Saturday, 31 December 2022

एकलव्य...डॉ महेश मधुकर

 

रुहेलखंड क्षेत्र के प्रतिष्ठित कवियों में से एक डॉ महेश मधुकर जी की इस काव्यात्मक प्रस्तुति को मुझे डॉ बीरेंद्र जी ने सुझाया तब मैंने पूछा कि मुझे किताब कैसे मिलेगी तो उन्होंने डॉ महेश जी का नंबर भेजकर कहा बात करो वे पुस्तक भेज देंगे और नंबर मिलते ही जब मैंने उनसे बात की तो उन्होंने कहा कि मैं कल ही सप्रेम आपको पुस्तक भेज दूँगा और सच में ही तीन दिन के अंदर ही मुझे पुस्तक मिल गई। जब मैंने पुस्तक को पढ़ना शुरू किया तो मुझे समझ ही नहीं आया कि इतनी जल्दी खत्म कैसे हो गई। 


काव्यात्मक शैली की पहली किताब थी जिसे मैं पढ़ रहा था और समझने की कोशिश कर रहा था की आखिर क्या सोचकर डॉ महेश मधुकर जी ने यह किताब लिखा होगा। तो इसके पीछे की मंशा को समझने के लिए कविता में जो दर्द उकेरा गया है उसे समझने की आवश्यकता पड़ेगी तभी समझ पाएंगे की इसके पीछे की भावना क्या रही होगी। एकलव्य एक ऐसी कृति है जो अपने कविता माध्यम से आपको अपने समय में लेकर जाती है और आप उन सभी दृश्यों को अपनी आँखों से देखना शुरू करते है ऐसा लगता है जैसे सामने चलचित्र चल रहा हो। यह महाभारत काल से सम्बंधित पौराणिक काव्य है जो गुरु शिष्य की महत्ता पर प्रकाश डालता है। इसके माध्यम से आप शिष्य का गुरु के प्रति समर्पण के साथ साथ एकलव्य का गुरु के प्रति असीम भाव भी देखने को मिलता है।   

यह एक ऐसा खंडकाव्य है जो आपको शिक्षा और समता मूलक समाज के लिए संघर्ष की गाथा कहता है। एक-एक छंद में आपको करुणा, दया, प्यार और गुरुभक्ति भी मिलता है जो अटूट है। इसमें एक जगह कवि एकलव्य के पिता और समाज के बारे में कहते है:

स्वस्थ सुखी सारा समाज था,

जनता, राजा, रानी। 

भील हिरण्याधनु था शासक,

वीरव्रती सद  ज्ञानी।

इस छंद से कवि का आज के प्रति सामाजिक चेतना झलकती है की राजा और प्रजा को कैसा होना चाहिए। 


इसी  भाग में कवि सामाजिक चेतना को स्पष्ट रूप से दर्शाते हुए लिखते है:

ऊँच -नीच गोरे - काले का,  

भेद नहीं था उनमें। 

और किसी के लिए तनिक भी ,

द्वेष नहीं था मन में। 

इस छंद में कवि का समाज कैसा हो रहा है इसे दर्शा पा रहे है और हम पुरे समाज को सोचना है की एक समाज के तौर पर हम कहाँ जा रहे है किस और जा रहे है कही हम किसी ऐसे ओर तो नहीं जा रहे है जहाँ से हम वापस आने का भी सोचे तो आ नहीं पाए। 


दो भागों में बँटे इस खंडकाव्य के पहले भाग पूर्वार्ध में ही जब एकलव्य गुरु द्रोण से शिक्षा पाने की जिद करते है तो कवि एकलव्य के पिता के शब्दों में सामाजिक पहचान से अपने बच्चे को निम्न छंदो से समझाने का प्रयास करते है:

