Monday, 15 February 2016

बोलने की आज़ादी या राजनीती

ऐसा लगता है जैसे हमारे यहाँ बोलने की आज़ादी का मतलब होता है अगर आप सरकार में है विरोध सहना और विपक्ष में है तो सरकार को पानी पी पी के कोसना। वही हाल कुछ घटनाओ को लेकर भी राजनितिक पार्टियां ऐसे रियेक्ट करती है जैसे ऐसा पहले कभी हुआ ही नहीं। यहाँ पर राजनितिक पार्टियां किसी भी घटने को हमेशा अपने नफे नुक्सान के लिए देखती है चाहे उसमे जनता का कितना नुक्सान ही क्यों ना हुआ हो।

ऐसा लगता है अगर आप स्कॉलर हो तो भारत में आपको कुछ भी बोलने का अधिकार हो जाता है और आम आदमी को एक शब्द भी बोलना भारी परता है सिस्टम या न्यायालय के खिलाफ़। क्योंकि हाल के दिनों जगजाहिर स्कॉलर ने उच्चतम न्यायलय के फैसलो के विरुद्ध भी बाते कही है। क्या वे न्यायालय की अवमानना नहीं थी? मुझे नहीं लगता कोई आम आदमी ऐसी हिमाकत कर सकता है। क्या कोई उन्हें समझायेगा की अगर आपको बोलने की आज़ादी है तो इसका मतलब ये नहीं की आप देश के विरुद्ध बोलते रहे और देश को शर्मशार करते रहे।


आम आदमी बेचारा सिर्फ देखने और सुननेे के अलावा कुछ नहीं कर सकता है। क्योंकि आम आदमी को तो रोजी रोटी से ही फुरसत नहीं है, वह सिर्फ अपने घर में बैठ की सिस्टम को गाली दे सकता है वह भी चुपके चुपके ताकि कोई सुन ना ले।

