Thursday, 31 December 2015

नया साल मुबारक 2016

happy-new-year-2016आने वाला समय नए साल का स्वागत और पुराने साल की अच्छे से विदाई कहने का वक़्त है। यह समय है पुराने समय की अच्छी बातो को याद करके उसके सहारे आगे बढ़ने की और बुरे समय को भूलने। यह समय है जीवन में कुछ नयी शुरुआत करने का। नया साल हमेशा सबके लिए कुछ ना कुछ सन्देश ले के आता है। हम सबको इस बात को समझना चाहिए जो कुछ भी गलत हुआ पिछले साल में उसके पीछे कोई ना कोई वजह रही होगी और उन गलत बातों को भूल के आगे बढ़ना चाहिए।

नए साल की शुरुआत लोगो को नए साल की मुबारकवाद से करे। साल २०१५, साल २०१६ के लिए बाहें फैलाएं खड़ा है और हमसे कह रहा है उठो, जागो, देखो और सीखो पिछले साल की गयी गलतियों से और नए साल का स्वागत करो नयी खुशियों और उम्मीदों से।


एक पुरानी कहावत है "हमे उन बातों पे रोना नहीं चाहिए जो बीत चूका है और हमे खुश होना चाहिए की ऐसा हो चूका है"। ये उसी तरह से व्यर्थ है जैसे ज़मीन पर बिखरे हुए दूध पे रोना। आप बीत गए समय को कभी वापस नहीं ला सकते लेकिन आप उसमे सुधार तो अवश्य कर सकते है। नया साल नयी ऊंचाइयों को छूने का है नयी शुरुवात करने का है। आये शपथ ले किसी की मुस्कराहट लाने का, किसी को खुशियाँ देने का। इस तरह आप दोनों खुशियाँ देख पाएंगे अपनी अपनी जिंदगियों में।

इसीलिए नया साल जैसे ही अपने आने की घोसना करे सबसे पहले आप अपने करीबियों को नए साल की मुबारकवाद दे और उन्हें बताएं आप उनसे कितना प्रेम करते और उनकी आपकी जिंदगी में क्या अहमियत है।

इन्ही शब्दों के साथ आप सभी के लिए आने वाले साल में धन, बल, सुख और शांति की कामना करते है।
जय हिन्द, जय भारत।

Sunday, 27 December 2015

बिहार में शिक्षा की बदहाली

बिहार के शिक्षा की स्तिथि जो भी है पहले से तो बेहतर नहीं है ये सबको पता है लेकिन अगर इसकी नजदीक से समीक्षा की जाये तो इसके लिए जितने जिम्मेदार राजनेता है उतने ही जिम्मेदार हमारे शिक्षक भी है। और साथ में हमारा समाज भी उतना ही जिम्मेदार है। बिहार में इस बदहाल शिक्षा की स्तिथि आज की नहीं है ये तब से शुरू हुई जब से हमारे माननीय लालू प्रसाद जी बिहार के मुख्यमंत्री बने। उसके पहले के मुख्यमंत्रियों को मैं जिम्मेदार इसलिए नहीं मानता क्योंकि एक तो उस समय मुझे ज्ञान नहीं था की सही क्या है और गलत क्या है। लेकिन फिर भी उस समय जो भी मैंने देखा और समझा है उस समय के शिक्षक स्कूल आते थे और पढ़ाते भी थे। मैं ये नहीं कहता की आजकल के शिक्षक स्कूल आते नहीं और पढ़ाते नहीं, कुछ लोग आते भी है अच्छी तरह पढ़ाते भी है।