कहा पिता ने पुत्र! तुम्हे वे,

कभी न अपनाएंगे। 

निम्न जाति का जान करें,

अपमानित ठुकरायेंगे। 

यह समस्या आज भी ज्यों की त्यों बनी हुयी है जिसका कोई तोड़ नहीं दिख रहा है लेकिन आपके बच्चे जैसे एकलव्य यह समझकर गुरु द्रोण से शिक्षा लेने जाता है वैसे ही आज के बच्चे भी समाज के कई अर्थो को लेकर इसी तरह का एक पिता की भूल समझते है जिसे वे सामाजिक रूप से वे तबतक नहीं समझ पाते जब वे खुद इसके भुक्तभोगी नहीं हो जाते है। आधुनिक पीढ़ी को इस किताब से जीवन मूल्यों को समझने में सहायता अवश्य मिलेगी अगर वे इन कविताओं में छिपे मर्म को समझ पाए तो वे इस तकनीक के युग में कही भी छल और कपट से छले नहीं जा पाएंगे। आज जिस तरह से युवाओं के मन में भटकाव है शायद इस छंद रूपी कविताओं को पढ़ने के बाद वे नए विश्वास और सृजनात्मकता से विश्व में कदम से कदम मिला कर चल पाएंगे। 


मैं आज की युवाओं से आग्रह करूँगा की वे इस किताब को जरूर पढ़े और आत्मसात करने की कोशिश करें। 
धन्यवाद
शशि धर कुमार

Friday, 30 December 2022

एटकिन का हिमालय

विस्तृत यात्रा वृतांत पढ़ने का मेरा यह पहला अनुभव है जो अंग्रेजी में लिखे "Footloose in the Himalaya" का हिंदी अनुवाद "एटकिन का हिमालय" के नाम से हृदयेश जोशी जी ने अनुवादित किया है। हृदयेश जोशी जी के बारे मेरी समझ सिर्फ इतनी है कि एक सुलझे हुए पत्रकार जो वातावरण से संबंधित लेखों पर खूब काम किया है और जब भी मौका मिला चाहे TV के माध्यम से या किसी और माध्यम से उन्हें पढ़ना या सुनना हमेशा अच्छा लगा। एक ऐसा व्यक्ति जो पर्यावरण को लेकर इतना सजग है जो इसके ऊपर बात करने से कभी भी नही हिचका। आज भी उनके रिपोर्ट और लेख पर्यावरण से संबंधित जब भी पढ़े या सुने हमेशा आँखे खोलने वाला होता है। एक लाइन में अगर आप इनके व्यक्तित्व की बात करे तो ऐसा पर्यावरणवादी है जो पहाड़ो को लेकर पहाड़ में रहकर उसके बारे में ज़मीनी हक़ीक़त बताने वाला है। 

एटकिन का हिमालय किताब ऐसी पहली किताब है जिसके 348 पन्ने को मैंने तकरीबन 10 घंटे में समाप्त किया। मैंने अपने जीवन में बहुत सारे किताब और रिपोर्टें पढ़ी है लेकिन आधुनिक उपन्यास के नाम पर मैंने कुछ भी नही पढ़ा है हाँ साहित्यिक तौर पर जिसे आप क्लासिक की गिनती में रखते है उसको पढ़ने की एक लंबी फेहरिस्त अवश्य है तो मैं अपने पढ़ने की गति को भली भांति समझता हूँ। इसीलिए इस किताब को 10 घंटे में खत्म करना (अपने काम को करते हुए) मेरे लिए बहुत ही आश्चर्यजनक रूप से खुशी प्रदान करने वाला है। किसी को लगता है कि यह गति कुछ भी नही तो मैं समझ सकता हूँ। 