शिक्षा का भगवाकरण हो रहा है, शिक्षण संस्थानों में राजनीती का हस्तक्षेप हो रहा है, अगर शिक्षण संस्थानों में छात्र संगठन होगा तो थोड़ी बहुत राजनीती तो होगी ही। लेकिन अगर कोई देशद्रोह की बात करता है तो क्या उसके आगे या पीछे ये राजनेता लेकिन, किन्तु, परंतु लगाते है, क्या यह सही है? सोचना आपको है क्योंकि आप किसी ना किसी तरह से इन संस्थानों में आपकी गाढ़ी कमाई का पैसा जरूर जाता है। और आपकी कमाई के पैसो से हमारे देश के कुछ अच्छे दिमाग को चुना जाता है इन संस्थानों में पढाई के लिए। ताकि आगे चल कर यही दिमाग भविष्य को तैयार करने में सहायक हो। लेकिन कुछ लोग कहते है की किसी को फाँसी हो गयी वह सही ट्रायल नहीं था तो आप न्यायालय में जाये फिर से री-पेटिशन डाले और बहस करे की, जो उन जजों ने किया है गलत किया है। जहाँ तक मेरी जानकारी है हमेशा भारत में कोई भी केस निचली अदालत से आगे बढ़कर ऊपरी अदालत तक जाती है और सर्वोच्च न्यायालय तक जाता उसके बाद भी आप रिव्यु पेटिशन डाल सकते है, उसके बाद भी आप राष्ट्रपति के पास जा सकते है। जिस केस की यह लोग बात कर रहे है उसका सारा ट्रायल 2007 में ख़त्म हो गया था और 2007 से ही दया याचिका राष्ट्रपतिजी के पास थी और अभी निवर्तमान राष्ट्रपतिजी ने माफीनामा क़बूल नहीं की तो उसके बाद भी आप कहते है फेयर ट्रायल नहीं था। 3 जज मिल के किसी के बारे यह फैसला नहीं ले सकते है की कौन आतंकवादी है कौन नहीं तो क्या इस देश की 125 करोड़ जनता करेगी। अगर ऐसा होता है तो यह काफी शर्मनाक सवाल है एक PhD के स्टूडेंट का। अगर 125 करोड़ जनता करेगी, तो आप भी अपने आरोपो को लेकर 125 करोड़ जनता के बीच में जाए ना की उन्ही 3 जजों की खंडपीठ में, फिर शायद आपको पता चल जायेगा, लेकिन नही जब अपने पर बात आती है तो लोग उसी कानून का दरवाजा खटखटाते है जिसकी वे भर्त्सना करते दीखते है । कानून क्या संवेदनाओ पर फैसला सुनाती है या साक्ष्यों के आधार पर। तो क्या देश की पूरी जनता यह फैसला करेगी की कौन आतंकवादी है कौन नहीं। अगर ऐसा है तो आपका फैसला भी वही जनता करेगी बस एक बार आप बाहर तो निकले। अगर आपका फैसला जनता नही वही 3 जज करेंगे तो आप अपने वक्तव्य में झांक के देखिये की आप क्या कह रहे है। मतलब साफ़ है आप एक राजनितिक महत्वाकांक्षा के तहत यह सारा हथकंडा अपना रहे है। लेकिन मुझे आश्चर्य होता है अपने कुछ राजनेताओ पर वे कहते है इससे उन्हें इमरजेंसी की याद आ रही है, कुछ कह रहे है बिना शर्त उन्हें सारे आरोप वापस लेने चाहिए, वे कहते है निर्दोषो को बंद नही करना चाहिए, वे कहते है विद्यार्थी है उन्हें बंद नहीं करना चाहिए। माफ़ कीजियेगा की अगर यही व्यक्ति कल को आपकी बेटी के साथ बलात्कार के जुर्म में पकड़ा जाता है तब भी क्या आप यही कहेंगे। अगर यही व्यक्ति पार्लियामेंट में घुसकर किसी राजनेता को मार देता है क्या तब भी आप यही कहेंगे। अगर यही व्यक्ति किसी राजनेता पर पथ्थर मारता है तब भी आप यही कहेंगे, क्योंकि जो व्यक्ति सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का विरोध फांसी के 2 साल बाद करता है तो वह कुछ भी कर सकता है। आपको यह कहते हुए नहीं लगता है आप दोहरापन भरी बाते करते है। एक PhD का स्टूडेंट इस तरह के नारे लगाएगा तो आम आदमी से क्या अपेक्षा कर सकते है। यह तो वही बात हो गयी की अगर आपने किसी का बलात्कार किया और वह गर्भवती हो गयी तो भी आप बच्चे है क्योंकि आपकी उम्र 16 साल से कम है, अरे एक बच्चे को इस दुनिया में लाने का सहभागी बच्चा कैसे हो गया। हमारे यहाँ PhD आखिरी योग्यता मानी जाती है शैक्षणिक स्तर पर, आप कहते है विद्यार्थी है, अगर विद्यार्थी है तो विद्यार्थी शब्द को साबित करे पहले। लेकिन जो व्यक्ति शैक्षणिक स्तर पर आखिरी पायदान पर पढाई कर रहा हो वह ऐसी बाते करेगा समझ से परे है। कुछ लोग कहते है इंडिया गो बैक क्या मतलब, क्या इंडिया ने जबरदस्ती कब्ज़ा किया हुआ है JNU पर, अगर नहीं तो इस नारे का क्या मतलब है।

आप जिस सिस्टम को इतना गाली देते है उसी सिस्टम ने आपको JNU जैसे संस्थानों में कुछ एक सौ रुपैये में विश्व स्तरीय पढाई का मौका देती है। आप अपने अंदर जज्बा पैदा करे सिस्टम के खिलाफ आवाज उठाने की, बहुत सारे तरीके है लेकिन नही। अगर कोई आतंकवादियों के पक्ष में नही है तो नारे क्यों लगे, अगर लगे तो क्यों लगे, किसने लगाये जिसने भी लगाये, उसके खिलाफ बांकी स्टूडेंट का क्या कर्त्तव्य होता है उसके खिलाफ कंप्लेंट नहीं करनी चाहिए थी। दिक्कत यह है की ज्यादातर लोग वहाँ पढ़ने जाते है और कुछ लोग इसका उपयोग करने जाते है, जो पढ़ने जाते है वे यह कहके चुप रह जाते है छोड़ो पुलिस तो आती नही कैंपस के अंदर तो शिकायत करके क्या फायदा। यही वजह है ऐसे कुछ लोग इसका फायदा उठाते है। अगर किसी की सहमति नही थी तो क्या किसी के फांसी को शहीद बोलना कानून का उल्लंघन नहीं है अगर है तो आपको सजा मिलनी चाहिए या नही। सोचना आपको है किसी एक विचारो का विरोध करने के लिए आप अगर एक फांसी, सजायाफ्ता मुजरिम को आगे रखेंगे तो कोई आम जनता माफ़ नहीं करेगी भले ही आप न्यायालय से बरी क्यों ना हो जाये।