तो फिर चूक कहा हुई ये जानने की जरुरत है। शिक्षा का स्तर सैद्धान्तिक स्तर पर सही में अगर गिरा तो वो लालू प्रसाद जी के समय ही। क्योंकि उस समय जब लालू प्रसाद जी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे तो सिर्फ इस बात को लेकर की हम अति पिछड़ी जाती को वह सम्मान दिलाएंगे जिसके वे हक़दार है। क्योंकि उनकी राजनीती की शुरुआत ही हुई थी अगड़ो की मुखालफत से। और यही से शिक्षा संस्थानों में पिछड़ो की पकड़ बनाने की कोशिश गलत दिशा में चली गयी। ये सही है उस समय तक पिछड़ो की ना तो कोई सामाजिक पहचान थी ना ही अगड़ो के बीच उनकी बैठने की हैसियत। क्यों? क्योंकि ना तो वे शिक्षित ही थे ना ही आर्थिक रूप से इतने समृद्ध की वे अगड़ो के बीच अपनी बात रख सके। क्योंकि पूरी की पूरी जमात जो निर्णय लेने वाली जगह थी वो अगड़ो से भरी हुई थी। यही से शुरू हुआ बिहार में अगड़ो और पिछड़ो की राजनीती जिसने बी पी मंडल जैसे पिछड़े राजनेताओ को देश की राजनीती में राष्ट्रीय पटल पे ला खड़ा किया। खैर आते है मुख्य मुद्दे पर। हाँ इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता की उन्होंने पिछड़ो को आवाज दी। लेकिन साथ में शिक्षा संस्थानों में पिछड़ो का पकड़ बनाने के चक्कर में हम ये भूल गए जिस शिक्षा संस्थानों में पिछड़ो के पकड़ की बात करते है उन पदों पर बैठने के लिए भी हमे अच्छे और विद्वान लोगो के संख्या बल की जरुरत थी जो पिछड़ो में नहीं थी। और पिछड़ो का पकड़ बनाने की बहस ऐसे संस्थानों में कुछ अयोग्य व्यक्तियों की नियुक्ति से हमारे लिए अच्छी शिक्षा का ह्रास कर गया। हमारे उस समय का शासन हमे ये बताने में नाकाम रहा की सिर्फ डिग्री पाना ही नौकरी की गारन्टी नहीं होती, ऐसी शिक्षा से हम डिग्री और नौकरी पा भी ले लेकिन वो हमे उस वास्तविक जीवन को जीने में आने वाली कठनाइओ से पार पाने की हिम्मत कतई नहीं दिला सकता और हम समाज को अच्छी दिशा ले जाने में कामयाब कतई नहीं हो सकते। और ये हुआ भी उस समय के पढ़े लिखे नौजवान जब तक समझते तब तक काफी देर हो चुकी थी क्योंकि एक नस्ल तो निकल चुकी थी ऐसी डिग्रियां ले कर। लेकिन बाहर निकलते ही पता चला ऐसी डिग्री किसी काम की नहीं और उनके सामने जीवन का घोड़ अँधेरा दिख रहा था और ये पूरी की पूरी पौध यही से गलत रास्ते पर निकल गयी जिन्हें रास्ता दिखाने के लिए कोई नहीं था। उसके बाद के तीन शासनकाल लालू प्रसाद के खत्म होते ही माननीय नितीश जी का बिहार की राजनीती में प्रादुर्भाव हुआ क्योंकि लालू प्रसाद जी के हर एक शासनकाल के बाद अगले शासन में सैद्धान्तिक मूल्यों का ह्रास होता चला गया।