यह किताब मुझे पहाड़ को समझने में काफी मदद करने वाली साबित होगी क्योंकि यह किताब सिर्फ उत्तराखंड के पहाड़ो को लेकर नही है यह यात्रा वृतांत कश्मीर के डल झील से लेकर अरुणाचल के तवांग घाटी तक कि लगातार निरंतर कई दशकों की यात्राओं का एक अद्भुत संकलन है। यह उन सभी सहायकों को समर्पित यात्रा वृतांत है जो आपको पहाड़ो पर अपने यात्रा के दौरान वहाँ के मौसम, रास्तों, नदी और नालों के दोनों पक्षों को समझने में भी मदद करता है। यह पहाड़ के उन खुशनुमा जीवन से भी आपको रूबरू करवाता है जिसके बारे में पहाड़ी यात्रा में आप सोच भी नही सकते है। पहाड़ी यात्रा को सुगम बनाने के लिए आपके हमराही जो हमेशा आपकी यात्रा में साथ नही होते है उनके बारे में भी यह विस्तार से बताता है। यह एक आत्मकथात्मक शैली में लिखा एक ऐसा यात्रा वृतांत है जो आपको हिमालय के विहंगता के बारे में विस्तार से बताने की कोशिश करता है। इस यात्रा वृतांत से आप हिमालय की क्रूरता के साथ साथ उसके दयालुता के भी कायल हुए बिना नही रह पाएंगे। लेखक का हिमालय के लिए शिवालय या नंदा देवी पर्वत के लिए माई जैसे शब्दों का उपयोग हिमालय और प्रकृति के प्रति उनका अथाह प्रेम दर्शाता है। उनके इस यात्रा वृतांत से आपको महसूस होगा कि स्कॉटलैंड में जन्मा बच्चा कोलकाता होते हुए जब पहली बार पहाड़ी जमीन पर पैर रखता है तो उन्हें लगता है यही उनकी आखिरी पसंद है, यह एक अध्यात्म से जुड़े व्यक्ति के लिए ही संभव है। यहाँ अध्यात्म का मतलब पाखंड भरा पूजा पाठ से कतई नही है। इसके बारे में कई बार लेखक ने अपने इस यात्रा वृतांत के माध्यम से हल्के शब्दों में ही सही लेकिन काफी मजबूत तरीके से रखने का भरपूर प्रयास किया है। इस यात्रा वृतांत में आप पहाड़ की हर अच्छी बात से लेकर ऐसी और भी कई बातों से रूबरू होते है जिसके बारें में कुछ लोगों को अच्छा नही लगेगा, लेकिन लेखक ने बड़ी मजबूती और ख़ूबसूरती के साथ हर बात को रखा है जिसको उन्होंने महसूस किया और देखा या सुना। मेरा झुकाव पिछले कुछ सालों में साहित्य से लेकर भाषा को जानने की ललक के बीच ऐसे कई किताबें या रिपोर्टें या लेखों की एक लंबी फेहरिस्त है जिसे मैंने पढा है खासकर सामाजिक विज्ञान से सम्बंधित, मैं व्यक्तिगत तौर पर इस किताब को भी उसी तरीके के सामाजिक विज्ञान के श्रेणी में रखना पसंद करूँगा जो आपको अपने शब्दों के माध्यम से एक समाज को सम्पूर्णता के नजर से देखने में मदद करता है। और यह किताब मुझे उत्तराखंड के सम्पूर्ण सामाजिक ढाँचे को समझने में मदद करता है। इसी किताब ने मुझे उत्तराखंड के गैज़ेटीयर भी पढ़ने के लिए उत्साहित करता है और अगले कुछ समय में शायद उसे पढूँगा भी। 

हिमालय में एक सामान्य ट्रैकिंग के लिए भी बहुत सारी ऊर्जा और संकल्प की आवश्यकता होती है। लेखक का यह कथन की "प्रकृति की ख़ूबसूरती और उसकी भव्यता के आगे इंसान की कोई बिसात नही है" दर्शाता है कि प्रकृति की भव्यता तभी तक अच्छी है जबतक आप उसके ताल में ताल मिलाकर नही चलते है। आपके उसके नियमों से ही उसके साथ चलने को बाध्य होते है आप अपने नियम या कायदे कानूनों से उसको एक सेकंड के लिए भी अपने साथ चलने को मजबूर नही कर सकते है। लेखक ने गाँव की मद्धम रफ्तार नाम के लेख में बताया है कि पहाड़ो की अपनी जीवन शैली होती है या उनके विकास को देखने का अपना तरीका होता है जिसमें कई बार अनावश्यक हस्तक्षेप ही उसके अपने विकास के सोच में बाधक होता है। ऐसा नही है कि ग्रामीण नई तकनीकों को लेकर हमेशा निराशावादी रहे है इसी किताब में लेखक ने प्रेशर कुकर का उदाहरण भी दिया है कैसे इसको पहाड़ पर हाथो हाथ लिया गया और आज लगभग हर घर मे प्रेशर कुकर पर खाना पकता है क्योंकि यह उनकी जरूरत के साथ साथ उनका ईंधन और समय दोनों बचाता है। 