तो मेरा सवाल साफ़ है की अगर देशद्रोह है तो देशद्रोह है इसमें किंतु और परंतु कहाँ से आता है। क्या एक आम आदमी यही नारे लगाएगा तब क्या आप यही कहेंगे। मैं मानता हूँ की हमारे यहाँ एक स्तर सिद्ध है JNU जैसे संस्थानों का, आग्रह करता हूँ की उसकी गरीमा ना गिराये। अगर कोई राजनेता, विद्यार्थी, लेखक पर देशद्रोह का आरोप नहीं लगेगा तो किस पर लगेगा, आम आदमी पर। क्या आम आदमी की यह औकात है की ऐसा वह बोल पाये। और अगर बोल भी दिया तो क्या होगा इसका जीता जगता उदाहरण है मुम्बई का वह नौजवान जिसपर एक कार्टून बनाने पर देशद्रोह का आरोप लगाकर जेल भेजा गया। तो सोचना आपको और हमको है की इन चंद वोट के लुटेरो से देश को बचाना है या यु ही घूंट घूंट कर जीने देना है देश को जहाँ एक तरफ हमारे जवान सीमाओं की सुरक्षा के लिए जीते और मरते है दूसरी तरफ ये चंद लोग इस देश की सहिष्णुता और एकता को खंडित करने की कोशिश कर रहे है।

पूर्व सैनिको ने भी कह दिया है अगर इन घर में छुपे बेवकूफ लोगो को समेटा नहीं गया तो वे भी अपनी डिग्रियां JNU को लौटा देंगे और सोचिये क्या होगा फिर इस देश का। माफ़ी चाहता हूँ अगर किन्ही की भावनाओ को कोई आहत पहुंची हो तो क्योंकि मैं मानता हूँ हर कोई मेरे विचार से सहमत हो जरुरी नहीं लेकिन आप सोचियेगा जरूर की क्या घर में घर का आदमी घर के बारे में यह बोले की जब तक यह घर टूट ना जाये तब तक लड़ते रहेंगे तो सोचिये घर का मुखिया क्या करेगा।

और सबसे बड़ी बात है राजनेताओ की जो इतनी जल्दी ट्वीट कर देते है लगता है जैसे पूरी घटना की जानकारी इनको पहले से हो और ट्विटर पर ही फैसला सुना देते है, तो फिर न्यायालय किस लिये है आप लोग कानून लाओ और सम्पूर्ण न्याय व्यवस्था का विघट्न कर दो। आगे से आपलोग ही फैसला सुनाओगे की ये हुआ था जी वो भी ट्विटर पर तो लोगो को कम से न्यायालय के चक्कर से छुटकारा मिल जायेगा और पैसे भी बच जायेंगे। ऐसे नेतागण कैसे अपने व्यस्त कार्यक्रम में से इतनी जल्दी पहुँच भी जाते है लेकिन कुछ जगह जहाँ अचानक से लाखो लोग जमा हो जाते है और सरकारी तंत्र को नष्ट और आग के हवाले कर देते है तब ये नेतागण ये कहते नज़र आते है की कानून अपना काम करेगा, क्या वहाँ पर मरने वाले लोग इंसान नहीं थे? कुछ तो शर्म कर लो इतने सारे काम है करने को उस पर तो ध्यान नही जाता है उसके बारे में इतना नहीं चिल्लाते। साफ़ दिख रहा है आपको उन बातो को उठाने में कोई दिलचस्पी नहीं है जो बहुत सारे लोगो की भलाई के लिए होगा। कोई यह नही कहता की शिक्षा में सुधार करो, कोई ये नहीं कहता की कैसे समाज के निचले तबके तक फायदा पहुंचे। सोचिएगा जरा ईमानदारी से, की आप समाज को किस धारा की ओर ले जा रहे है और ले जाना चाहते है।

आप सभी आम आदमी के साथ साथ हमारे यहाँ की राजनितिक पार्टियों से अनुरोध है की अपने बोलने की प्रवृति का अनुशासन से पालन करना चाहिए। क्योंकि कभी कभी आप ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करते है जो कही से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सही ठहराया जा सकता है। आप सभी लोगो का सरकार में बैठे लोगो की आलोचना अवश्य करे लेकिन कम से कम अगर आप सार्वजानिक जीवन में जीने वाले लोग है तो आपको कुछ बातो का अवश्य ध्यान रखना चाहिए।

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