नितीश जी का प्रादुर्भाव हुआ बीजेपी जैसे पार्टियों के साथ मिलकर जो हमेशा से अगड़ो की राजनीती करती आई है और उसे एक मौका नजर आया वापस से सत्ता में आने का और ये हुआ भी लेकिन पिछड़ो की राजनीती इतनी जल्दी इतनी कमजोर होने वाली नहीं थी तो नितीश कुमार जी पिछड़ो के सबसे बड़े नेता बन के उभरे और उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली। नितीश कुमार ने आते ही कुछ अच्छे कदम उठाये जो जन कल्याणकारी थे और रहे भी अगले कुछ वर्षो तक। उन्ही मे से एक था शिक्षामित्रो की बहाली प्रार्थमिक स्कूलों में। बाद मे यह धीरे-धीरे माध्यमिक उसके बाद उच्च विद्यालयों में भी लागु हुआ।और यही से हमारी शिक्षा का ह्रास-दर बढ़ता गया। ये सच है की यह राजनितिक फैसला स्कूलों के लिये विद्यार्थी तो खीच लाये लेकिन जो हमारी पौध ख़राब शिक्षा के माध्यम से अच्छे नंबरो की डिग्रियां रखे हुई थी उनकी ये डिग्रियां यहाँ काम कर गयी और वे शिक्षामित्र बन गए। वे शिक्षामित्र बन तो गए लेकिन जब उनका वास्तविकता से सामना हुआ उनके हाथ पैर फूलने लगे। और वे अपने कर्तव्यों से जी चुराने लगे। तो जाहिर है ऐसे शिक्षको से हम इससे ज्यादा की उम्मीद भी नहीं कर सकते थे। यही से जो हमारी प्रार्थमिक शिक्षा का ह्रास हुआ वो बदस्तूर आज तक जारी है। मैं ये नहीं कहता उसमे सारे शिक्षक ऐसे ही है उनमे से कुछ बहुत अच्छे है और अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह समझते भी है। तो कहते है ना जब हमारा नींव ही सही नहीं होगी तो हम कहा से ऊपर की मजबूती को सोच सकते है। लेकिन एक बात है जो हमेशा हम बिहारियों को बांकी देश वासियों से अलग करती है वह है हमारे डीएनए में पढ़ने की ललक जो हमेशा हमे विकट परिस्थितियों में भी आगे बढ़ने की प्रेरणा देती है और हम बढ़ते भी है। आज की तारीख में नयी पौध की बेसिक शिक्षा में मजबूती नहीं होना उनका भविष्य ख़राब कर सकता है इसका मतलब हम क्या दे रहे है समाज को हम गलती पर गलती करे जा रहे है इस मामले में किसी को कोई फिक्र नहीं है ना तो सरकार को ना ही उन स्कूलों में पदस्थापित शिक्षको को। सरकारी स्कूलों में स्थापित शिक्षक भी अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ा रहे है। क्योंकि उन्हें पता है जब वो ही नहीं पढ़ा रहे है तो उसके बच्चे कहा से पढ़ेंगे। एक तरफ तो हम अपने कर्तव्यों से मुकर रहे है और हम चाहते की हमारे बच्चों का भविष्य कोई और सुधारे, ये कैसे हो सकता है आप किसी के बच्चों का भविष्य ना पढ़ा के ख़राब करे और आपके बच्चों का भविष्य कोई और सुधारे।

बेहतर है सरकार इस मामले में कुछ कदम उठाये और हमारे शिक्षक भी अपने स्तर को सुधारे और अपने आप को अपने कर्तव्यों से जोड़े और जो उन्होंने कर्तव्यपरायणता की शपथ ली है उसे आगे बढ़ाने के लिए सोचे। वे ये भी सोचे जब हमारा समाज ही नहीं आगे बढ़ेगा तब तक हम भी आगे नहीं बढ़ पाएंगे। क्या सिर्फ अपने बच्चों को आगे बढ़ाने से क्या हमारा समाज आगे बढ़ पायेगा कतई नहीं। हमे अपने बच्चों के साथ साथ बांकी बच्चों को भी आगे बढ़ाने के लिए तभी समाज आगे बढ़ेगा। हम अगर हर एक मसले को सरकार के साथ जोड़ के देखने लगेंगे तो समाज आगे कभी नहीं बढ़ पायेगा।
तो जरुरत है हमे अपने आप में बदलाव लाने की ना की हरेक मसले को सरकार के सिर मढ़ने की।
जय हिन्द जय भारत!