इस किताब को जिस तरीके से हृदयेश जी ने अनुवादित किया है क़ाबिले तारीफ़ है क्योंकि मुझे नही लगता है कि बिल एटकिन साहेब इससे अच्छा अनुवाद चाहते हो। यह सर्वश्रेष्ठ अनुवादित किताब है जिससे कभी भी ऐसा नही लगता है कि एटकिन साहेब की जगह हृदयेश जी अपनी बात कह रहे है। 

एक बार फिर से धन्यवाद इस अद्वीतीय कृति के लिए। 

शशि धर कुमार

Friday, 23 December 2022

कौन है भारत माता?

मुझे इस किताब के बारे में तब पता चला जब मैं तथ्यपरक साहित्य, इतिहास या भाषा से संबंधित तथ्यों के अन्वेषण में लगा हुआ था अचानक किताब की कवर फ़ोटो के साथ साथ नाम ने चौका दिया और कही कही मुझे इस किताब की एक दो पन्ने कई बार लोग शेयर करते है पढ़ने मिला तो मैं काफी उत्साहित था कि आखिर यह किताब है क्या, तो मैंने इसको अपने Wishlist में रख लिया फिर मैंने लेखक के बारे में पता किया और उनके कई छोटे छोटे वीडियो देखें फिर कई और कई ऐसे फिलोसॉफी पढ़ाने वाले प्रोफेसर से भी इस किताब या लेखक के बारे में सुना एक तो हमारे गाँव के ही है जिनके बारे में इस किताब की भूमिका में जिक्र भी किया गया है।


फिर मुझे लगा कि यह किताब मुझे पढ़नी चाहिए, ऐतिहासिक तथ्यों को लेकर पढ़ते वक्त कई बार अगर आपके हाथ में कोई ऐसी किताब हाथ लग गयी हो जो सिर्फ एक विचारधारा से संबंधित बातों को आगे रखकर लिखा गया हो तो आपकी विचारधारा प्रभावित होने का खतरा है। इसीलिए ऐसी किताबो को पढ़ते वक़्त इन बातों का ख्याल रखना अति आवश्यक है। ऐसा नही है कि इस किताब में लेखक ऐसी जगहों से ना गुजरे हो लेकिन जिन तथ्यात्मक तरीके से अच्छे बुरे कटु अनुभवों के साथ इतना लंबा समय देकर इस किताब को मूर्त रूप दिया गया है इसके लिए लेखक महोदय (पुरुषोत्तम अग्रवाल) जी की जितनी तारीफ की जाय कम है और आज मै यह कह सकता हूँ कि अगर आप नेहरू का विरोध करना चाहते है तो अवश्य करें लेकिन उससे पहले इस किताब को अवश्य पढ़ें तभी आप विरोध कर पाएंगे, वरना बेकार में आप व्हाट्सएप से फारवर्ड किये गए ऐसे अतथ्यात्मक संदेशो को फारवर्ड करते ही रह जाएंगे।

मेरे लिए यह किताब अतुलनीय संग्रह में से एक की श्रेणी में रखा जा सकता है। मैं विज्ञान का छात्र रहा हूँ लेकिन मेरी रुचि साहित्य को लेकर काफी पहले से थी लेकिन कोरोना काल ने बहुतों के जीवन मे अनेको बदलाव लाया और मेरे जीवन में किताबों में साहित्यिक रुचि को और गहरा किया जिसमें पिछले एक साल में भाषा को लेकर मेरे अंदर जो समझ तैयार हुई है चाहे वह ब्राह्मी से लेकर प्राकृत से लेकर संस्कृत से लेकर कैथी से लेकर पाली से संबंधित अनेको किताबों को पढ़ते हुए मेरे अंदर जो 1931 से लेकर 1965-70 तक का जो खालीपन था शायद इस किताब ने कुछ हद तक जरूर पूरी की है।

