बई का वह नौजवान जिसपर एक कार्टून बनाने पर देशद्रोह का आरोप लगाकर जेल भेजा गया। तो सोचना आपको और हमको है की इन चंद वोट के लुटेरो से देश को बचाना है या यु ही घूंट घूंट कर जीने देना है देश को जहाँ एक तरफ हमारे जवान सीमाओं की सुरक्षा के लिए जीते और मरते है दूसरी तरफ ये चंद लोग इस देश की सहिष्णुता और एकता को खंडित करने की कोशिश कर रहे है।

पूर्व सैनिको ने भी कह दिया है अगर इन घर में छुपे बेवकूफ लोगो को समेटा नहीं गया तो वे भी अपनी डिग्रियां JNU को लौटा देंगे और सोचिये क्या होगा फिर इस देश का। माफ़ी चाहता हूँ अगर किन्ही की भावनाओ को कोई आहत पहुंची हो तो क्योंकि मैं मानता हूँ हर कोई मेरे विचार से सहमत हो जरुरी नहीं लेकिन आप सोचियेगा जरूर की क्या घर में घर का आदमी घर के बारे में यह बोले की जब तक यह घर टूट ना जाये तब तक लड़ते रहेंगे तो सोचिये घर का मुखिया क्या करेगा।

और सबसे बड़ी बात है राजनेताओ की जो इतनी जल्दी ट्वीट कर देते है लगता है जैसे पूरी घटना की जानकारी इनको पहले से हो और ट्विटर पर ही फैसला सुना देते है, तो फिर न्यायालय किस लिये है आप लोग कानून लाओ और सम्पूर्ण न्याय व्यवस्था का विघट्न कर दो। आगे से आपलोग ही फैसला सुनाओगे की ये हुआ था जी वो भी ट्विटर पर तो लोगो को कम से न्यायालय के चक्कर से छुटकारा मिल जायेगा और पैसे भी बच जायेंगे। ऐसे नेतागण कैसे अपने व्यस्त कार्यक्रम में से इतनी जल्दी पहुँच भी जाते है लेकिन कुछ जगह जहाँ अचानक से लाखो लोग जमा हो जाते है और सरकारी तंत्र को नष्ट और आग के हवाले कर देते है तब ये नेतागण ये कहते नज़र आते है की कानून अपना काम करेगा, क्या वहाँ पर मरने वाले लोग इंसान नहीं थे? कुछ तो शर्म कर लो इतने सारे काम है करने को उस पर तो ध्यान नही जाता है उसके बारे में इतना नहीं चिल्लाते। साफ़ दिख रहा है आपको उन बातो को उठाने में कोई दिलचस्पी नहीं है जो बहुत सारे लोगो की भलाई के लिए होगा। कोई यह नही कहता की शिक्षा में सुधार करो, कोई ये नहीं कहता की कैसे समाज के निचले तबके तक फायदा पहुंचे। सोचिएगा जरा ईमानदारी से, की आप समाज को किस धारा की ओर ले जा रहे है और ले जाना चाहते है।

आप सभी आम आदमी के साथ साथ हमारे यहाँ की राजनितिक पार्टियों से अनुरोध है की अपने बोलने की प्रवृति का अनुशासन से पालन करना चाहिए। क्योंकि कभी कभी आप ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करते है जो कही से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सही ठहराया जा सकता है। आप सभी लोगो का सरकार में बैठे लोगो की आलोचना अवश्य करे लेकिन कम से कम अगर आप सार्वजानिक जीवन में जीने वाले लोग है तो आपको कुछ बातो का अवश्य ध्यान रखना चाहिए।

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