Tuesday, 22 December 2015

किसानो की बदहाली या सरकारी उपेक्षा

एक रिपोर्ट आई थी २१ दिसंबर २०१५ को रात ९ बजे ज़ी न्यूज़ के कार्यक्रम डीएनए में "बुंदेलखंड में बदहाल किसान". क्या ये सिर्फ बुंदेलखंड के किसानो की हालात है? या ये सिर्फ महाराष्ट्र के किसानो की हालात है? या ये सिर्फ आंध्र प्रदेश या तेलंगाना या उड़ीसा या झारखण्ड या फिर राजस्थान के किसानो की हालात है? अगर आप थोड़ी सी फौरी नजर डाले तो पुरे देश के किसानो के बारे में तो जिस तरह के न्यूज़ गाहे बगाहे कुछ कद्दावर पत्रकारो द्वारा प्रकाशित या दिखाई जाती है उससे ये तो साफ़ है ये समस्या जितनी दिखती है उससे कही ज्यादा संवेदनशील है। लेकिन टीवी चैंनल वाले भी क्या करे उन्हें भी पैसे कमाने है अपने पेट भरने है तो कुछ असंवेदनशील मुद्दे तो उठेंगे ही और उन्ही कुछ मुद्दों पर सोशल मीडिया में बहस भी होगी क्योंकि उन्ही न्यूज़ की वजह से इनकी टीरपी बढ़ती है। आज की तारीख में टीरपी नहीं तो कुछ नहीं क्योंकि जितनी बड़ी टीरपी उतनी बड़ी कमर्शियल उपलब्धि। आखिर इतने बड़े बड़े लोग इन मीडिया हाउस के पीछे बैठे किस लिये है पैसे कमाने के लिए ही तो तो फिर न्यूज़ को संवेदनशील बना के फायदा न उठाया जाये।


जैसे कॉर्पोरेट हाउसेस के लिए सीएसआर एक सेक्शन होता है आपको अपनी कमाई का कुछ हिस्सा समाज को वापस करना होता है वैसे ही ऐसा कुछ कानून इन न्यूज़ चैनल्स पे लागु नहीं होना चाहिए की उन्हें भी हम बाध्य करे की आप अपने पुरे एयर टाइम का कुछ हिस्सा समाज से जुड़ी खबरों पे जैसे की सरकार के अनेक कार्यक्रम जो आम जनता के लिए जानना जरुरी होता है उसे बताये उससे जुड़ी अच्छी बुरी पहलु को भी बताये। इससे दो फायदे होंगे १) सरकार को इन कार्यक्रमों को जनता तक पहुँचाने के लिए पैसे खर्चने नहीं पड़ेंगे २) किसी भी सरकारी कार्यक्रम का अच्छे से विश्लेषण हो पायेगा और सबसे बड़ी बात जनता तक बात आसानी से पहुंचाई जा सकेगी।

अगर हम बुंदेलखंड वाली रिपोर्ट को ही देखे तो हमे समझ में आता है की सरकारे कितनी असंवेदनशील हो गयी है पता चलता है। क्योंकि जिस बुंदेलखंड की बात इस रिपोर्ट में उठाई गयी है उसमे ये भी कही गयी है की तक़रीबन १करोड़ से ज्यादा आदमी इस भुखमरी के कगार पे है तो मेरा सवाल सरकार से सिर्फ इतना है की क्या सरकारी महकमो को इससे जुड़ी किसी भी समस्या का कुछ भी ज्ञान नहीं है अगर नहीं तो आप सरकार में रहने लायक नहीं है क्योंकि जहाँ पे इतनी बड़ी तादाद में लोग भुखमरी की समस्या से जूझ रहेे है और आप कहे आपको कुछ पता नही तो ये समझ से परे है। और अगर आप ये कहे की आपको सब कुछ ज्ञात है इस मामले में फिर भी आप कुछ नहीं कर रहे है या नहीं कर पा रहे है तो आप असंवेदनशील है।

लेकिन बेचारे न्यूज़ चैनल्स वाले भी क्या करेंगे जब हमारे संसद में जब इन मुद्दों पर चर्चा के बजाये असहिष्णुता पे चर्चा को प्रार्थमिकता दी जाती है तो टीवी चैनल्स पे इस बात की कितनी जिम्मेदारी डाली जा सकती है। जनता के चुने हुए नेता जो जनता के लिये काम करने को बाध्य होते है वो ही इन मुद्दों पर बात करना नहीं चाहते तो हम न्यूज़ चैनल्स से इससे ज्यादा अपेक्षा नहीं कर सकते। खैर यहाँ पर असहिष्णुता पे चर्चा करना ठीक नहीं होगा क्योंकि जिस मुद्दे पे बात करने के लिये ये लेख जिस ओर अग्रसर हुआ ही उसी और हमे बढ़ना चाहिए मुद्दे से भटकना नहीं चाहिए। जिस देश की ६०% जनता अभी भी कृषि या उससे आधारित उद्योगों पे आश्रित हो पर आप सांसदों का उसकी चर्चा से भागना ये दर्शाता है की आप कितने असंवेदनशील है। जहाँ इस दुनिया के लगभग सारे विकशित देश अपने अपने किसानो के हितो की रक्षा करने के लिए डब्लूटीओ जैसे संस्थानों से पंगा लेने से नहीं हिचकते वही आप अपने देश के किसानो और उससे जुड़ी समस्याओ से बात करने में कतराते है। तो इससे पता चलता है की आप कितने असंवेदनशील है।