इस किताब के माध्यम से आपको नेहरू की अंग्रेजियत के साथ साथ वे अंदर से कितने भारतीय थे यह किताब आपको बखूबी समझने में मदद करता है। यही किताब आपको यह बता सकता है कि नेहरू को इस भूभाग के हर उस चीज से प्यार था जिससे प्राकृतिक रूप से इस भूभाग ने अपनी सुंदरता प्रदान की है चाहे वह जंगल हो पहाड़ हो पानी हो या फिर हरे भरे मैदानी इलाके और उन्हें सबसे ज्यादा प्यार था तो इस भूक्षेत्र में रहने वाले लोगों से, जिन्हें वे बिना किसी जाति धर्म के भेदभाव के देखने की कोशिश में लगातार प्रयासरत रहते थे। इस किताब से आज के दौर में नेहरू को नही समझने देने की नाकाबिल कोशिश को जनता ही विराम लगा सकती है। यह किताब उनकी शख्सियत के लिए अंधेरे में दीपक के समान साबित हो सकती है।

इसको बारबार पढ़ने की इच्छा है और पढूँगा भी। आखिर में लेखक महोदय का इस अद्वीतिय कृति के लिए फिर से धन्यवाद ज्ञापित करना चाहता हूँ।
शशि धर कुमार

Monday, 15 August 2022

आजादी का अमृत महोत्सव

 

आजादी का अमृत महोत्सव 


आज १५ अगस्त को देश का हर नागरिक अपनी अपनी देशभक्ति प्रदर्शित करना चाहता है। हर किसी के सोशल मीडिया के प्रोफाइल को देखकर ऐसा लगता है जैसे अगर आज अँगरेज़ होते तो सोशल मीडिया के वीर उन्हें कुछ ही मिनटों में देश से बाहर भगा देते। आज देश आजादी का ७५वां साल मना रहा है और हम विश्व में तीसरे और चौथे स्थान पर अपने अर्थव्यवस्था को देखना चाहते है।

क्या वाक़ई में यही स्वतंत्रता है जिसकी चाहत में अनेक वीर बलिदानियों ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था? आज हम कितने ऐसे बलिदानियों को जानते है जिन्होंने अपने खून से इस आजादी के तिरंगे के लिए ना जाने कहाँ कहाँ भटके और किन किन हालातो में रातें गुजारी?

आज़ादी के ७५ सालो बाद भी भले देश ने चांद की उचाईयों को नाप लिया हो। भले ही देश ने परमाणु सम्पन्न देश होने का गौरव हासिल किया हो। भले ही देश आज पूरे दुनिया मे कंप्यूटर के बेहतरीन दिमागों के लिए दंभ भरता हो। भले ही हमे संविधान ने बोलने की आज़ादी दी हुई हो लेकिन उस बोलने की आज़ादी में शब्दों को सूंघने का प्रयास बारंबार नही होता है।

हमारी आज़ादी तबतक बेमानी है जब तक इस देश का कोई भी बच्चा फुटपाथ पर सोता है। हमारी आज़ादी तबतक बेमानी है जबतक इस देश का एक भी बच्चा ट्रैफिक पर भीख मांगता है। हमारी आज़ादी तबतक बेमानी है जबतक एक भी बुजुर्ग वृद्धाश्रम में रहता है। हमारी आज़ादी तबतक बेमानी है जबतक इस देश का एक भी नागरिक भूखा सोता है। हमारी आज़ादी तबतक बेमानी है जबतक एक भी व्यक्ति खुले में सोता है। हमारी आज़ादी तबतक बेमानी है जबतक इस देश का एक भी बच्चा स्कूल जाने से वंचित रह जाता है। आगर इस देश का एक भी बच्चा जो इन मौलिक अधिकारों से किसी भी प्रकार वंचित है तो देश स्वतंत्र है या नहीं इसपर मंथन करने की आवश्यकता है।

क्या हम व्यक्तिगत तौर पर किसी भी प्रकार अपने सरकार या समाज की मदद कर सकते है। उसके लिए हमें अपनी अपनी व्यक्तिगत/सामाजिक ज़िम्मेदारियों का निर्वाह करना पड़ेगा। तभी हम अपने देश को विकासशील से विकसित की तरफ ले जाने में सहायक सिद्ध हो सकते है। हमे वाक़ई में स्वतंत्रता चाहिए तो हमें अपने अंदर ही कुछ बदलावों पर बात करनी पड़ेगी और अपने समाज के अंदर बदलाव ला सके और मेरे ख्याल से वाक़ई में वही स्वतंत्रता होगी।

सोचना आपको है कि आप सिर्फ वही सोच रहे है जो आपको सोचने को मजबूर किया जा रहा है चाहे राजनैतिक पार्टियाँ हो या एक समुदाय विशेष या एक वर्ग विशेष बुद्धिजीवी द्वारा इत्यादि। मैं यह नहीं कहता हूँ की उपरोक्त बातें कुछ दिन या कुछ सालों में बदल जायेगा इसके लिए सालों लगेंगे जिसके लिए हमे सतत ईमानदार प्रयास करते रहने होंगे।

सोचना आपको है अगर आप नही सोच सकते तो आप राष्ट्रीय मिठाई जलेबी का लुत्फ लीजिए तथा एक सिनेमा देखते हुए अपनी छुट्टी का आनंद लीजिए।

एक बार फिर से पूरे देशवासियों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।

धन्यवाद।

@शशि धर कुमार

Tuesday, 2 August 2022

Jayanti [Movie]

आज किसी भी महापुरुषों की जयंती धूमधाम से मनाते देखता हूँ तो यकीन मानिये मुझे अंदर से एक बात हमेशा कचोटती है की ये जो कार्यकर्त्ता है जो काफी जोश में होते है ऐसी जयंती समारोहों को मनाते वक़्त वे वाकई में उन महापुरुषों के बारे में कुछ जानते भी है कुछ पढ़ा भी है या यूं ही पकी पकाई बातों को सुनकर हमेशा जोश में भरे रहते है।

आज मैं जयंती नामक मूवी के बारे में बात कर रहा हूँ जो इस वस्तु स्थिति को भली भांति दर्शाता भी और आपके अंदर के इंसान को यह समझने को मजबूर करता है की तरक्की सिर्फ जयंती पर फूल माला या मिठाई बांटने या उनके फोटो के आगे मिठाई चढ़ाने से नहीं होती है उन्हें पढ़ने से होती है। अगर आप सामाजिक रूप से एक समाज को समृद्ध देखना चाहते है तो ऐसे कार्यकर्ताओं को समझने के लिए यह मूवी सार्थक साबित हो सकती है की आप उनके गुस्से को गलत रास्ते से निकालकर सही रास्ते में कैसे ला सकते है और किसी समाज को ऊपर उठाने के लिए किस तरीके के प्रयास किये जाने चाहिए।

मैंने कुछ दिनों पहले एक पोस्ट लिखा था की हमें युवाओं के ऊर्जा को कैसे सकारात्मक रूप से उपयोग करने के बार में बात करना चाहिए यह मूवी वास्तव में यही कार्य करती है। सिर्फ हम ही इस बात से दुःखी नहीं की हमारे युवाओं की ऊर्जा गलत तरीके से गलत लोग इस्तेमाल करते है उसका सही समय पर पर सही दिशा में कैसे उपयोग हो यह समझना बहुत जरुरी है। इस मूवी को आप उसी कड़ी में एक पत्थर समझ सकते है। और मैं उन सभी से इस मूवी को देखने का आग्रह करूंगा क्योंकि सिर्फ असवर्णो के युवा ही इस भटकाव में नहीं जी रहे है वे सभी जी रहे है जो आज बेरोजगार है और वे ऐसा क्यों है कैसे है इसके पीछे की क्या वजह है यह सब आप इस मूवी में देख सकते है। वस्तुतः यह मूवी मराठी में बनी है लेकिन आज आप OTT प्लेटफॉर्म पर हिंदी या अंग्रेजी में भी देख पाएंगे।