आप जहाँ बिज़नेस घरानो को कुछ एक जगह बिज़नेस करने पर सब्सिडी देने से नहीं चूकते वही आप किसानो को उनके खाद और बीज पर सब्सिडी देने से कतराते है। और ये कह के पल्ला झार लेते है की इससे अर्थव्यवस्था पे कितना असर पड़ेगा। क्या आपने कभी इस बात का आकलन किया है अगर एक बार किसान फसल कम उपजाते है तो आपकी अर्थव्यवस्था पे कितना असर पड़ता है? क्या आपने कभी कभी सोचा है आपकी अर्थव्यवस्था का सकल घरेलू उत्पाद का कुछ प्रतिशत सही मानसून ना होने पर निर्भर करता है? २१वी सदी में भी हम अच्छे मानसून को सोचते है और फसल अच्छी हो और हमारी लंगड़ी लुल्ली कृषि सकल घरेलु उत्पाद में कुछ इज़ाफ़ा कर सके।

जब तक सरकार में और संसद में असंवेदनशील लोग मौजूद होंगे तबतक इस देश का और इस देश के किसानो का कुछ नहीं हो सकता है। मैं नहीं कहता सरकार और संसद में बैठे सारे लोग निक्कमे, नकारे और असंवेदनशील है लेकिन कुछ लोग तो है ही जिन्हें इन सब बातो से कुछ फर्क नहीं पड़ता। हमारी सकल घरेलु उत्पाद सिर्फ सेवा या अन्य क्षेत्र से जुड़ी क्षेत्र से बढ़ती/घटती नहीं है। जिस देश के सकल घरेलु उत्पाद का बड़ा हिस्सा कृषि या उससे जुड़ी उद्योगों पर निर्भर हो वहाँ के निति निर्माताओ का इस क्षेत्र का इस तरह से उपेक्षा करना कतई सही ठहराया नहीं जा सकता है। जरुरत है हमे अपने नजरिये पर पुनर्विचार करने की और नए सिरे से सोचने की। आप सोचे जहाँ आपकी ६०% जनता जिस क्षेत्र से जुड़ी हो अगर आप उनसे जुड़ी कल्याणकारी योजनाओ को लागु करेंगे और अच्छे से अनुपालन करवाएंगे तो देश कहाँ से कहाँ पहुंचेगा। बस हमे उनके नब्ज़ को पकड़ना है कहाँ हमसे चूक हुई ये पता लगाना है और उससे निपटने के उपाय सोचने है। पहले सोच तो बदले फिर देखे वही किसान आपकी अर्थव्यवस्था को कहाँ से कहाँ पहुंचाते है। एक बात हम भूल रहे है यही भारत था जिसपे राज़ करने के लिए अंग्रेज़ो ने इतनी मेहनत की साम दाम दंड भेद निति अपनाये, क्या भारत में उस समय बड़ी बड़ी इंडस्ट्री हुआ करती थी नहीं तो अंग्रेज भारत क्या करने आये थे। बस इस प्रश्न के उत्तर में झांकने की जरुरत है तो हम सोच पाएंगे की हमारे किसान हमे कहाँ से कहाँ पहुँचा सकते है। बस सिर्फ सोच/नजरिया बदलने की जरुरत है।
जय हिन्द जय भारत!