मूवी में निर्देशक की पकड़ लाजवाब दिखाई पड़ती है और पूरी मूवी एक लय में दिखाई भी पड़ती है कही कही पर मूवी थोड़ी से हल्की दिखाई पड़ती है लेकिन निर्देशक ने अपनी पकड़ ढीली नहीं की अगले ही क्षण मूवी फर्राटे से दौड़ती हुयी नजर आती है। इस मूवी को मैं पुरुष प्रधान समाज का आईना ही कहूंगा लेकिन एक ऐसा समय आता है जब नायिका अपने छोटे से वक्तव्य से सबकुछ बदल तो नहीं देती है, आम हिंदी सिनेमा की तरह, लेकिन उसके उस डायलॉग से नायक का किरदार एक नये रूप में समाज में जीने के बारे में सोचने को मजबूर जरूर होता है, नायक ने अपने हिस्से का किरदार बखूबी निभाया है ऐसा लगता है वह इस किरदार के लिए पैदा हुआ हो। मूवी का नाम अपने आपको सार्थक साबित करता है इससे दोनों तरह के दर्शक सिनेमा घर में आये होंगे जो इनकी खिलाफत करते होंगे वे तो आये ही होंगे जो चाहने वाले होंगे वे भी आये होंगे।

मुझे लगता है यह मूवी इस तरीके की सर्वश्रेष्ठ मूवी में से एक हो सकती है। क्योंकि कोई भी व्यक्ति इस तरीके के विषयों पर मूवी बनाना नहीं चाहेगा खासकर बॉलीवुड से तो आप कतई इस तरह की उम्मीद नहीं कर सकते है वे सिर्फ एक ही तरीके की मूवी बना सकते है जो सिर्फ नाम के सुपर हिट हो सकते है जो समाज में ऐसा कोई सन्देश नहीं दे पाते है की वे समाज का पुर्णतः चित्रण करता हो या इस देश के गुणगान करता हो। मेरे इस वक्तव्य से कई लोग इत्तफ़ाक़ नहीं रखेंगे लेकिन उनकी चिंता करना मेरा काम नहीं है वे सिर्फ अपनी कहानी कहने का दम रखते है समाज के कटु सन्देश के बारे में वे बात नहीं करते है उन्हें जहाँ लगता है उनकी जमीन ख़िसक सकती है वे उन मुद्दों से दूर ही रहना पसंद करते है भले वे दशकों से राजनैतिक पार्टियों के पीछे घूम रहे हो, खैर ये उनकी बात है आते है मूवी पर। इस मूवी में आप यह देख पाएंगे की सिस्टम तो भ्रष्ट है ही साथ में आज के युवाओ को अपने भ्रष्टाचार में उन्हें कैसे सम्मिलित किया जा सकता है वे अच्छी तरह से समझ चुके है। हमारा पूरा युवा कैसे कुछ लोगों के हाथों की कठपुतली मात्र है जिसमें एक गरीब और ईमानदार तथा शिक्षित युवा भी इस कीचड़ से निकल नहीं पाता है तो अशिक्षितों की बात ही अलग है। लेकिन आखिर में जब वह वही युवा एक बार अपने हक़ के बारे में जान जाता है और उसके बारे में पढ़ना शुरू करता है और लोगो को जागरूक करता है तो उसे कोई भी नहीं रोक पाता है। बस उस युवा के अंदर के जमीर को जगाने की जरूरत है।

लेकिन अफ़सोस की हमारे समाज के सामाजिक कर्ता इस और से मुँह मोड़ बैठे है क्योंकि उन्हें भी अपने भविष्य की चिंता ज्यादा है। अगर इन ऊर्जावान युवाओं का जमीर जाग गया तो फिर उनके पीछे पीछे कौन चलेगा, उनका झंडा कौन उठाएगा। मैं सभी युवाओं से आग्रह करना चाहता हूँ की उठो आज तुम्हारे अंदर शक्ति है जागो और कुछ आगे के भविष्य के बारे में सोचो वरना एक समय ऐसा आएगा जब तुम्हारे पास ना तो संसाधन होंगे ना ही यह ऊर्जा फिर क्या करेंगे आप किसके सहारे जीवन जियेंगे। फिर यही लोग जो आपको कहते रहते है तुम्हारे बिना हम कुछ भी नहीं तो कल उनका काम निकल जाने के बाद आपको दूध में से मक्खी समझकर निकाल फेकेंगे। यही आप मूवी में भी देख सकते है। इस मूवी को IMDb पर ८.2/१० रेटिंग मिली है जो आम सुपर हिट बॉलीवुड मूवी से बढ़िया है।