Sunday, 20 December 2015

आज की राजनीति दशा और दिशा

माना जाता है की कांग्रेस ने आज़ादी से आज तक जब भी सत्ता में रही उन्होंने बहुत कुछ दिया देश को, इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता लेकिन हम अगर अपने समकक्ष आज़ाद हुए देशो की तुलना अपने देश से करे, अपने कुछ एक परोसी देश को छोड़ के, हम आम आदमी के विकाश में कही पीछे रह गए है। तो हमे उन देशो के साथ हमे ये देखना होगा ही हम ऐसे कैसे पीछे रह गए। क्या हमारे यहाँ इच्छाशक्ति की कमी है नहीं, हमारे यहाँ युवाओं की कमी है नहीं, क्या हमारे यहाँ स्किल्ड युवाओ की कमी है नहीं। फिर ऐसी क्या बात है जो हम पीछे रह गए सिर्फ और सिर्फ राजनितिक दूरदर्शिता जो देश के भविष्य को नहीं सोच के, वे सिर्फ अपने भविष्य को सोच रहे है।


तो प्रश्न उठता है किसने किया ये और किसकी गलती थी की हम पीछे रह गए?
सीधी सी बात है जिसने राज किया देश पे उनकी गलती थी फिर इस बात को सिद्ध करने के लिए हमे कुछ उदाहरण देने होंगे जो निम्नलिखित है:
१) राजनितिक सत्ता पाने के लिए हमने ऐसे अनावश्यक तत्वों को राजनीती में शामिल किया जो कही से भी समाज से बाहर रहने लायक है।
२) केंद्र की राजनीती का राज्य स्तर पर विकेंद्रीकरण होना।
३) राज्य स्तर की पार्टियों का केंद्र की राजनीति में शामिल होना।
४) राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों का राज्य स्तर पे भूमिका कम होना।
५) राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों का विश्वास कम हो जाना।
६) कुछ ऐसे निर्णय जिनके लागु होने में देरी।
७) कुछ ऐसे निर्णय जिनका सही तरह से पालन ना होना।
८) चाहे कोई कानून कितना ही महत्वपूर्ण क्यों ना हो देश के लिए, हमे खिलाफ में ही बोलना है जैसी सोच विपक्ष के सांसदों का।
९) देश की जांच एजेंसियों का राजनितिक विद्वेष के लिए उपयोग करना।
१०) राजनीतिज्ञों की भाषा की शालीनता का क्षय होना।
और भी कुछ लाइने जुड़ सकती है इसमें। उपरोक्त पंक्तियाँ गिनाने के लिए छोटी है लेकिन इनके आशय बड़े है हमे इनको समझने की कोशिश करनी होगी।

मुझे अब भी याद है की जब वी पी सिंह की सरकार बनी थी तो उस समय चुनावो में जनता पार्टी ने ये नारा दिया था "गली गली में शोर है, राजीव गांधी चोर है।" क्या यह नारा सही था? क्या यह नारा कही से राजीव गांधी जी को गलत नहीं लगा होगा? क्या राजीव गांधी जी को ये नहीं लगा होगा की ये मानहानि की बात है। बिना किसी पर्याप्त सबूतो के इस तरह का नारा देना कहा तक सही था? लेकिन अगर आज कोई इस तरह की बात करे तो दो बाते आएँगी:
१) ये राजनितिक साजिश है।
२) इनके पास बोलने के लिये कुछ नहीं है इसीलिए ऐसी अनर्गल बात कर रहे है।
३) हम इन्हें कोर्ट में चुनौती देंगे।
४) हम तत्काल इनका इस्तीफा मांगते है।
५) हमने कोई घोटाला नहीं किया ये अपना घोटाला छुपाने के लिए ऐसा कह रहे है।
६) हम आंदोलन करेंगे, हम इन्हें बेनकाब कर के रहेंगे इत्यादि।

क्या ये राजनितिक असहिष्णुता है, कही से नहीं। राजनितिक असहिष्णुता तो तब हो जब आपको ये समझ आये की ये राजनीती है इसीलिए ये बाते तो होती रहती है बेहतर हो इन राजनितिक आक्षेपो का राजनितिक जवाब दिया जाये ना की व्यक्तिगत आक्षेप लगाया जाये। कहने की बात सिर्फ ये है की अगर आप राजनीती में होते है तो इन छोटे बड़े आक्षेपो को राजनितिक जवाब देने आना चाहिए।

लेकिन लग नहीं रहा है आज के राजनेताओ को ये कला सही से आती है क्योंकि वे बड़ी जल्दी होश खो देते है क्या ये राजनितिक सहिष्णुता का परिचय है यहाँ पे कुछ उदाहरण देना आवश्यक है
१) राकेश कुमार जी के सीबीआई जाँच पे अरविन्द केजरीवाल जी का माहात्म्य।
२) नेशनल हेराल्ड वाले केस में राहुल गांधी जी का ये कहना की इस केस के बारे में सबको पता है किसका हाथ है और राजनितिक बदले की साजिश बोलना।
३) नितीश कुमार जी का डीएनए वाली बात को पुरे बिहार वासियो का डीएनए से तुलना करना और कुछ लोगो का डीएनए रिपोर्ट प्रधानमंत्री कार्यालय भेजना।
४) बार बार बीजेपी के प्रवक्ताओ का ये कहना की कांग्रेस को जनता ने नकार दिया है, ये सही है नकार दिया है आप भी इस मुगालते में ना रहे ५ साल बाद आपकी भी छुट्टी हो सकती है थोड़ा अहं कम कर ले और जनता के लिए काम करे।

क्या ये राजनितिक असहिष्णुता नहीं है? जब हम राजीव गांधी जी के ज़माने का आज से तुलना करते है तो इसका मतलब है आप अपनी राजनितिक असहिष्णुता की तुलना करे की तब क्या थी आज क्या है।

संसद के शीतकालीन सत्र को देख कर तो ऐसा ही लगता है क्योंकि एक राजनितिक पार्टी के ऊपर केस में कोर्ट में पेशी को लेकर इतना हाय तौबा मचा की सत्र का १० दिन पूरी तरह धूल गया। क्या यह राजनितिक अदूरदर्शिता या राजनितिक असहिष्णुता है? आप कुछ भी मान सकते है ये आपकी सोच पे निर्भर करता है। क्या हम कभी जागेंगे की हमने इन्हें इसी तरह से संसद में व्यवहार करने के लिए चुना है। ५४५ सांसद में से कुछ एक ४५-५० सांसदों ने पूरी तरह संसद को चलने नहीं दिया। एक और उदाहरण हम ले सकते है एक सांसद महोदय ने एक पत्रिका के लेख के आधार पे संसद में ये कह देना की देश कुछ एक सौ सालो बाद हिन्दू कट्टरपंथी शासक आया है और उसके कुछ घंटे बाद उस पत्रिका ने अपने उस खेद जताया लेकिन हमारे सांसद महोदय ने कुछ नहीं कहा, क्या सांसद महोदय को भी माफ़ी नहीं मांगनी चाहिए थी। आपको जनता ने जिम्मेदारी पूर्वक बात करने के लिए संसद में भेजा है।

इसी सत्र में संसद में असहिष्णुता को लेकर बहस होना तय हुआ क्योंकि देश के कुछ राजनितिक पार्टियां ऐसा चाहती थी। क्योंकि उन्हें चेन्नई जैसे शहर का १०० सालो में सबसे बुरा हाल रहा दिखाई नहीं दिया, उन्हें देश में मर रहे किसानो का हाल दिखाई नहीं दिया। और जब संसद में असहिष्णुता पर बहस शुरू हुई तो कई सांसद संसद से नदारद नजर आये। कुछ ने तो अपने भाषणों में ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया जो कही से आम बोलचाल की भाषा में उपयुक्त नहीं ठहराई जा सकती, ये सुन के सिर्फ ये कहा जा सकता है की ये सिर्फ राजनितिक विद्वेष के लिए कही गई बाते है और ऐसे शब्दों का इस्तेमाल कुछ माननीय कहे जाने वाले सांसदों ने उठाया। संसद में किसी बात पे बहस क्यों होती है और क्यों होनी चाहिए, अगर आसान शब्दों में समझा जाये तो ये कहा जायेगा की किसी भी मुद्दे पे सांसदों की राय जानना लेकिन यहाँ पे लगता है आपको अपने पार्टी की तरफ से बोलना होता है चाहे वो मुद्दा उस सांसद और उसके क्षेत्र के लिये कितना ही महत्वपूर्ण क्यों ना हो।

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