धन्यवाद।
शशि धर कुमार

✍️सर्वाधिकार सुरक्षित 

Friday, 4 March 2022

फणीश्वर नाथ रेणु

4 मार्च 1921 में बिहार के अररिया जिले में फारबिसगंज के पास औराही हिंगना गांव में जन्मे श्री फणीश्वर नाथ रेणु जी मैला आँचल, परती परिकथा,  दीर्घतपा,  कितने चौराहे, कलंक मुक्ति,  ठुमरी,  अग्निखोर समेत अनेक साहित्यिक ग्रंथों की रचना करने वाले रेणु जी को 'मैला-आंचल' उपन्यास से काफी मान-सम्मान मिला और 1970 में पद्मश्री मिला। 


1974 के दौरान खाद की कालाबाजारी को लेकर पूर्णिया में प्रदर्शन हुआ था। प्रदर्शन में रेणु जी के साथ अन्य लोग भी शामिल थे। इसी क्रम में रेणु जी को पूर्णिया जेल में बंद किया गया था। उसी जेल में नछत्तर माली भी बंद थे। यह गजब संयोग है जब लेखक और पात्र एक ही जेल में बंद थे। कहा जाता है की नछतर माली चम्बल के डाकुओं के बीच मैला आँचल के चरित्र रूप में काफी प्रसिद्ध थे। 


रेणु जी के लेखन के चरित्र में कोई नैना जोगिन हो या कोई लाल पान की बेगम, कोई निखट्टू कामगार और गजब का कलाकार सिरचन हो या चिट्ठी घर-घर पहुंचाने वाला संवदिया हरगोबिंद या फिर ‘इस्स’ कहकर सकुचाता हीरामन और अपनी नाच से बिजली गिराती हीराबाई, सबके बारे में यह बात कही जा सकती है कोसी क्षेत्र का विकासशील गांव जो मैला आंचल में रूढ़ियों और पुराने जमाने में जीता एक ऐसा पिछड़ा समाज भी है जो सिर्फ रेणु की कहानी में ही मिल सकती है। 


रेणु का समय प्रेमचंद के ठीक बाद का था। तब तक एक तरह से अभिजात वर्ग का साहित्य पर कब्ज़ा था स्वतंत्रता के बाद अगर रेणु जी चाहते तो लीक पर चलकर शहरी और मध्यमवर्गीय जीवन की कहानियां लिखते लेकिन रेणु जी ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने अपने भीतर की उस आवाज को चुना, जो आजादी के बाद दम तोडती गांवों की कराह सुनी और अपने लिए एक अलग रास्ता चुना। मैला आँचल की प्रसिद्धी से एकाएक उनका उभरना मठों में बैठे लेखकों के लिए परेशानी पैदा करने वाली थी और वही हुआ जिसकी वजह से कई तरह के आलोचनात्मक विचार साहित्यिक जगत में आई, लेकिन रेणु जी कहाँ इनकी परवाह करने वाले थे। आलोचनाओं की आंधी जितनी तेजी से आई थी उतनी तेजी से भी गायब हो गयी उनकी लेखनी में चमक पहले से कही ज्यादा होकर उभरी और इसका जीता जागता उदहारण 'परती परिकथा' लिखकर ऐसे किसी भी आलोचनाओं का सिरे से ख़ारिज कर दिया।


आज रेणु जी नहीं है लेकिन उनके नहीं होने के बाद भी जब हम उनकी रचनाओं को देखते हैं तो गांवो के मनोविज्ञान पर उनकी पकड़, गांवों को समझने से लेकर उनके देखने की प्रतिभा को आज भी समझना नामुमकीन सा लगता है आज हमें रेणु जी को की कमी साफ़ दिखती है क्योंकि गाँव पर इस बारीकी से लिखना बहुत ही मुश्किल सी बात लगती है हमें रेणु जी पर गर्व है और हमें एहसास है की हम भी उसी मिटटी के हिस्से के एक कण का छोटा सा हिस्सा है।   

उनके जन्म दिवस की हार्दिक शुभकामनाये!

धन्यवाद!

शशि धर कुमार   

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